Skip to content

प्रवाल भित्ति क्या है? प्रकार, वितरण और महत्व

प्रवाल भित्ति

Table of Contents

प्रवाल भित्ति समुद्री प्रवाल कीटों द्वारा निर्मित कैल्शियम कार्बोनेट संरचनाएं हैं जो 25°N से 25°S अक्षांशों के बीच उष्णकटिबंधीय सागरों में पाई जाती हैं। ये तीन मुख्य प्रकारों में विभाजित हैं: तटीय प्रवाल भित्ति, अवरोधक प्रवाल भित्ति और एटॉल। इनके विकास के लिए 20-30°C तापमान, उचित लवणता (27-30‰) और स्वच्छ जल आवश्यक है।

coral reefs

अटलांटिक महासागर में, ब्राज़ील के तटीय क्षेत्रों एवं पश्चिमी द्वीपसमूहों के चबूतरों पर भी प्रवाल भित्तियाँ स्पष्ट रूप से देखी जा सकती हैं। परंतु, महासागरों एवं समुद्रों में इनका विकास समान रूप से नहीं हुआ है; बल्कि इनका निर्माण केवल उन्हीं क्षेत्रों में सीमित रहा है, जहाँ प्रवालों की उत्पत्ति एवं विकास के लिये अनुकूल परिस्थितियाँ उपलब्ध रही हैं।

प्रवाल भित्तियों का भौगोलिक वितरण (Geographical Distribution of Coral Reefs)

प्रवाल जीवों की वृद्धि हेतु आवश्यक तापमान सीमा 20° से 30° सेल्सियस के मध्य होती है, जो मुख्यतः उष्ण कटिबंधीय जल क्षेत्रों में ही उपलब्ध होती है। अतः अधिकांश प्रवाल भित्तियाँ 30° उत्तरी से 30° दक्षिणी अक्षांशों के बीच ही सीमित रहती हैं। इन अक्षांशों के भीतर भी इनका अधिकतर विकास महासागरों के पश्चिमी तटीय क्षेत्रों में हुआ है।

प्रवाल भित्तियों का सबसे व्यापक विकास प्रशांत महासागर एवं हिंद महासागर में परिलक्षित होता है। विशेषकर ऑस्ट्रेलिया, इंडोनेशिया तथा फिलीपींस द्वीपसमूहों के समीप इनकी घनत्वपूर्ण उपस्थिति पाई जाती है। ऑस्ट्रेलिया की ‘ग्रेट बैरियर रीफ‘ को विश्व की सबसे विशाल एवं उल्लेखनीय प्रवाल संरचना के रूप में मान्यता प्राप्त है। इसी प्रकार, मेडागास्कर द्वीप एवं अफ्रीका के पूर्वी तटीय क्षेत्रों में भी प्रवाल भित्तियों का प्रभावशाली विकास हुआ है। अटलांटिक महासागर में पश्चिमी द्वीपसमूहों के समीप भी इनका प्राकृतिक विस्तार देखा गया है।

प्रवाल भित्तियाँ, जैव विविधता के स्तर पर उष्णकटिबंधीय सदाबहार वनों की अपेक्षा भी अधिक समृद्ध हैं। इसीलिए इन्हें ‘सामुद्रिक वर्षावन’ की संज्ञा दी जाती है, जो इनके पारिस्थितिक महत्व को और अधिक गंभीर एवं मौलिक सिद्ध करता है।

प्रवाल जंतु (Coral Animals)

प्रवाल जंतु, जिन्हें पॉलिप (Polyp) के नाम से भी जाना जाता है, की बाह्य तंतु संरचनाओं में एक विशिष्ट प्रकार का सूक्ष्म पादप शैवाल पाया जाता है, जिसे ‘जूजैंथेलाई शैवाल (Zooxanthellae algae)‘ कहा जाता है। यह शैवाल सूर्य के प्रकाश की सहायता से प्रकाश संश्लेषण द्वारा अपना भोजन स्वयं उत्पन्न करता है। जब समुद्री जल का तापमान अपेक्षित सीमा से अधिक बढ़ जाता है, तब प्रवाल इन शैवालों को अपने शरीर से निष्कासित कर देते हैं। इस प्रक्रिया के पश्चात प्रवालों को आवश्यक पोषण प्राप्त नहीं हो पाता और अंततः उनकी मृत्यु हो जाती है।

कोरलाइट (Corallite)

प्रवाल जंतु द्वारा निर्मित बाह्य आवरण को ‘कोरलाइट‘ अथवा प्रवाल का संरचनात्मक गृह कहा जाता है। वास्तविक रूप में, ये कोरलाइट जीवित प्रवाल पॉलिप के शरीर का भाग होते हैं, जिन्हें एक्सोस्केलेटन (Exoskeleton) के रूप में भी जाना जाता है। इनकी संरचना अत्यंत घनी और सुदृढ़ होती है तथा इनका निर्माण कैल्शियम कार्बोनेट के द्वारा होता है। इन्हीं कोरलाइट इकाइयों के एकत्रीकरण से प्रवाल भित्तियों की मजबूत आधारभूत संरचना निर्मित होती है।

READ ALSO  वायुदाब, वायुदाब कटिबंध और भूमंडलीय पवन" (Air Pressure, Pressure Belt, and Planetary Winds)

प्रवाल भित्ति (Reef)

स्वतंत्र प्रवाल पॉलिपों के कोरलाइट, अर्थात् कैल्शियम कार्बोनेट से निर्मित कठोर खोल, के घनात्मक संयोजन एवं संसंयोजन (Cementation) द्वारा जो दृढ़ संरचना विकसित होती है, उसे ही प्रवाल भित्ति कहा जाता है। जैसे-जैसे प्रवाल पॉलिप नष्ट होते जाते हैं, उनके अस्थि-पंजर परत दर परत एक-दूसरे के ऊपर जमा होते जाते हैं। यह क्रमिक संचयन समय के साथ एकीकृत होकर एक ठोस एवं विस्तृत संरचना में परिवर्तित हो जाता है, जिसे प्रवाल भित्ति के रूप में पहचाना जाता है। यह संरचना अंततः वृहदाकार भित्ति प्रणाली का रूप धारण कर लेती है।

प्रवालों के विकास की दशाएँ (The Conditions for Growth of Corals)

  • प्रवाल जीवों का जीवन केवल कुछ विशिष्ट, संवेदनशील पर्यावरणीय दशाओं में ही संभव होता है; विपरीत परिस्थितियों में इनका विकास अवरुद्ध हो जाता है। अतः इनके समुचित विकास के लिये अनुकूल पर्यावरणीय कारक निम्नलिखित प्रकार से वर्णित किए जा सकते हैं—
  • प्रवालों के विकास एवं जीवंत बने रहने के लिए 20° से 30° सेल्सियस के मध्य तापमान का होना अत्यंत आवश्यक है। इससे कम या अधिक तापमान पर प्रवालों की विकास प्रक्रिया बाधित हो जाती है। इसी कारणवश ये उष्णकटिबंधीय समुद्री तटवर्ती क्षेत्रों में पाई जाती हैं, जहाँ से उष्ण वायुधाराएँ प्रवाहित होती हैं। ये वायुधाराएँ तटीय जल के साथ-साथ गहराई में स्थित जलस्तर को भी गर्म कर देती हैं, जिससे प्रवालों को विकास हेतु उपयुक्त तापीय ऊर्जा प्राप्त होती है।
  • समुद्री जल में 30 फैदम से अधिक गहराई पर प्रवाल जीव सक्रिय नहीं रह पाते, क्योंकि गहराई के साथ तापमान, कैल्शियम की उपलब्धता, एवं प्रकाश की तीव्रता में गंभीर कमी आने लगती है। परिणामस्वरूप, प्रवालों का विकास पहले तटीय दिशा में, तत्पश्चात समुद्र की ओर बाहर की दिशा में अग्रसर होता है, जहाँ ये आवश्यक प्राकृतिक संसाधनों की पूर्ति प्राप्त कर सकते हैं।
  • अत्यधिक अवसादयुक्त या प्रदूषित जल में प्रवालों को भोजन ग्रहण करने में कठिनाई होती है, जबकि अत्यंत स्वच्छ जल में भोजन की अल्पता से भी उनका विकास निरुद्ध हो जाता है। नदियों के मुहाने एवं खाड़ी क्षेत्रों में नदियों द्वारा लाए गए अवसाद के भारी निक्षेपण से जल मैला हो जाता है, जिससे प्रवालों का विकास असाध्य बन जाता है।
  • प्रवाल जंतुओं के विकास हेतु समुद्री जल की लवणता का स्तर 27‰ से 30‰ के मध्य होना नितांत आवश्यक है। अत्यधिक लवणता वाले जल क्षेत्रों में चूने की मात्रा न्यूनतम होती है, जबकि कैल्शियम कार्बोनेट ही प्रवालों का मुख्य पोषक तत्व होता है। इसी कारण, अधिक खारे जल में आवश्यक पोषण की कमी से प्रवाल जीव नष्ट हो जाते हैं।
  • सागरीय धाराओं एवं लहरों के माध्यम से प्रवालों को आवश्यक खाद्य पदार्थ प्राप्त होते हैं। अतः बंद समुद्री क्षेत्र, लैगून, तथा स्थलीय झीलें जहाँ जल प्रवाह अत्यंत सीमित होता है, प्रवालों के विकास के लिए अप्रयुक्त क्षेत्र बन जाते हैं। जबकि ऑस्ट्रेलिया, मध्य अमेरिका, तथा पूर्वी अफ्रीकी तटों जैसे क्षेत्रों में गर्म समुद्री धाराएँ प्रवाहित होती हैं, जो प्रवालों को निरंतर पोषण आपूर्ति प्रदान करती हैं; परिणामतः इन क्षेत्रों में उनका विकास तीव्रगति से होता है।
  • प्रवाल जीवों के सक्रिय निर्माण के लिए महाद्वीपीय चबूतरों की आवश्यकता होती है, जिन पर सतही संरचनाओं का निर्माण संभव हो सके। जब अंतःसमुद्री चबूतरों पर तापमान, गहराई, एवं लवणता जैसे प्रमुख भौतिक घटक संतुलित होते हैं, तब प्रवाल जंतु वहां अपने गृहों (कोरलाइट्स) की स्थापना करते हैं।
  • मानवजनित आर्थिक क्रियाकलाप जैसे— नगरीकरण, औद्योगीकरण, तथा वनों की अंधाधुंध कटाई — से ग्लोबल वार्मिंग में महत्वपूर्ण वृद्धि होती है, जो प्रवालों पर प्रतिकूल प्रभाव डालती है। इसी प्रकार, दीर्घकालिक जलवायु परिवर्तन के कारण उत्पन्न पर्यावरणीय असंतुलन से प्रवाल जीव अपने आवासों के अनुकूलन में असफल रहते हैं, और अंततः मृत्यु को प्राप्त होते हैं।
  • जब उपर्युक्त पर्यावरणीय दशाएँ अनुकूलित होती हैं, तब प्रवालों का विकास केवल ऊर्ध्वाधर दिशा में नहीं होता, बल्कि यह खुले समुद्र की ओर भी विस्तारित होता है। प्रवाल विकास की प्रक्रिया एक निरंतर क्रम में संचालित होती है, जहाँ मृत प्रवाल संरचनाओं पर नवीन जीवित प्रवाल विकसित होते रहते हैं। इस प्रकार, एक चक्रात्मक प्रक्रिया — उद्भव, मृत्यु, पुनः विकास — निरंतर सक्रिय रहती है, जो कालांतर में प्रवाल भित्तियों के वृहद निर्माण का कारण बनती है।
READ ALSO  Other Planetary Bodies: Physical Geography (UPSC)

प्रवाल भित्ति के प्रकार (Types of Coral Reef)

आकृति एवं संरचना के आधार पर प्रवाल भित्तियों को तीन प्रमुख वर्गों में विभाजित किया जाता है, जो निम्नानुसार हैं—

  • तटीय प्रवाल भित्ति (Coastal Coral Reef)
  • प्रवाल रोधिका अथवा अवरोधक प्रवाल भित्ति (Barrier Reef or Barrier Coral Reef)
  • प्रवाल द्वीप वलय या एटॉल (Coral Island Ring or Atoll)

तटीय प्रवाल भित्ति (Fringing Reef)

जब प्रवाल भित्तियों का निर्माण महाद्वीपीय चबूतरों अथवा द्वीपीय आधारों पर होता है, तब उन्हें ‘तटीय प्रवाल भित्ति’ कहा जाता है। इन भित्तियों की विशेषता यह होती है कि इनका भूमिमुखी भाग अपेक्षाकृत समतल एवं धीरे ढलान वाला होता है, जबकि समुद्र की ओर उन्मुख भाग तीव्र ढलान प्रदर्शित करता है।

तटीय प्रवाल भित्तियाँ सामान्यतः समुद्रतट के समानांतर विकसित होती हैं, जिनका एक सिरा स्थल से सटा हुआ होता है। कई बार स्थल एवं प्रवाल भित्ति के बीच एक संकीर्ण जलरहित या कम-गहराई वाला क्षेत्र बनता है, जो आगे चलकर एक छोटी झील के रूप में परिवर्तित हो जाता है, जिसे ‘बोट चैनल’ कहा जाता है। इस क्षेत्र में पोषण की अल्पता के कारण प्रवाल कीटों का विकास अत्यंत मंद और सीमित रूप में होता है।

ये भित्तियाँ प्रायः संकीर्ण एवं सीमित चौड़ाई वाली होती हैं। जहाँ भी कोई नदी समुद्र में मिलती है, वहाँ पर तटीय प्रवाल भित्तियों की संततता भंग हो जाती है। सकाऊ द्वीप एवं मलेशिया द्वीपसमूहों के तटीय क्षेत्र ऐसे प्रमुख उदाहरण हैं, जहाँ इस प्रकार की प्रवाल संरचनाएँ व्यापक रूप में पाई जाती हैं।

अवरोधक प्रवाल भित्ति (Barrier Coral Reef)

समुद्र तटों से काफी दूरी पर, किन्तु उसके समानांतर दिशा में विकसित, विशाल आकार की प्रवाल भित्तियाँ, जो स्थल भाग से व्यापक एवं गहरे लैगूनों द्वारा पृथक होती हैं, उन्हें अवरोधक प्रवाल भित्तियाँ कहा जाता है। ये प्रवाल रोधिकाएँ अन्य सभी प्रकार की प्रवाल भित्तियों की तुलना में सबसे बड़ी और विस्तृत होती हैं। इनकी पार्श्विक ढाल सामान्यतः 45° होती है।

इस प्रकार की भित्तियाँ सुसंगत एवं सतत क्रम में विकसित नहीं होतीं, बल्कि इनके बीच-बीच में खंडन दिखाई देता है, जिनसे बने अंतरालों में छोटे लैगून निर्मित हो जाते हैं। ये लैगून आंशिक रूप से स्थल से घिरे रहते हैं, जबकि इनका कुछ भाग समुद्र की ओर खुला होता है, जिसे ‘ज्वारीय प्रवेश मार्ग’ (Tidal Inlet) की संज्ञा दी जाती है।

READ ALSO  ऊष्मा बजट से आप क्या समझते हैं?/What do you understand by heat budget?

इन भित्तियों का आधार समुद्र की गहराई में स्थित होता है। कई बार तो यह गहराई 300 फीट से अधिक हो जाती है, जो प्रवाल के सामान्य विकास की सीमा से परे मानी जाती है। यही कारण है कि इतनी गहन जलराशि में प्रवालों का विकास एक जटिल चुनौती बन जाता है।

ग्रेट बैरियर रीफ (Great Barrier Reef)

विश्व की सबसे विशाल एवं उल्लेखनीय अवरोधक प्रवाल भित्ति है ‘ग्रेट बैरियर रीफ’, जो ऑस्ट्रेलिया के पूर्वी तट के समांतर, 9° से 22° दक्षिणी अक्षांशों के मध्य विस्तृत है। इसकी लंबाई लगभग 1920 किलोमीटर है और यह तटरेखा से 32 से 48 किलोमीटर की दूरी तक फैली हुई है। इस विशाल प्रवाल संरचना के अतिरिक्त, क्यूबा के उत्तरी समुद्री भागों तथा फिलीपींस द्वीपसमूह के समीप भी प्रसिद्ध प्रवाल भित्तियाँ पाई जाती हैं।

प्रवाल द्वीप वलय या एटॉल (Coral Island Ring or Atoll)

  • वृत्तीय अथवा अश्वनाल-आकार की प्रवाल भित्तियाँ समुद्री क्षेत्रों में पाई जाती हैं, जिन्हें ‘प्रवाल द्वीप वलय’ या ‘एटॉल’ कहा जाता है। इन प्रवाल संरचनाओं की स्थिति सामान्यतः किसी द्वीप के चारों ओर अथवा किसी जलमग्न स्थल खंड पर होती है। ऐसी संरचनाओं के मध्य स्थित जलीय भाग को ‘लैगून’ कहा जाता है।
  • इन लैगूनों की गहराई सामान्यतः 40 से 70 फैदम (240 से 420 फीट) तक होती है। वृत्ताकार प्रवाल भित्तियों में संततता नहीं होती, बल्कि इनके बीच-बीच में विखंडन पाया जाता है, जिससे लैगूनों का सीधा संपर्क समुद्र से बना रहता है।
  • एटॉल सामान्यतः तीन भिन्न प्रकारों में विभाजित किए जाते हैं, जो निम्नलिखित हैं—
  • वे एटॉल, जिनके मध्य में कोई द्वीप उपस्थित नहीं होता, बल्कि केवल प्रवाल की वलयाकार शृंखलाएँ ही पाई जाती हैं।
  • वे एटॉल, जिनके मध्य भाग में कोई द्वीप विद्यमान होता है, जो लैगून को घेरता है।
  • वे एटॉल, जिनके केंद्र में प्रारंभ में कोई द्वीप नहीं होता, किंतु बाद में सागरीय तरंगों द्वारा अपरदन एवं निक्षेपण की प्रक्रिया से वहाँ द्वीप के समान स्थल भाग उत्पन्न हो जाता है। इन्हें ही ‘प्रवाल द्वीप’ या ‘एटॉल द्वीप’ कहा जाता है।
  • इन वलयाकार प्रवाल संरचनाओं के मध्य स्थित लैगूनों में, यदि पर्यावरणीय दशाएँ अनुकूल होती हैं, तो वहाँ एटॉल द्वीपों का निर्माण होता है। इन द्वीपों पर आगे चलकर नारियल के वृक्षों के समूह, झाड़ियाँ, तथा विविध वनस्पति प्रजातियाँ विकसित हो जाती हैं।
  • प्रशांत महासागर स्थित ‘फुनाफुटी एटॉल’ (एलिस द्वीप समूह में) को विश्व का सबसे प्रसिद्ध एटॉल माना जाता है। इसके अतिरिक्त, ‘बिकिनी एटॉल’ भी एक महत्त्वपूर्ण एटॉल है, जिसे वैश्विक स्तर पर मान्यता प्राप्त है।
  • एटॉल संरचनाएँ विशेष रूप से एंटीलीज सागर, लाल सागर, इंडोनेशियाई सागर, चीन सागर, तथा ऑस्ट्रेलिया सागर में प्रचुर मात्रा में पाई जाती हैं, जहाँ प्रवालों के विकास के लिए आवश्यक भौगोलिक व पारिस्थितिकीय स्थितियाँ विद्यमान हैं।

मुख्य तथ्य – प्रवाल भित्ति

  • भौगोलिक सीमा: 30°N से 30°S अक्षांश के बीच
  • आवश्यक तापमान: 20-30° सेल्सियस
  • लवणता सीमा: 27‰ से 30‰
  • अधिकतम गहराई: 30 फैदम (180 फीट)
  • मुख्य घटक: कैल्शियम कार्बोनेट
  • सबसे बड़ी भित्ति: ग्रेट बैरियर रीफ (1920 किमी)
  • मुख्य क्षेत्र: प्रशांत और हिंद महासागर
  • उपनाम: सामुद्रिक वर्षावन

अक्सर पूछे जाने वाले प्रश्न

प्रवाल भित्ति क्या है?

प्रवाल भित्ति समुद्री प्रवाल कीटों द्वारा निर्मित कैल्शियम कार्बोनेट की संरचनाएं हैं जो उष्णकटिबंधीय सागरों में पाई जाती हैं।

प्रवाल भित्ति कितने प्रकार की होती है?

प्रवाल भित्ति तीन मुख्य प्रकार की होती है – तटीय प्रवाल भित्ति, अवरोधक प्रवाल भित्ति और एटॉल।

विश्व की सबसे बड़ी प्रवाल भित्ति कौन सी है?

ऑस्ट्रेलिया की ग्रेट बैरियर रीफ विश्व की सबसे बड़ी प्रवाल भित्ति है, जो 1920 किलोमीटर लंबी है।

प्रवाल भित्ति के विकास के लिए कौन सी परिस्थितियां आवश्यक हैं?

20-30°C तापमान, 27-30‰ लवणता, 30 फैदम से कम गहराई, स्वच्छ जल और महाद्वीपीय चबूतरे आवश्यक हैं।

प्रवाल भित्तियों को ‘सामुद्रिक वर्षावन’ क्यों कहा जाता है?

उनकी जैव विविधता उष्णकटिबंधीय वनों से भी अधिक होने के कारण उन्हें ‘सामुद्रिक वर्षावन’ कहा जाता है।

Leave a Reply