प्रधानमंत्री मोदी ने थाईलैंड की राजकीय यात्रा के अवसर पर वहां के राजा महा वजिरालोंगकोर्न को सारनाथ परंपरा में निर्मित बुद्ध की पीतल से बनी मूर्ति भेंट की।

सारनाथ मूर्तिकला शैली का परिचय (Sarnath-Sculpture-Style)

उत्पत्ति और विकास : इस विशिष्ट शैली का प्रारंभ कुषाण युग में हुआ, जबकि इसका परिपक्व रूप गुप्त काल में स्पष्ट रूप से दृष्टिगोचर होता है।
नामकरण : चूंकि इस कला शैली की प्रारंभिक उत्पत्ति सारनाथ में हुई थी, इसलिए इसे सारनाथ शैली के नाम से अभिहित किया गया।
यहीं सारनाथ में महात्मा बुद्ध ने अपना प्रथम उपदेश देते हुए ‘धर्मचक्रप्रवर्तन’ की स्थापना की थी।
सारनाथ से कुषाण युग की एक बोधिसत्व की खड़ी मुद्रा में निर्मित विशाल प्रतिमा प्राप्त हुई है।
निर्माण की सामग्रियाँ : प्राचीन समय में इस शैली में प्रायः बलुआ पत्थर का उपयोग किया जाता था, जबकि वर्तमान समय में पत्थर के साथ-साथ पीतल जैसी धातुएं भी प्रमुख रूप से प्रयुक्त की जा रही हैं।
मुख्य विशेषताएँ : इस शैली में निर्मित बुद्ध प्रतिमाएं, गहन शांति और बौद्धिक जागरूकता की महत्वपूर्ण अनुभूति को प्रकट करती हैं।
शारीरिक लक्षण : इन मूर्तियों में बुद्ध की आंखें अधमिलित, नाक तीव्र और होठों पर कोमल मुस्कान अंकित होती है। सारनाथ विद्यालय की प्रतिमाओं में मुखमंडल अत्यंत कोमल होता है, जिससे शांति और ज्ञान की प्रमुख भावना व्यक्त होती है।

मुद्रा : इन मूर्तियों में बुद्ध को धर्मचक्र प्रवर्तन मुद्रा (जो कि शिक्षा देने की मुद्रा है) में बैठे हुए दर्शाया जाता है, जहां उनके हाथों की स्थिति शिक्षण और धर्मचक्र को गति देने की अवस्था को प्रकट करती है।

शारीरिक विन्यास : प्रतिमाओं में सामान्यतः अभंग मुद्रा दर्शायी जाती है, जिसमें शरीर थोड़ा झुका हुआ होता है, जिससे उसमें गति और सौंदर्य की अत्यंत उल्लेखनीय अभिव्यक्ति होती है।
प्रभामंडल : इन प्रतिमाओं के पीछे स्थित प्रभामंडल, प्रायः विस्तृत पुष्प डिजाइनों से अलंकृत होता है, जो न केवल मूर्ति की सौंदर्यात्मक विशेषता को बढ़ाता है, बल्कि इसके आध्यात्मिक महत्व को भी प्रमुखता प्रदान करता है।