
Concept
आधुनिक लोकतांत्रिक शासनों को कार्यपालिका और विधायिका के आपसी संबंधों की प्रकृति के आधार पर अध्यक्षीय प्रणाली तथा संसदीय प्रणाली में वर्गीकृत किया जाता है।
अध्यक्षीय शासन प्रणाली वह व्यवस्था होती है जिसमें कार्यपालिका अपने दायित्वों के लिए विधायिका के प्रति उत्तरदायी नहीं होती। इसे ‘राष्ट्रपति शासन प्रणाली‘ (Presidential system of governance) के रूप में भी जाना जाता है। इस प्रकार की शासन प्रणाली संयुक्त राज्य अमेरिका, ब्राज़ील और रूस जैसे देशों में प्रचलित है।
दूसरी ओर, संसदीय प्रणाली एक ऐसी लोकतांत्रिक व्यवस्था होती है जिसमें कार्यपालिका को अपने सभी कार्यों और वैधता के लिए विधायिका के प्रति उत्तरदायी होना पड़ता है। इस व्यवस्था में कार्यपालिका, विधायिका का अविभाज्य अंग मानी जाती है।
संसदीय प्रणाली की एक विशिष्ट विशेषता यह है कि इसमें राज्य का प्रमुख और सरकार का प्रमुख अलग-अलग व्यक्ति होते हैं। इस प्रणाली को सामान्यतः ‘कैबिनेट प्रणाली’ या ‘सरकार का वेस्टमिंस्टर मॉडल‘ कहा जाता है। ब्रिटेन, भारत, जापान और कनाडा जैसे देशों में यह शासन व्यवस्था सक्रिय रूप से लागू है।
संसदीय शासन को ‘उत्तरदायी शासन’ इस कारण कहा जाता है क्योंकि इसमें मंत्रिपरिषद् (कार्यपालिका) विधायिका के प्रति जवाबदेह होती है तथा जब तक उसे विधायिका का विश्वास प्राप्त रहता है, तब तक वह सत्ता में बनी रहती है।
इस प्रणाली में सरकार का प्रमुख प्रधानमंत्री होता है, जिसके अधीन मंत्रिपरिषद् की समूहगत शक्तियाँ केंद्रित रहती हैं। प्रधानमंत्री, मंत्रिपरिषद् के अन्य सदस्यों में न तो अधिक श्रेष्ठ होता है और न ही कनिष्ठ, बल्कि उसे उनके बीच ‘प्रथम समकक्ष‘ का स्थान प्राप्त होता है。
भारतीय संविधान ने केंद्र तथा राज्य दोनों स्तरों पर संसदीय प्रणाली को ही शासन के रूप में स्वीकृत किया है।
संसदीय प्रणाली की विशेषताएँ (Characteristics of the Parliamentary System)
भारत में संसदीय शासन प्रणाली की निम्नलिखित प्रमुख विशेषताएँ विद्यमान हैं –
नाममात्र की और वास्तविक कार्यपालिका (Nominal and Real Executive)
भारतीय गणराज्य में कार्यपालिका का प्रारंभिक प्रमुख राष्ट्रपति होता है, परन्तु वास्तविक शक्तियाँ प्रधानमंत्री के पास निहित होती हैं। संविधान के अनुच्छेद 74 के तहत यह निर्धारित किया गया है कि राष्ट्रपति को एक ऐसी मंत्रिपरिषद् द्वारा सहायता और परामर्श प्राप्त होगा, जिसके द्वारा किए गए सुझावों के आधार पर राष्ट्रपति को अपने कार्य संपादित करने आवश्यक रूप से बाध्य रहना होगा।
सामूहिक उत्तरदायित्व (Collective Responsibility)
संविधान के अनुच्छेद 75 के अंतर्गत यह व्यवस्था की गई है कि मंत्रिपरिषद् लोक सभा के प्रति सामूहिक रूप से उत्तरदायी रहेगी। इस महत्वपूर्ण सिद्धांत के अनुसार यदि लोक सभा सरकार के विरुद्ध अविश्वास प्रस्ताव पारित करती है, तो राष्ट्रपति मंत्रिपरिषद् को बर्खास्त कर सकता है। इस सिद्धांत का एक अन्य महत्त्वपूर्ण पहलू यह है कि मंत्रिपरिषद् द्वारा लिया गया प्रत्येक निर्णय सभी मंत्रियों के लिए अनिवार्य रूप से बाध्यकारी होता है। यदि कोई मंत्री किसी निर्णय से असहमति प्रकट करता है, तो उसे अपने पद से त्यागपत्र देना पड़ता है। इसी प्रकार, जब कोई मंत्री विधायिका में कोई वक्तव्य प्रस्तुत करता है, तो उसे मंत्रिपरिषद् के सामूहिक विचार के रूप में ही देखा जाता है।
बहुमत प्राप्त राजनीतिक दल का शासन (Rule of Majority-attained Political Party)
लोक सभा में बहुमत प्राप्त करने वाला राजनीतिक दल सरकार के गठन का पूर्ण अधिकार प्राप्त करता है। इस सदन में सबसे अधिक सीटें प्राप्त करने वाले दल के सर्वाधिक लोकप्रिय नेता को राष्ट्रपति द्वारा प्रधानमंत्री के पद पर नियुक्त किया जाता है। शेष मंत्रियों की नियुक्तियाँ राष्ट्रपति प्रधानमंत्री की सिफारिश के आधार पर करता है।
दोहरी सदस्यता (Dual Membership)
संसदीय प्रणाली में मंत्रिपरिषद् के सदस्य, विधायिका एवं कार्यपालिका दोनों में समान रूप से सहभागिता निभाते हैं। इस प्रणाली के अंतर्गत मंत्रिपरिषद् का सदस्य बनने के लिए विधानमंडल के किसी भी एक सदन की सदस्यता आवश्यक होती है। यदि कोई मंत्री उस समय किसी भी सदन का सदस्य नहीं है, तो उसे छह माह के भीतर किसी सदन की सदस्यता ग्रहण करना अनिवार्य होता है, अन्यथा उसका पद स्वतः समाप्त हो जाएगा।
गोपनीयता का सिद्धांत (Principle of Confidentiality)
मंत्रिपरिषद् के सदस्य अपने दायित्व को संभालने से पूर्व गोपनीयता की शपथ लेते हैं। इस नियम के अंतर्गत, मंत्रिगण अपने निर्णयों, योजनाओं और नीतियों से संबंधित विवरणों को सार्वजनिक रूप से प्रकट नहीं कर सकते। यह व्यवस्था शासन संचालन में नैतिक अनुशासन और एकरूपता सुनिश्चित करने के लिए अत्यंत महत्वपूर्ण मानी जाती है।
निम्न सदन का विघटन (Dissolution of the Lower House)
इस शासन प्रणाली में कार्यपालिका को विधायिका के निम्न सदन यानी लोक सभा को पूर्व निर्धारित कार्यकाल समाप्त होने से पहले विघटित करने का अधिकार प्राप्त होता है। प्रधानमंत्री, आवश्यकता पड़ने पर, राष्ट्रपति को लोक सभा को भंग करने का सुझाव दे सकते हैं, जिसे राष्ट्रपति स्वीकार कर सकते हैं। यह प्रावधान राजनीतिक स्थिरता बनाए रखने के दृष्टिकोण से अत्यंत आवश्यक है।
प्रधानमंत्री का नेतृत्व (Leadership of Prime Minister)
प्रधानमंत्री, मंत्रिपरिषद् का प्रमुख संचालक होता है और उसका कार्य इस परिषद् का मार्गदर्शन और समन्वय करना होता है। इसके अतिरिक्त, प्रधानमंत्री जिस सदन का सदस्य होता है, उसे वह सदन भी अपना प्रमुख नेता मानता है, जिससे प्रधानमंत्री की भूमिका और भी अधिक प्रभावशाली बन जाती है।
संसदीय प्रणाली के सकारात्मक पक्ष (Positive Aspects of the Parliamentary System)
विधायिका एवं कार्यपालिका में समन्वय (Coordination between Legislature and Executive)
संसदीय शासन प्रणाली में कार्यपालिका, विधायिका का अभिन्न अंग होती है, जिससे दोनों के मध्य घनिष्ठ संपर्क तथा समन्वय स्थापित होता है। इस पारस्परिक जुड़ाव के कारण प्रशासनिक निर्णयों का क्रियान्वयन और विधायी प्रक्रिया के बीच तालमेल बना रहता है, जो शासन को अधिक प्रभावी और उत्तरदायी बनाता है।
उत्तरदायी सरकार (Responsible Government)
इस प्रणाली के अंतर्गत मंत्रिपरिषद के सदस्य लोक सभा के प्रति सामूहिक रूप से उत्तरदायी होते हैं। संसदीय उत्तरदायित्व की यह विशेषता लोकतंत्र की नैतिक मजबूती को दर्शाती है। संसद के सदस्य, मंत्रियों के कार्यों पर प्रश्नकाल, स्थगन प्रस्ताव, अल्पसूचित प्रश्न एवं अविश्वास प्रस्ताव जैसे नियंत्रण उपकरणों के माध्यम से सतत निगरानी रखते हैं, जिससे प्रशासनिक कार्यों में पारदर्शिता सुनिश्चित होती है।
निरंकुशता का अभाव (Lack of Autocracy)
इस प्रणाली की एक मौलिक विशेषता यह है कि शासन की शक्तियाँ किसी एक व्यक्ति में केंद्रित नहीं होतीं, अपितु वे मंत्रिपरिषद और विधायिका के बीच समान रूप से विभाजित होती हैं। निर्णय सर्वसम्मति से लिए जाते हैं, जिससे तानाशाही प्रवृत्तियों का उद्भव नहीं हो पाता और सत्ता का लोकतांत्रिक संतुलन बना रहता है।
व्यापक प्रतिनिधित्व (Comprehensive Representation)
संसदीय शासन व्यवस्था में मंत्रीगण सामान्यतः उन सदनों के निर्वाचित सदस्य होते हैं, जो जन प्रतिनिधित्व के आधार पर गठित होते हैं। इस कारण मंत्रिपरिषद में समाज के विविध वर्गों, विचारधाराओं, और भौगोलिक क्षेत्रों का प्रतिनिधित्व सुनिश्चित होता है, जो शासन को समावेशी और व्यापक दृष्टिकोण वाला बनाता है।
वैकल्पिक सरकार की व्यवस्था (Regime of Alternative Government)
यदि सत्तारूढ़ दल संसद में बहुमत खो बैठता है, तो देश का संवैधानिक प्रमुख (राष्ट्रपति या राज्यपाल), विपक्षी दल को सरकार गठन के लिए आमंत्रित कर सकता है। यह प्रणाली शासन में विकल्पों की संभाव्यता को सशक्त करती है। जैसा कि आइवर जेनिंग्स ने कहा है, “विपक्ष का नेता वैकल्पिक प्रधानमंत्री होता है।” यह व्यवस्था शासन को प्रतिस्पर्धात्मक, सशक्त और लोकतांत्रिक बनाए रखती है।
संसदीय प्रणाली के नकारात्मक पक्ष (Negative Aspects of the Parliamentary System)
अस्थिर सरकार (Unstable Government)
संसदीय शासन प्रणाली, अध्यक्षीय प्रणाली की तुलना में कम स्थायित्वपूर्ण मानी जाती है, क्योंकि इसकी स्थिरता पूर्णतः विधायिका के विश्वास पर आधारित होती है। यदि लोक सभा में सत्तारूढ़ दल अपना बहुमत खो देता है या उसके विरुद्ध अविश्वास प्रस्ताव पारित हो जाता है, तो सरकार को त्यागपत्र देना पड़ता है। इस परिस्थिति में शासन निरंतर राजनीतिक अस्थिरता का शिकार हो सकता है, जिससे प्रशासनिक निर्णयों में अवरोध उत्पन्न होते हैं।
मंत्रिपरिषद की निरंकुशता (Autocracy of Cabinet)
यदि सत्तारूढ़ दल को लोक सभा में पूर्ण बहुमत प्राप्त हो, तो मंत्रिपरिषद के पास अपार अधिकार संचित हो जाते हैं। ऐसी स्थिति में यह संभावना प्रबल होती है कि मंत्रिपरिषद अपनी शक्तियों का एकपक्षीय प्रयोग कर शासन को अत्यधिक केन्द्रित और नियंत्रित बना दे। प्रसिद्ध विचारक लास्की के अनुसार, “संसदीय व्यवस्था कार्यपालिका को तानाशाही की स्थिति प्रदान कर सकती है।” इससे लोकतांत्रिक संतुलन को क्षति पहुँचने की आशंका बनी रहती है।
नीतियों और निर्णयों की अनिश्चितता (Uncertainty of Policies and Decisions)
इस शासन प्रणाली की एक गंभीर चुनौती यह है कि नीतियाँ और निर्णय स्थायित्वविहीन हो सकते हैं। सरकारें बहुमत बनाए रखने के लिए लोकलुभावन निर्णयों को प्राथमिकता देती हैं, जिससे दीर्घकालिक रणनीतियों की उपेक्षा होती है। इसके अतिरिक्त, जब भी एक नई सरकार सत्ता में आती है, तो वह पूर्ववर्ती सरकार की नीतियों को बदलने की प्रवृत्ति अपनाती है, जिससे प्रशासनिक निरंतरता बाधित होती है और विकास कार्यों में अस्थिरता आती है।
शक्तियों के पृथक्करण का उल्लंघन (Violation of Separation of Powers)
शक्तियों के पृथक्करण का सिद्धांत शासन की तीनों शाखाओं – विधायिका, कार्यपालिका और न्यायपालिका – के स्वतंत्र अस्तित्व की वकालत करता है। परंतु संसदीय प्रणाली में विधायिका और कार्यपालिका के बीच स्पष्ट सीमांकन नहीं होता, क्योंकि कार्यपालिका, विधायिका का ही एक भाग होती है। राजनीतिक विश्लेषक बेंघॉट के अनुसार, “कैबिनेट कार्यपालिका और विधायिका के मध्य हाईफेन के समान है, जो दोनों को जोड़ता है।” इस स्थिति में शक्तियों का स्वतंत्र संतुलन प्रभावित होता है और शासन की परिशुद्धता व पारदर्शिता पर प्रश्न उठते हैं।
संसदीय प्रणाली अपनाने के कारण (Reasons of Adoption of Parliamentary System)
संसदीय प्रणाली से निकट संबंध (Close Relation to Parliamentary System)
भारत में संसदीय शासन प्रणाली को अंगीकृत करने का एक प्रमुख कारण यह था कि ब्रिटिश औपनिवेशिक शासन के अंतर्गत भारतीय समाज इस प्रणाली से पहले से ही परिचित हो चुका था। ब्रिटिश शासन के अंतर्गत पारित विविध भारतीय शासन अधिनियमों ने भारत में संसदीय परंपराओं की नींव रखी थी। इसी सन्दर्भ में संविधान सभा के सदस्य के.एम. मुंशी ने यह उल्लेखनीय वक्तव्य दिया था – “इस देश में पिछले 30-40 वर्षों से सरकारी काम में कुछ उत्तरदायित्वों को शुरू कराया गया है। इससे हमारी संवैधानिक परंपरा संसदीय बनी है। इस अनुभव के बाद हमें पीछे क्यों जाना चाहिए और क्यों महान अनुभव को खरीदें।” यह वक्तव्य भारतीयों की संवैधानिक समझ और सांसदीय शासन की सुदृढ़ नींव को स्पष्ट रूप से प्रतिपादित करता है।
उत्तरदायित्व को प्राथमिकता (Priority to Responsibility)
संविधान सभा में अपने विचार व्यक्त करते हुए डॉ. भीमराव अंबेडकर ने इस तथ्य पर बल दिया कि लोकतांत्रिक कार्यपालिका को दो अनिवार्य गुणों – स्थायित्व एवं उत्तरदायित्व – को साधने का प्रयास करना चाहिए। यद्यपि उन्होंने यह भी स्वीकार किया कि कोई भी शासन प्रणाली इन दोनों गुणों को एक साथ पूर्णतः साध नहीं सकती। अध्यक्षीय प्रणाली, जहाँ स्थायित्व को वरीयता देती है, वहीं संसदीय प्रणाली, उत्तरदायित्व को अधिक महत्व प्रदान करती है। इसलिए प्रारूप समिति ने संसदीय शासन प्रणाली की अनुशंसा करते हुए कार्यपालिका के उत्तरदायित्व को स्थायित्व की तुलना में अधिक प्राथमिकता दी, जिससे लोकतांत्रिक शासन के प्रति जवाबदेही सुनिश्चित की जा सके।
भारतीय समाज की प्रकृति (Nature of Indian Society)
भारतीय समाज की सबसे विशिष्ट पहचान उसकी सांस्कृतिक, भाषाई, धार्मिक एवं सामाजिक विविधता रही है। इस विविधतापूर्ण संरचना के भीतर राष्ट्रीय एकता को बनाए रखना तथा समाज के विभिन्न वर्गों के हितों की रक्षा करना एक अत्यंत जटिल कार्य है। इसी जटिल सामाजिक स्वरूप को ध्यान में रखते हुए संसदीय शासन प्रणाली को अपनाया गया, क्योंकि यह प्रणाली लोक प्रतिनिधियों के माध्यम से शासन में सहभागिता को सुनिश्चित करती है। इससे न केवल बहुलतावादी समाज को उचित प्रतिनिधित्व मिलता है, बल्कि यह राष्ट्रीयता की भावना को भी सुदृढ़ करता है。
भारतीय और ब्रिटिश संसदीय प्रणाली में अंतर (Difference between Indian and British Parliamentary System)
भारतीय संसदीय व्यवस्था, ब्रिटेन की संसदीय प्रणाली का एक संशोधित और परिमार्जित रूप है। दोनों व्यवस्थाओं के बीच कुछ मौलिक अंतर पाये जाते हैं, जो निम्नलिखित क्षेत्रों में परिलक्षित होते हैं:
विषय | ब्रिटेन | भारत |
---|---|---|
संवैधानिक प्रमुख | वंशानुगत राजा | निर्वाचित राष्ट्रपति |
संसद की स्थिति | पूर्णतः सर्वोच्च | संविधान द्वारा सीमित शक्तियाँ |
प्रधानमंत्री का चयन | अनिवार्यतः निम्न सदन से | संसद के किसी भी सदन से |
मंत्री पद हेतु पात्रता | संसद सदस्यता अनिवार्य | बाद में सदस्यता प्राप्त की जा सकती है |
विधिक उत्तरदायित्व | मंत्री विधि के प्रति उत्तरदायी | ऐसी कोई स्पष्ट उत्तरदायित्व नहीं |
विश्लेषणात्मक व्याख्या:
ब्रिटेन में राज्य का संवैधानिक प्रमुख एक वंशानुगत सम्राट होता है, जबकि भारत में यह पद राष्ट्रपति को प्राप्त होता है, जिसे एक लोकतांत्रिक प्रक्रिया के माध्यम से निर्वाचित किया जाता है। यही कारण है कि भारत को एक गणराज्य (Republic) माना जाता है, जबकि ब्रिटेन इस श्रेणी में नहीं आता।
ब्रिटेन की संसद, विशेषकर हाउस ऑफ कॉमन्स, पूर्णतः सर्वोच्च निकाय मानी जाती है, जबकि भारत में संसद की शक्तियाँ संविधानिक सीमाओं के अधीन हैं। भारतीय संविधान के विभिन्न प्रावधानों तथा न्यायपालिका के निर्णयों ने संसद की सर्वोच्चता पर संयम लगाया है।
ब्रिटेन में प्रधानमंत्री का चयन हाउस ऑफ कॉमन्स से ही होता है, जो वहाँ की निम्न सदन है। इसके विपरीत, भारत में प्रधानमंत्री संसद के किसी भी सदन (लोक सभा या राज्य सभा) का सदस्य हो सकता है।
ब्रिटिश व्यवस्था में, कोई भी व्यक्ति मंत्री बनने हेतु संसद का सदस्य होना अनिवार्य होता है। इसके उलट, भारतीय संविधान यह सुविधा प्रदान करता है कि कोई गैर-सांसद भी मंत्री पद पर अस्थायी रूप से नियुक्त हो सकता है, बशर्ते कि वह छः माह की अवधि में संसद के किसी एक सदन की सदस्यता प्राप्त कर ले।
विधिक उत्तरदायित्व की दृष्टि से, ब्रिटिश प्रणाली में मंत्री कानूनों के अनुपालन हेतु उत्तरदायी होता है। भारत में, यद्यपि मंत्री परिषद सामूहिक रूप से लोक सभा के प्रति उत्तरदायी होती है, तथापि उनके ऊपर प्रत्यक्ष विधिक उत्तरदायित्व की कोई स्पष्ट अनिवार्यता नहीं होती। साथ ही, भारत में मंत्री को अपने कार्यालयीन कार्यों हेतु संवैधानिक प्रमुख (राष्ट्रपति) के समक्ष प्रति-हस्ताक्षर करना अनिवार्य नहीं होता, जैसा कि ब्रिटेन में अपेक्षित होता है।