
राज्य सभा भारत की संसद का ऊपरी सदन है और भारत की संघीय इकाइयों – राज्यों और केंद्र शासित प्रदेशों के संस्थागत प्रतिनिधित्व के रूप में कार्य करता है। यह राष्ट्रीय स्तर पर भारत के द्विसदनीय विधायिका का एक प्रमुख घटक है, जो लोकसभा (लोगों का सदन) का पूरक है।
राज्य सभा का गठन (Constitution of Rajya Sabha)
भारतीय संविधान के अनुच्छेद 80 के अंतर्गत राज्य सभा के गठन से जुड़े प्रावधानों को निर्धारित किया गया है। इस अनुच्छेद के अनुसार, राज्य सभा की कुल अधिकतम सदस्य संख्या 250 निर्धारित की गई है। इन सदस्यों में से 238 सदस्य विभिन्न राज्यों और संघ राज्यक्षेत्रों से अप्रत्यक्ष निर्वाचन के माध्यम से चुने जाते हैं, जबकि 12 सदस्य राष्ट्रपति द्वारा नामांकित किए जाते हैं।
राष्ट्रपति द्वारा मनोनीत ये सदस्य साहित्य, विज्ञान, कला और समाज सेवा जैसे क्षेत्रों में विशेष योग्यता और योगदान रखने वाले होते हैं। यह महत्वपूर्ण है कि ये मनोनीत सदस्य राष्ट्रपति के निर्वाचन की प्रक्रिया में भाग नहीं लेते।
वर्तमान में राज्य सभा की कुल सदस्य संख्या 245 है, जिनमें से 225 सदस्य राज्यों से, 8 सदस्य संघ राज्यक्षेत्रों से और 12 सदस्य राष्ट्रपति द्वारा नामांकित होते हैं।
सीटों का आवंटन (Allocation of Seats)
संविधान की चौथी अनुसूची में राज्य सभा में राज्यों और संघ राज्यक्षेत्रों को आवंटित सीटों का विवरण प्रस्तुत किया गया है। प्रारंभिक गठन के पश्चात राज्यों के पुनर्गठन और नव-राज्यों के निर्माण के चलते इन सीटों की संख्या में समयानुसार परिवर्तन होते रहे हैं।
भारत में राज्यों को राज्य सभा में उनकी जनसंख्या के अनुपात में प्रतिनिधित्व प्रदान किया गया है। अर्थात्, जिन राज्यों की जनसंख्या अधिक है, उन्हें अधिक सीटें प्रदान की गई हैं, जबकि कम जनसंख्या वाले राज्यों को अपेक्षाकृत कम सीटें प्राप्त हुई हैं। उदाहरणस्वरूप, उत्तर प्रदेश को सर्वाधिक 31 सीटें, जबकि सिक्किम को मात्र 1 सीट प्रदान की गई है।
इसके विपरीत, अमेरिकी सीनेट और ऑस्ट्रेलियाई सीनेट में प्रत्येक राज्य को समान प्रतिनिधित्व प्रदान किया गया है। इन व्यवस्थाओं में जनसंख्या की बजाय समान प्रतिनिधित्व के सिद्धांत को अपनाया गया है।
अमेरिकी सीनेट में कुल 100 सीटें हैं, जो 50 राज्यों में समान रूप से विभाजित हैं। इसी प्रकार, ऑस्ट्रेलिया की सीनेट में कुल 76 सीटें हैं, जिनमें से प्रत्येक 6 राज्यों को 12 सीटें दी गई हैं और शेष 4 सीटें मुख्यभूमि संघीय क्षेत्रों को आवंटित की गई हैं।
तीन विधान सभा वाले संघ राज्यक्षेत्रों—दिल्ली, पुडुचेरी और जम्मू एवं कश्मीर—को राज्य सभा में प्रतिनिधित्व प्रदान किया गया है। अन्य संघ राज्यक्षेत्रों की जनसंख्या अपेक्षाकृत कम होने के कारण उन्हें पृथक प्रतिनिधित्व प्राप्त नहीं है।
क्रम संख्या | राज्य | सीटों की संख्या |
1 | उत्तर प्रदेश | 31 |
2 | महाराष्ट्र | 19 |
3 | तमिलनाडु | 18 |
4 | पश्चिम बंगाल | 16 |
5 | बिहार | 16 |
6 | कर्नाटक | 12 |
7 | मध्य प्रदेश | 11 |
8 | गुजरात | 11 |
9 | आंध्र प्रदेश | 11 |
10 | ओडिशा | 10 |
11 | राजस्थान | 10 |
12 | केरल | 9 |
13 | असम | 7 |
14 | पंजाब | 7 |
15 | तेलंगाना | 7 |
16 | झारखंड | 6 |
17 | हरियाणा | 5 |
18 | छत्तीसगढ़ | 5 |
19 | जम्मू एवं कश्मीर | 4 |
20 | राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र दिल्ली | 3 |
21 | उत्तराखंड | 3 |
22 | हिमाचल प्रदेश | 3 |
23 | अरुणाचल प्रदेश | 1 |
24 | मणिपुर | 1 |
25 | गोवा | 1 |
26 | मिजोरम | 1 |
27 | त्रिपुरा | 1 |
28 | सिक्किम | 1 |
29 | नागालैंड | 1 |
30 | मेघालय | 1 |
31 | पुदुचेरी | 1 |
• | मनोनीत | 12 |
कुल संख्या | 245 |
राज्य सभा के सदस्यों का निर्वाचन (Election of Rajya Sabha Members)
भारतीय संसद के दोनों सदनों में प्रतिनिधित्व की प्रणाली भिन्न होती है। राज्य सभा, राज्यों के हितों का प्रतिनिधित्व करती है और इसके सदस्यों का निर्वाचन अप्रत्यक्ष पद्धति से किया जाता है। इसका अर्थ यह है कि किसी राज्य की जनता पहले राज्य विधान सभा के सदस्यों को सीधे चुनाव के माध्यम से चुनती है और बाद में वही निर्वाचित विधायक राज्य सभा के सदस्यों का चयन करते हैं।
अनुच्छेद 80(4) के अनुसार, राज्य सभा के सदस्य उस राज्य की विधान सभा के निर्वाचित प्रतिनिधियों द्वारा आनुपातिक प्रतिनिधित्व की प्रणाली के तहत एकल संक्रमणीय मत प्रणाली के माध्यम से चुने जाते हैं। यह प्रणाली महत्वपूर्ण है क्योंकि यह समानुपातिक प्रतिनिधित्व सुनिश्चित करती है और अल्पसंख्यक मतों को भी प्रतिनिधित्व प्राप्त होता है।
राज्य सभा के सदस्यों का कार्यकाल (Tenure of Rajya Sabha Members)
राज्य सभा एक स्थायी सदन है, अर्थात् इसका कभी विघटन नहीं होता, जैसा कि लोकसभा के साथ होता है। हालांकि, इसके एक-तिहाई सदस्य प्रत्येक दूसरे वर्ष सेवानिवृत्त होते हैं, जैसा कि अनुच्छेद 83(1) में उल्लिखित है। सेवानिवृत्त हुए सदस्यों की रिक्त सीटों को निर्वाचन के माध्यम से भरा जाता है।
यह महत्वपूर्ण है कि राज्य सभा के सदस्य कई बार निर्वाचित हो सकते हैं, अर्थात् उनके कार्यकाल की कोई संवैधानिक अधिकतम सीमा निर्धारित नहीं की गई है। वे जब तक निर्वाचित होते रहें, सदस्य बने रह सकते हैं।
हालाँकि, संविधान में स्पष्ट रूप से कार्यकाल का निर्धारण नहीं किया गया है, लेकिन संसद को यह अधिकार प्रदान किया गया है कि वह इसे विनियमित करे। इस संदर्भ में, संसद ने जन प्रतिनिधित्व अधिनियम, 1951 के अंतर्गत राज्य सभा सदस्यों का कार्यकाल 6 वर्षों के लिए निर्धारित किया है, जो कि एक मूलभूत कानूनी प्रावधान है।
राज्य सभा का सभापति एवं उप-सभापति (Chairman and Deputy Chairman of Rajya Sabha)
अनुच्छेद 89 के अंतर्गत राज्य सभा में सभापति और उप-सभापति के पदों का उल्लेख किया गया है। यह अनुच्छेद राज्य सभा के संचालन में इन पदों की अहम भूमिका को रेखांकित करता है, क्योंकि यह सदन की कार्यवाही को नियंत्रित करने और अनुशासन बनाए रखने हेतु नियंत्रक पदाधिकारियों की नियुक्ति का प्रावधान करता है।
सभापति (Chairman)
भारत के उप-राष्ट्रपति को राज्य सभा का पदेन सभापति नियुक्त किया जाता है। जब उप-राष्ट्रपति अस्थायी रूप से राष्ट्रपति के रूप में कार्य करता है, तब वह राज्य सभा के सभापति के दायित्वों का निर्वहन नहीं करता। यह भी महत्वपूर्ण है कि उप-राष्ट्रपति स्वयं राज्य सभा का सदस्य नहीं होता।
राज्य सभा के पीठासीन अधिकारी के रूप में सभापति की शक्तियाँ और कर्तव्य, लोक सभा के अध्यक्ष के समान होते हैं। फिर भी, लोक सभा अध्यक्ष को दो विशेषाधिकार प्राप्त होते हैं:
- कोई विधेयक धन विधेयक है या नहीं, इसका निर्णय केवल लोक सभा अध्यक्ष करता है।
- संसद की संयुक्त बैठक की अध्यक्षता केवल लोक सभा अध्यक्ष ही करता है।
राज्य सभा का सभापति, लोक सभा अध्यक्ष की भाँति, मतदान के दौरान प्रारंभिक मत नहीं देता, किंतु मतों की समानता की स्थिति में निर्णायक मत देने का अधिकार रखता है, जिससे बहुमत सुनिश्चित किया जा सके।
अनुच्छेद 92 के अनुसार, यदि उप-राष्ट्रपति को उसके पद से हटाने से संबंधित कोई प्रस्ताव विचाराधीन हो, तो उस स्थिति में वह राज्य सभा के सभापति की भूमिका में कार्य नहीं करेगा। तथापि, वह सदन में उपस्थित रह सकता है और कार्यवाही में भाग ले सकता है, परंतु वह मतदान में भाग नहीं ले सकता।
अनुच्छेद 97 में उल्लेख है कि राज्य सभा के सभापति को प्राप्त होने वाला वेतन संसद द्वारा निर्धारित किया जाता है और यह भारत की संचित निधि पर भारित होता है। यदि उप-राष्ट्रपति राष्ट्रपति के कर्तव्यों का निर्वहन कर रहा हो, तो उसे राज्य सभा के सभापति के रूप में वेतन और भत्ते नहीं, बल्कि राष्ट्रपति को प्रदत्त वेतन और भत्ते मिलते हैं।
राज्य सभा के सभापति को तभी पद से हटाया जा सकता है, जब वह उप-राष्ट्रपति के पद से हटाया गया हो। अर्थात्, सभापति का पद उप-राष्ट्रपति के पद से अनिवार्य रूप से संबद्ध है।
उप-सभापति (Deputy Chairman)
अनुच्छेद 89(2) के अंतर्गत, राज्य सभा अपने किसी सदस्य को उप-सभापति के रूप में निर्वाचित करती है। यदि किसी कारणवश उप-सभापति का पद रिक्त हो जाता है, तो राज्य सभा एक अन्य सदस्य को उसी पद पर चुनती है। यह प्रक्रिया लोकतांत्रिक प्रतिनिधित्व सुनिश्चित करने के लिए अत्यंत महत्वपूर्ण है।
अनुच्छेद 90 में उप-सभापति के पदत्याग और पदच्युत करने की स्थितियों का स्पष्ट उल्लेख किया गया है:
- यदि उप-सभापति राज्य सभा का सदस्य नहीं रहता, तो उसका पद स्वतः रिक्त हो जाता है।
- वह किसी भी समय, अपने हस्ताक्षर सहित सभापति को संबोधित लिखित पत्र द्वारा पद त्याग कर सकता है।
- राज्य सभा के सभी वर्तमान सदस्यों के बहुमत से पारित प्रस्ताव द्वारा उप-सभापति को पद से हटाया जा सकता है, बशर्ते उसे 14 दिन पूर्व लिखित सूचना दी गई हो।
सभापति की अनुपस्थिति में उप-सभापति सभापति के कर्तव्यों का निर्वहन करता है, और यदि सभापति का पद रिक्त हो, तो वह कार्यकारी सभापति की भूमिका निभाता है। दोनों परिस्थितियों में, उप-सभापति को वही शक्तियाँ और दायित्व प्राप्त होते हैं, जो सभापति को प्राप्त होते हैं, जिससे उसका संवैधानिक महत्व अत्यधिक महत्वपूर्ण बन जाता है।
अनुच्छेद 97 के अनुसार, राज्य सभा के उप-सभापति को प्राप्त होने वाला वेतन संसद द्वारा निर्धारित किया जाता है और यह वेतन भारत की संचित निधि पर भारित होता है। यह प्रावधान संवैधानिक वित्तीय स्वायत्तता को सुदृढ़ करता है।
सभापति की तालिका (Table of Chairman)
राज्य सभा के सभापति, राज्य सभा के छः सदस्यों को नामित करके एक विशेष तालिका (Table of Chairman) का गठन करते हैं। इन नामित सदस्यों को भी ‘उप-सभापति’ कहा जाता है। यह व्यवस्था सदन की निरंतरता और कार्यकुशलता को बनाए रखने के लिए अत्यंत आवश्यक है।
जब सभापति और उप-सभापति दोनों अनुपस्थित होते हैं, तब तालिका में शामिल कोई भी सदस्य बैठक की अध्यक्षता कर सकता है। उस स्थिति में उसे सभी वही शक्तियाँ प्राप्त होती हैं, जो सदन के अध्यक्ष को प्राप्त होती हैं। यह सुनिश्चित करता है कि संसदीय प्रक्रिया बाधित न हो और सदन का संचालन सुनियोजित रूप से जारी रहे।
राज्यसभा के पदाधिकारी (Officers of Rajya Sabha)
सभापति (Chairman)
भारत का उप-राष्ट्रपति पदेन रूप से राज्यसभा का सभापति होता है। यह प्रावधान अनुच्छेद 89(1) के अंतर्गत स्थापित है। सभापति को राज्यसभा की कार्यवाही का संचालन करने की जिम्मेदारी दी जाती है और उसकी शक्तियाँ लोकसभा अध्यक्ष के समतुल्य होती हैं।
वह प्रारंभिक मतदान में भाग नहीं लेता, लेकिन मतों की समानता की स्थिति में निर्णायक मत देता है, जिससे निर्णय सुनिश्चित हो सके।
वेतन और भत्तों का निर्धारण संसद द्वारा किया जाता है, जैसा कि अनुच्छेद 97 में निर्दिष्ट है। यह वेतन भारत की संचित निधि पर भारित होता है।
उप-सभापति (Deputy Chairman)
अनुच्छेद 89(2) के अंतर्गत, राज्यसभा अपने किसी सदस्य को उप-सभापति चुनती है। उप-सभापति का कार्य मुख्यतः सभापति की अनुपस्थिति में राज्यसभा की कार्यवाही का संचालन करना होता है। उप-सभापति को सभापति के समस्त कर्तव्य एवं शक्तियाँ प्राप्त होती हैं जब वह सदन की अध्यक्षता करता है।
राज्यसभा की शक्तियाँ (Powers of Rajya Sabha)
विधायी शक्ति (Legislative Powers)
राज्यसभा, संसद के एक सदन के रूप में, विभिन्न विधायी प्रक्रियाओं में महत्वपूर्ण भूमिका निभाती है:
- विधि निर्माण की प्रक्रिया में राज्यसभा को गैर-वित्तीय विधेयकों पर लोकसभा के समान शक्ति प्राप्त है।
- धन विधेयक के संबंध में राज्यसभा की शक्ति सीमित होती है, वह इसे अधिकतम 14 दिनों तक रोके रख सकती है, परंतु अस्वीकार नहीं कर सकती।
- संविधान संशोधन विधेयकों के विषय में राज्यसभा को लोकसभा के समान अधिकार प्राप्त होते हैं।
विशेष शक्ति (Special Powers)
राज्यसभा को कुछ संवैधानिक परिस्थितियों में विशेष शक्तियाँ प्राप्त हैं, जो उसे लोकसभा से पृथक और विशिष्ट बनाती हैं:
- अनुच्छेद 249: यदि राज्यसभा दो-तिहाई बहुमत से यह संकल्प पारित करती है कि राज्य सूची के किसी विषय पर संसद को विधि बनाने की आवश्यकता है, तो संसद को उस विषय पर कानून बनाने का अधिकार मिल जाता है।
- अनुच्छेद 312: राज्यसभा, विशेष प्रस्ताव पारित कर, अखिल भारतीय सेवाओं का सृजन कर सकती है।
- अनुच्छेद 67: राज्यसभा को उप-राष्ट्रपति को पद से हटाने की प्रक्रिया में भाग लेने की शक्ति है।
- आपातकालीन परिस्थितियों में शक्ति: यदि लोकसभा भंग हो चुकी होती है, तो राज्यसभा आपातकाल की वैधता सुनिश्चित करने के लिए कार्य कर सकती है, जिससे शासन में निरंतरता बनी रहे।
इन सभी प्रावधानों के अंतर्गत, राज्यसभा भारतीय संघीय लोकतंत्र में एक महत्वपूर्ण, स्थिर, और संतुलनकारी भूमिका निभाती है।
विधायी शक्ति (Legislative Powers)
राज्य सभा, लोक सभा के साथ मिलकर विधि निर्माण की प्रक्रिया में सहभागी होती है। गैर-वित्तीय विधेयकों के संदर्भ में राज्य सभा की शक्ति, लोक सभा के समकक्ष होती है। यदि किसी सामान्य विधेयक को एक सदन स्वीकृति प्रदान करता है, किंतु दूसरा सदन असहमति व्यक्त करता है, तो ऐसी परिस्थिति में राष्ट्रपति दोनों सदनों की संयुक्त बैठक आहूत कर सकता है, जहाँ बहुमत के आधार पर निर्णय लिया जाता है।
धन विधेयकों के संबंध में राज्य सभा की भूमिका सीमित एवं नियंत्रित होती है। वह ऐसे विधेयकों को अधिकतम 14 दिनों तक रोक सकती है, किंतु अस्वीकार नहीं कर सकती। इस अवधि के पश्चात, विधेयक स्वचालित रूप से पारित माना जाता है।
संविधान संशोधन विधेयकों की प्रक्रिया में, संसद के दोनों सदनों को समान अधिकार प्राप्त हैं। इस संदर्भ में, किसी भी प्रकार की संयुक्त बैठक की व्यवस्था नहीं की गई है। संविधान में परिवर्तन के लिए, दोनों सदनों को प्रस्ताव को विशेष बहुमत से पारित करना अनिवार्य है।
विशेष शक्ति (Special Powers)
राज्य सभा को भारतीय संविधान में कुछ विशिष्ट अधिकार प्रदान किए गए हैं, जो उसे सामान्य विधायी प्रक्रिया से अलग और अधिक प्रभावशाली बनाते हैं:
अनुच्छेद 249 के अंतर्गत, यदि राज्य सभा किसी राज्य सूची के विषय को राष्ट्रीय महत्व का घोषित करने हेतु विशेष बहुमत से प्रस्ताव पारित करती है, तो उस विषय पर संसद को विधि निर्माण का अधिकार प्राप्त हो जाता है। यह प्रावधान संघात्मक ढांचे में संसद की लचीलापन और प्रतिक्रिया क्षमता को सुनिश्चित करता है।
अनुच्छेद 312 के अनुसार, राज्य सभा विशेष बहुमत से प्रस्ताव पारित कर संसद को नई अखिल भारतीय सेवाओं (जैसे – भारतीय चिकित्सा सेवा, भारतीय शिक्षा सेवा) के सृजन का अधिकार प्रदान कर सकती है। यह संघीय स्तर पर प्रशासनिक दक्षता और एकरूपता के लिए अत्यंत महत्वपूर्ण है।
अनुच्छेद 67 के अनुसार, उप-राष्ट्रपति को पद से हटाने की प्रक्रिया केवल राज्य सभा में ही आरंभ की जा सकती है। यह शक्ति राज्य सभा को संविधानिक उत्तरदायित्व के निर्वहन में प्रमुख भूमिका प्रदान करती है।
यदि राष्ट्रपति द्वारा आपातकाल (राष्ट्रीय, संवैधानिक, या वित्तीय) की घोषणा के पश्चात, लोक सभा भंग हो जाती है, और वह आपातकाल की स्वीकृति नहीं दे पाती है, तब केवल राज्य सभा की मंजूरी से ही आपातकाल वैध माना जाता है। इस प्रकार राज्य सभा, संकट के समय संवैधानिक स्थायित्व बनाए रखने में एक प्रमुख स्तंभ के रूप में कार्य करती है।