परिचय
भू-वैज्ञानिक संरचना किसी भी क्षेत्र की भौगोलिक और भौतिक विशेषताओं को निर्धारित करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाती है। यह संरचना विभिन्न भूगर्भीय प्रक्रियाओं और अवस्थाओं के परिणामस्वरूप विकसित होती है। किसी विशिष्ट क्षेत्र की चट्टानों का अध्ययन वहाँ की भौमिक विशेषताओं, मिट्टी की रासायनिक संरचना, और खनिज संसाधनों की उपस्थिति के निर्धारण में सहायता करता है।
मध्य प्रदेश, भू-वैज्ञानिक दृष्टि से, प्रायद्वीपीय भारत का एक अभिन्न भाग है। यह क्षेत्र पृथ्वी के भू-वैज्ञानिक इतिहास के प्रारंभिक काल से अस्तित्व में रहा है और इसके अंतर्गत विभिन्न कालों के अवसादी, आग्नेय, एवं रूपांतरित चट्टान समूह पाए जाते हैं। यह क्षेत्र पर्वत निर्माण प्रक्रियाओं, भ्रंशों तथा जल-जनित अवसादन की घटनाओं से प्रभावित रहा है, जिसके साक्ष्य यहाँ की भौगोलिक संरचना और जल प्रणालियों में दृष्टिगोचर होते हैं।
मध्य प्रदेश की भू-वैज्ञानिक संरचना का वर्गीकरण
भू-वैज्ञानिक समयावधि के अनुसार, मध्य प्रदेश में पाई जाने वाली चट्टानों को निम्नलिखित प्रमुख समूहों में वर्गीकृत किया जा सकता है:
1. आद्य महाकल्प (Archaean Eon)
इस काल की चट्टानें पृथ्वी की सबसे प्राचीन कठोर चट्टानें मानी जाती हैं, जिनका निर्माण उच्च तापमान एवं द्रव्यगति प्रक्रियाओं के परिणामस्वरूप हुआ था। यह चट्टानें मुख्यतः क्रिस्टलीय आग्नेय एवं रूपांतरित चट्टानों से बनी होती हैं, जिनमें किसी भी प्रकार के जैविक अवशेष नहीं मिलते।
प्रमुख चट्टान समूह:
- धारवाड़ चट्टान समूह (Dharwar Rock Group)
- पुराना संघ (Old Group)
- कड़प्पा शैल समूह (Cuddapah Rock Group)
- विंध्यन शैल समूह (Vindhyan Rock Group)
- निचला विंध्यन (Lower Vindhyan)
- ऊपरी विंध्यन (Upper Vindhyan)
2. आर्य समूह (Aryan Group)
यह समूह मुख्यतः तलछटी चट्टानों से निर्मित है, जिनका निर्माण महाद्वीपीय अपक्षय एवं निक्षेपण प्रक्रियाओं से हुआ।
प्रमुख चट्टान समूह:
- गोंडवाना शैल समूह (Gondwana Rock Group)
- निम्न गोंडवाना (Lower Gondwana)
- मध्य गोंडवाना (Middle Gondwana)
- उच्च गोंडवाना (Upper Gondwana)
3. क्रिटेशियस कल्प (Cretaceous Period)
इस अवधि के दौरान दक्कन क्षेत्र में व्यापक ज्वालामुखीय गतिविधियाँ हुईं, जिससे विशाल मात्रा में बेसाल्ट चट्टानों का निर्माण हुआ।
प्रमुख चट्टान समूह:
- दक्कन ट्रैप (Deccan Trap)
4. तृतीयक शैल समूह (Tertiary Rock Group)
तृतीयक युग की चट्टानों का निर्माण मुख्यतः अवसादी प्रक्रियाओं के परिणामस्वरूप हुआ है, जिसमें समुद्री एवं स्थलीय निक्षेपण की महत्वपूर्ण भूमिका रही है।
मध्य प्रदेश में आद्य महाकल्प (Archaean Eon) की विशेषताएँ
- यह चट्टानें पृथ्वी की सबसे पुरानी क्रिस्टलीय आग्नेय और रूपांतरित चट्टानों में से हैं, जो अत्यधिक तापमान एवं दाब की परिस्थितियों में निर्मित हुई थीं।
- इनमें किसी भी प्रकार के जैविक अवशेष या जीवाश्म नहीं पाए जाते हैं।
- ये चट्टानें भारत में प्रायद्वीपीय पठार के दो-तिहाई भाग में फैली हुई हैं, जिसमें मध्य प्रदेश के साथ-साथ राजस्थान, झारखंड, कर्नाटक, ओडिशा, तेलंगाना, आंध्र प्रदेश, और तमिलनाडु भी शामिल हैं।
मध्य प्रदेश में आद्य महाकल्प की उपस्थिति
मध्य प्रदेश में इस युग की चट्टानें मुख्यतः बुंदेलखंड नीस (Bundelkhand Gneiss) के रूप में पाई जाती हैं।
- बुंदेलखंड क्षेत्र में पाए जाने वाले गुलाबी ग्रेनाइट में न्यूनतम स्तर की फोलियेशन संरचना देखी जाती है।
- इस क्षेत्र में सिल (Sill) एवं डाइक (Dyke) लम्बी एवं संकरी पहाड़ियों के रूप में देखे जाते हैं, जो इसकी भू-वैज्ञानिक विशेषताओं को दर्शाते हैं।
धारवाड़ चट्टान समूह (Dharwar Rock Group)
धारवाड़ समूह की चट्टानें प्राचीन आद्य महाकल्प की चट्टानों के रूपांतरण या भ्रंशन (Faulting) के परिणामस्वरूप निर्मित हुई हैं। उच्च तापमान और दाब के प्रभाव से इनका व्यापक रूपांतरण हुआ, जिससे ये मुख्यतः फाइलाइट (Phyllite), शिस्ट (Schist), और स्लेट (Slate) के रूप में पाई जाती हैं। इन चट्टानों का निर्माण प्राचीन चट्टानों के अपरदन से हुआ है, जिसके कारण इनमें किसी भी प्रकार के जीवाश्म नहीं मिलते हैं।
मध्य प्रदेश में वितरण:
- धारवाड़ समूह की चट्टानें मुख्यतः बालाघाट और छिंदवाड़ा जिलों में पाई जाती हैं, जो पूर्व की ओर छत्तीसगढ़ में एक संकरी पट्टी के रूप में विस्तृत हैं।
- बालाघाट में मैंगनीज खनिज भंडार तथा जबलपुर में रवेदार डोलोमाइट चूना पत्थर (संगमरमर) इस समूह के प्रमुख उदाहरण हैं।
- जबलपुर के आसपास नर्मदा नदी द्वारा इन संगमरमर की चट्टानों को काटकर गुफाएँ एवं कंदराएँ बनाई गई हैं।
- छिंदवाड़ा/पांढुर्ना क्षेत्र में धारवाड़ शैल समूह को सौंसर सीरीज के रूप में जाना जाता है, जहाँ मैंगनीज के महत्वपूर्ण निक्षेप पाए जाते हैं।
- जबलपुर के निकट, सौंसर सीरीज के ऊपर स्थित नवीन चट्टानों को सिकोली सीरीज कहा जाता है।
- बालाघाट तथा अन्य निकटवर्ती क्षेत्रों में इस समूह को चिलपी सीरीज के रूप में संदर्भित किया जाता है, जिसमें मोटी स्लेट और फाइलाइट की परतें मिलती हैं।
पुराना संघ (Old Group) और इसकी विशेषताएँ
- आद्य महाकल्प के पश्चात एक लम्बी अवधि व्यतीत हुई, जिसका भू-वैज्ञानिक इतिहास स्पष्ट रूप से उपलब्ध नहीं है। इस काल को प्रायः “अंध काल” (Dark Age) के रूप में संदर्भित किया जाता है।
- इस अवधि के दौरान, धारवाड़ समूह (Dharwar Group) की चट्टानें टेक्टोनिक क्रियाओं के परिणामस्वरूप मोड़दार पर्वतों में परिवर्तित हो गईं।
- कालांतर में अपक्षय एवं अपरदन प्रक्रियाओं के कारण इन पर्वतों का क्षरण हुआ, जिससे यह क्षेत्र समतल भू-भाग में परिवर्तित हो गया।
- बाद में, इस भू-भाग पर नवीन चट्टानों का निक्षेपण हुआ, जिससे यह क्षेत्र तलछटी चट्टानों की उपस्थिति के लिए उपयुक्त बन गया।
- भारतीय भू-वैज्ञानिक अध्ययन में इस समूह की चट्टानों को “पुराना शैल समूह” (Old Rock Group) के रूप में जाना जाता है।
- भू-वैज्ञानिक समयावधि के आधार पर, इसे दो प्रमुख उपसमूहों में वर्गीकृत किया गया है।
कड़प्पा शैल समूह (Cuddapah Rock Group)
इस चट्टान समूह का नाम आंध्र प्रदेश के कड़प्पा क्षेत्र से लिया गया है, जहाँ इनका व्यापक विस्तार पाया जाता है।
उत्पत्ति एवं विशेषताएँ:
- कड़प्पा चट्टानों का निर्माण धारवाड़ चट्टानों के अपरदन एवं तलछटी निक्षेपण के फलस्वरूप हुआ।
- यह परतदार (Stratified) तलछटी चट्टानें हैं, जो मुख्य रूप से बलुआ पत्थर (Sandstone), चूना पत्थर (Limestone), तथा संगमरमर (Marble) के रूप में पाई जाती हैं।
- ये चट्टानें मध्य प्रदेश के विभिन्न क्षेत्रों में विस्तृत हैं, विशेष रूप से पन्ना, ग्वालियर, और बिजावर क्षेत्र में।
मध्य प्रदेश में वितरण एवं आर्थिक महत्व:
- पन्ना क्षेत्र में स्थित हीरे की खदानें कड़प्पा समूह के अंतर्गत आने वाली बिजावर सीरीज में पाई जाती हैं।
- ग्वालियर सीरीज मध्य प्रदेश के उत्तर-पश्चिमी सीमा पर विस्तृत है और इसे भू-वैज्ञानिक रूप से अरावली शैल समूह का एक भाग माना जाता है।
विंध्यन शैल समूह (Vindhyan Rock Group)
विंध्यन चट्टानों का निर्माण कड़प्पा चट्टानों के निर्माण के उपरांत हुआ। इनका नामकरण विंध्याचल पर्वत श्रृंखला के आधार पर किया गया है।
उत्पत्ति एवं विशेषताएँ:
- विंध्यन चट्टानें जलज (Sedimentary) चट्टानों का समूह हैं, जिन पर भू-आंतरिक (Endogenic) प्रक्रियाओं का कोई विशेष प्रभाव नहीं पड़ा है।
- इन चट्टानों की कुल मोटाई मध्य प्रदेश में लगभग 4,200 मीटर तक पाई जाती है।
- मध्य प्रदेश में इनका विस्तार सोन नदी के उत्तर-पश्चिम में रीवा से लेकर चंबल नदी के पश्चिम में राजस्थान तक फैला हुआ है।
खनिज संसाधन एवं आर्थिक महत्व:
- इस समूह में प्रमुख रूप से चूना पत्थर (Limestone), बलुआ पत्थर (Sandstone), और चीनी मिट्टी (Kaolin) के भंडार पाए जाते हैं, जिनका उपयोग सीमेंट उद्योग में किया जाता है।
- दिल्ली का लाल किला इसी समूह के लाल बलुआ पत्थर से निर्मित है।
- इस समूह को दो प्रमुख उपसमूहों में वर्गीकृत किया गया है:
1. निचला विंध्यन (Lower Vindhyan)
- ये चट्टानें विंध्याचल पर्वतमाला में नर्मदा नदी के उत्तर में पूर्व से पश्चिम तक फैली हुई हैं।
- सोन नदी की घाटी में इनका व्यापक विस्तार है, जहाँ यह चूना पत्थर, शेल (Shale), तथा बलुआ पत्थर के रूप में मिलती हैं।
- सोन नदी क्षेत्र में इन चट्टानों की परतें काफी मोटी होती हैं, जो इस समूह के भू-वैज्ञानिक महत्व को दर्शाती हैं।
2. ऊपरी विंध्यन (Upper Vindhyan)
- यह समूह प्रायद्वीपीय भारत के साथ-साथ बाह्य प्रायद्वीपीय क्षेत्रों में भी पाया जाता है।
- नर्मदा नदी के उत्तर में कैमूर, रीवा, और भांडेर सीरीज के रूप में विस्तृत हैं।
- इनमें वनस्पति एवं जंतु जीवन के कुछ अवशेष मिलते हैं, किंतु कोई महत्वपूर्ण जीवाश्म नहीं पाए गए हैं।
- इस समूह की चट्टानों का उपयोग इमारतों और घरों के निर्माण में किया जाता है।
- ग्वालियर, दिल्ली, और आगरा की ऐतिहासिक इमारतों का निर्माण इसी समूह के बलुआ पत्थरों से हुआ है।
आर्य समूह की शैल संरचना (Aryans Group Rock Formation)
आर्य समूह की चट्टानों का विस्तार अपर कार्बोनीफेरस युग (Pleistocene Epoch) से लेकर अत्यंत नूतन युग तक माना जाता है। इस अवधि के दौरान, दक्कन का पठार अंतरभौमिक प्रक्रियाओं से प्रभावित हुआ, किंतु इस क्षेत्र में पर्वत निर्माणकारी गतिविधियों का प्रत्यक्ष प्रभाव दृष्टिगोचर नहीं होता। हालांकि, अंतरभौमिक तनावों के परिणामस्वरूप भूपर्पटी में तीव्र खिंचाव उत्पन्न हुआ, जिससे अनेक दरारें विकसित हुईं और इन संरचनात्मक भ्रंशों के माध्यम से संकरी एवं लंबवत भू-आकृतियाँ धंस गईं।
गोण्डवाना शैल समूह
गोण्डवाना शैल समूह मुख्यतः अवसादी चट्टानों से निर्मित है, जिनका निर्माण अपर कार्बोनीफेरस युग से लेकर जुरासिक युग तक हुआ। विशेष रूप से, जुरासिक युग के अंतिम चरण में नदीय घाटियों एवं जलोढ़ निक्षेपों के दीर्घकालिक संचयन के कारण इन चट्टानों की संरचना विकसित हुई। भूगर्भिक गतिविधियों के परिणामस्वरूप विशाल वनस्पतियों के निक्षेप भूगर्भ में दब गए, जिसके दीर्घकालिक कार्बनीकरण से कोयले का निर्माण हुआ।
- भारत में कुल कोयला संसाधनों का 98% भाग इसी शैल समूह में संचित है।
- मध्यप्रदेश में यह शैल समूह प्रमुखतः सतपुड़ा क्षेत्र एवं बघेलखण्ड के पठारी भूभाग में पाया जाता है।
- इस शैल समूह की उपस्थिति उत्तर में सिंगरौली से लेकर दक्षिण में रायगढ़ तक अर्धवृत्ताकार विस्तार में दृष्टिगत होती है।
मध्यप्रदेश में गोण्डवाना शैल समूह को तीन प्रमुख उपसमूहों में वर्गीकृत किया गया है:
1. लोअर गोण्डवाना शैल समूह
- इस शैल समूह की प्रारंभिक चट्टानें “तालचेर शैल” के रूप में जानी जाती हैं, जो सोन-महानदी घाटी एवं सतपुड़ा क्षेत्र में व्यापक रूप से पाई जाती हैं।
- इन शैलों की संरचनात्मक मोटाई 10 से 122 मीटर के मध्य होती है, जिससे यह निष्कर्ष निकाला गया कि इनका परिवहन हिमनदों एवं जल दोनों के द्वारा हुआ था।
- इस आधार पर यह अनुमान लगाया जाता है कि उस समय दक्कन का पठार हिम युग के प्रभाव में था।
- बरकार शैल समूह के अंतर्गत पेंच घाटी एवं मोहपानी के कोयला क्षेत्र आते हैं।
- बघेलखंड क्षेत्र में भी इसी प्रकार के शैल स्तरों की उपस्थिति दर्ज की गई है।
2. मध्य गोण्डवाना शैल समूह
- मध्य गोण्डवाना शैल समूह का सर्वोत्तम विकास सतपुड़ा क्षेत्र में देखा जाता है।
- यह शैल समूह चार प्रमुख स्तरों – पंचेत, पंचमढ़ी, देनवा एवं बागरा – में विस्तृत रूप से विकसित हुआ है।
- पंचमढ़ी क्षेत्र में पाई जाने वाली बालू पत्थर संरचनाएँ अत्यधिक मोटी परतों के रूप में विद्यमान हैं, जिनका रंग लोहे की उपस्थिति के कारण पीले से लाल तक परिवर्तनीय होता है।
- पंचमढ़ी शैल समूह के ऊपर देनवा स्तर का आवरण विकसित हुआ है।
- बघेलखंड क्षेत्र में परसोरा एवं टिकी शैल स्तरों का भी सीमांकन किया गया है।
3. अपर गोण्डवाना शैल समूह
- यह शैल समूह सतपुड़ा एवं बघेलखंड दोनों क्षेत्रों में विद्यमान है।
- मध्यप्रदेश में जबलपुर एवं कटनी क्षेत्रों में इन चट्टानों का स्पष्ट विकास दृष्टिगोचर होता है।
- इस समूह की चट्टानों में मुख्य रूप से बालू पत्थर एवं शैल संरचनाएँ सम्मिलित हैं।
- इसके अतिरिक्त, इन शैलों में कोयला की परतों, जुरासिक युग की वनस्पति संरचनाओं एवं चूना पत्थर के अवशेष भी पाए जाते हैं।
- सतपुड़ा क्षेत्र में इस शैल समूह को “निचला चौगान” एवं “जबलपुर स्तर” के नाम से जाना जाता है।
- इस स्तर की चट्टानों में बलुआ पत्थर के साथ-साथ चूना पत्थर, कांग्लोमरेट (Conglomerate) एवं अन्य अवसादी शैलों के निक्षेप भी व्यापक रूप से मिलते हैं।
क्रिटेशियस कल्प (Cretaceous Period)
मध्यप्रदेश में क्रिटेशियस कल्प के साक्ष्य मुख्यतः नर्मदा घाटी में मिलते हैं। इस घाटी में नदीय एवं एस्टुअरी (Estuarine) निक्षेपों से निर्मित शैल समूह पाए जाते हैं, जिन्हें बाघ श्रृंखला (Bagh Series) के नाम से जाना जाता है। इसके अतिरिक्त, मध्यप्रदेश के अन्य भागों में बिखरे हुए अपेक्षाकृत नवीन निक्षेपों को लमेटा श्रृंखला (Lameta Series) के रूप में वर्गीकृत किया गया है।
इस शैल समूह में प्रमुखतः निम्नलिखित शैलें सम्मिलित हैं:
- सिलिका मिश्रित चूना पत्थर
- मिट्टी मिश्रित बालूका पत्थर
- सिल्ट एवं क्ले (Silt and Clay)
क्रिटेशियस कल्प के अंतिम चरण में व्यापक ज्वालामुखीय क्रियाएँ घटित हुईं, जिसके परिणामस्वरूप दरारी ज्वालामुखी (Fissure Eruption) सक्रिय हो गया। इस घटना के प्रभावस्वरूप संपूर्ण उत्तर-पश्चिमी दक्कन पठार दक्कन ट्रैप (Deccan Trap) की मोटी बेसाल्टिक परतों से आच्छादित हो गया।
दक्कन ट्रैप (Deccan Trap)
दक्कन पठार में क्रिटेशियस कल्प के अंतिम चरण में तीव्र ज्वालामुखीय गतिविधियाँ हुईं, जिसके कारण बैसाल्टिक चट्टानों (Basaltic Rocks) का विस्तृत निक्षेपण हुआ। इन ज्वालामुखीय संरचनाओं को दक्कन ट्रैप के नाम से जाना जाता है।
मध्यप्रदेश में इस शैल समूह का प्रमुख विस्तार दक्षिण-पश्चिमी भागों में पाया जाता है, विशेष रूप से:
- इंदौर, भोपाल एवं पश्चिमी जबलपुर क्षेत्र इन चट्टानों से निर्मित हैं।
- मालवा तथा मध्य भारत के कुछ भागों में मिडिल ट्रैप (Middle Trap) विकसित हुआ है।
- नर्मदा घाटी में मुख्यतः लोअर ट्रैप (Lower Trap) का विस्तार देखा जाता है।
इस भूवैज्ञानिक घटना ने न केवल दक्कन पठार की संरचना को प्रभावित किया, बल्कि यह संपूर्ण भारतीय उपमहाद्वीप की जलवायु एवं पारिस्थितिकी तंत्र के लिए भी एक महत्वपूर्ण परिवर्तनकारी कारक साबित हुई।
तृतीयक शैल समूह (Tertiary Rock Group)
तृतीयक युग के दौरान, गोण्डवाना महाद्वीप टेक्टोनिक प्रक्रियाओं के प्रभाव में आकर विभाजित हो गया, जिससे इसके कई भाग समुद्र के नीचे डूब गए। इसी अवधि में:
- दक्कन पठार को वर्तमान स्वरूप प्राप्त हुआ।
- टैथिस सागर (Tethys Sea) के विशाल निक्षेपण से हिमालय पर्वत का निर्माण हुआ।
इन भूगर्भीय परिवर्तनों का प्रभाव दक्षिणी मध्यप्रदेश पर भी स्पष्ट रूप से देखा गया। विशेष रूप से:
- नर्मदा-सोन घाटी की संरचना विकसित हुई, जो टेक्टोनिक गतिविधियों के कारण धंस गई।
- इसके विपरीत, इस घाटी के उत्तरी भाग का संपूर्ण पठारी क्षेत्र ऊपर उठ गया, जिससे वर्तमान भू-आकृतिक संरचनाएँ निर्मित हुईं।