
न्यायमूर्ति बैंगलोर वेंकटरमैया नागरत्ना, जिन्हें सामान्यतः न्यायमूर्ति बी. वी. नागरत्ना के नाम से जाना जाता है, भारतीय न्यायपालिका की एक प्रतिष्ठित हस्ती हैं। वर्तमान में भारत के सर्वोच्च न्यायालय की न्यायाधीश के रूप में कार्यरत, वह अपनी गहन कानूनी कुशाग्रता, संवैधानिक सिद्धांतों के प्रति अटूट प्रतिबद्धता और एक ऐसी न्यायिक यात्रा के लिए जानी जाती हैं जो ऐतिहासिक रूप से महत्वपूर्ण है । भारतीय न्यायपालिका में उनका स्थान न केवल उनकी व्यक्तिगत उपलब्धियों से परिभाषित होता है, बल्कि उस व्यापक प्रभाव से भी है जो उन्होंने कानूनी विमर्श और न्यायिक प्रक्रियाओं पर डाला है।
न्यायमूर्ति नागरत्ना का महत्व इस तथ्य से और बढ़ जाता है कि वह वर्ष 2027 में भारत की पहली महिला मुख्य न्यायाधीश (CJI) बनने की कतार में हैं । यह प्रत्याशा उन्हें भारतीय न्यायिक इतिहास में एक अद्वितीय स्थान पर रखती है, जो लैंगिक समानता और महिला नेतृत्व की दिशा में एक महत्वपूर्ण प्रगति का प्रतीक है। उनकी यात्रा और उनके निर्णय न केवल कानूनी पेशेवरों के लिए, बल्कि आम नागरिकों और विधि के छात्रों के लिए भी गहन रुचि और अध्ययन का विषय रहे हैं।
उनकी ऐतिहासिक भूमिका और सुप्रीम कोर्ट में योगदान
सुप्रीम कोर्ट में न्यायमूर्ति नागरत्ना की नियुक्ति अपने आप में एक ऐतिहासिक घटना है, खासकर न्यायपालिका में लैंगिक विविधता को बढ़ावा देने के संदर्भ में । सर्वोच्च न्यायालय के न्यायाधीश के रूप में, उन्होंने कई महत्वपूर्ण संवैधानिक मामलों में भाग लिया है और ऐसे निर्णय दिए हैं जिनका दूरगामी प्रभाव पड़ा है। उनके योगदानों में नोटबंदी जैसे जटिल आर्थिक और कानूनी मुद्दे पर उनकी असहमतिपूर्ण राय और बिलकिस बानो मामले में न्याय सुनिश्चित करने वाला निर्णय शामिल हैं। ये मामले उनके न्यायिक दर्शन और कानून के शासन के प्रति उनकी प्रतिबद्धता को दर्शाते हैं।
न्यायमूर्ति नागरत्ना की यात्रा केवल एक व्यक्तिगत उपलब्धि से कहीं अधिक है; यह भारतीय न्यायपालिका में लैंगिक समानता और प्रतिनिधित्व की व्यापक कथा का प्रतीक है। ऐतिहासिक रूप से, भारत की उच्च न्यायपालिका में पुरुषों का वर्चस्व रहा है । न्यायमूर्ति नागरत्ना का सुप्रीम कोर्ट तक पहुंचना और पहली महिला CJI बनने की उनकी प्रबल संभावना इस पारंपरिक पैटर्न को चुनौती देती है । इस प्रकार, उनकी कहानी लैंगिक बाधाओं को तोड़ने और अनगिनत अन्य महिलाओं को कानून के क्षेत्र में उत्कृष्टता प्राप्त करने के लिए प्रेरित करने का एक शक्तिशाली उदाहरण प्रस्तुत करती है । उनकी संभावित CJI नियुक्ति न केवल प्रतीकात्मक रूप से महत्वपूर्ण होगी, बल्कि यह न्यायिक नियुक्तियों और नीतिगत चर्चाओं में महिलाओं के दृष्टिकोण को अधिक महत्व दिलाने में भी एक उत्प्रेरक की भूमिका निभा सकती है। CJI के रूप में, वह कॉलेजियम का नेतृत्व करेंगी, जिसका न्यायाधीशों की नियुक्तियों पर गहरा प्रभाव पड़ता है । न्यायपालिका में महिलाओं के प्रतिनिधित्व पर उनके मुखर विचार यह दर्शाते हैं कि वह इस मंच का उपयोग लैंगिक समानता को सक्रिय रूप से बढ़ावा देने के लिए कर सकती हैं, जिससे, जैसा कि उन्होंने स्वयं कहा है, न्यायिक निर्णय लेने की गुणवत्ता में भी सुधार हो सकता है ।
प्रारंभिक जीवन और पारिवारिक पृष्ठभूमि
जन्म: 30 अक्टूबर 1962, कर्नाटक
न्यायमूर्ति बी. वी. नागरत्ना का जन्म 30 अक्टूबर 1962 को हुआ था । उनका जन्मस्थान पांडावपुरा, तत्कालीन मैसूर राज्य (अब कर्नाटक), भारत है । कुछ स्रोत उनके जन्मस्थान के रूप में बेंगलुरु का भी उल्लेख करते हैं , जो संभवतः उनके परिवार के बाद के निवास या उनके मूल गृह नगर से संबंधित हो सकता है। यह जानकारी उनके जीवन की नींव रखती है और बी. वी. नागरत्ना का जीवन परिचय जैसे महत्वपूर्ण कीवर्ड को संबोधित करती है।
उनके पिता: ई. एस. वेंकटरमैया (भारत के पूर्व मुख्य न्यायाधीश)
न्यायमूर्ति नागरत्ना एक प्रतिष्ठित न्यायिक परिवार से आती हैं। उनके पिता, न्यायमूर्ति ई. एस. वेंकटरमैया, भारत के 19वें मुख्य न्यायाधीश थे । न्यायमूर्ति ई. एस. वेंकटरमैया ने 19 जून 1989 से 17 दिसंबर 1989 तक, लगभग छह महीने की अवधि के लिए मुख्य न्यायाधीश का पद संभाला था । यह पारिवारिक संबंध बी. वी. नागरत्ना का परिवार कीवर्ड के लिए अत्यंत महत्वपूर्ण है और उनकी कानूनी विरासत एवं प्रेरणा के स्रोत को उजागर करता है।
परिवार का न्यायिक परंपरा से संबंध
न्यायमूर्ति नागरत्ना का पालन-पोषण एक ऐसे वातावरण में हुआ जहाँ कानून और न्याय के सिद्धांतों पर निरंतर चर्चा होती थी। कानूनी पेशे से गहराई से जुड़े परिवार से आने के कारण, विशेष रूप से उनके पिता के एक प्रतिष्ठित न्यायविद और भारत के मुख्य न्यायाधीश होने के नाते, उन्हें कानून के प्रति स्वाभाविक झुकाव और प्रेरणा मिली । इस न्यायिक माहौल ने न केवल उन्हें कानून को एक पेशे के रूप में अपनाने के लिए प्रेरित किया, बल्कि न्याय, निष्पक्षता और संवैधानिक मूल्यों के प्रति उनके दृष्टिकोण को भी गहराई से प्रभावित किया ।
एक पूर्व CJI की बेटी होने का अनुभव न्यायमूर्ति नागरत्ना के लिए दोहरा रहा होगा। एक ओर, इसने उन्हें कानून को करियर के रूप में अपनाने के लिए एक स्वाभाविक प्रेरणा और एक विशेषाधिकार प्राप्त प्रारंभिक बिंदु प्रदान किया होगा, जहाँ उन्हें कानूनी विमर्श और न्यायिक प्रक्रियाओं से प्रत्यक्ष परिचय मिला । दूसरी ओर, इसने उन पर अपेक्षाओं का एक महत्वपूर्ण बोझ भी डाला होगा, जिससे उन्हें अपने पिता की विशाल छाया से बाहर निकलकर अपनी एक स्वतंत्र और विशिष्ट न्यायिक पहचान स्थापित करने के लिए अतिरिक्त प्रयास करने पड़े होंगे। दिल्ली में अपने पिता (जो तत्कालीन सुप्रीम कोर्ट के जज थे) को आवंटित सरकारी आवास में रहने से बचने के लिए बेंगलुरु में प्रैक्टिस करने का उनका निर्णय , न्यायिक परंपराओं और औचित्य के उच्चतम मानकों को बनाए रखने की उनकी प्रतिबद्धता को दर्शाता है, और संभवतः यह उनकी स्वतंत्र पहचान स्थापित करने की गहरी इच्छा का भी संकेत है। यह “विरासत और व्यक्तिगत पहचान” के एक महत्वपूर्ण विषय को जन्म देता है; वह न केवल अपने पिता की समृद्ध कानूनी विरासत को आगे बढ़ा रही हैं, बल्कि अपने साहसिक और स्वतंत्र निर्णयों के माध्यम से अपनी एक विशिष्ट न्यायिक पहचान भी गढ़ रही हैं ।
शिक्षा और शैक्षणिक पथ
शुरुआती शिक्षा
न्यायमूर्ति बी. वी. नागरत्ना ने अपनी प्रारंभिक स्कूली शिक्षा भारत के दो प्रतिष्ठित संस्थानों से प्राप्त की। उन्होंने सोफिया हाई स्कूल, बैंगलोर, और भारतीय विद्या भवन, नई दिल्ली में अध्ययन किया । इन संस्थानों से प्राप्त शिक्षा ने उनके प्रारंभिक बौद्धिक विकास की नींव रखी और उन्हें विभिन्न शैक्षिक वातावरणों का अनुभव प्रदान किया, जो उनके व्यापक दृष्टिकोण के निर्माण में सहायक हुआ होगा।
डिग्री और लॉ की पढ़ाई
स्कूली शिक्षा पूरी करने के बाद, न्यायमूर्ति नागरत्ना ने उच्च शिक्षा के लिए दिल्ली विश्वविद्यालय का रुख किया। उन्होंने 1984 में जीसस एंड मैरी कॉलेज, दिल्ली विश्वविद्यालय से इतिहास में बी.ए. (ऑनर्स) की उपाधि प्राप्त की । इतिहास में उनकी स्नातक की डिग्री ने उन्हें सामाजिक, राजनीतिक और आर्थिक संदर्भों की गहरी समझ प्रदान की होगी, जो बाद में उनके कानूनी विश्लेषण और न्यायिक निर्णयों में परिलक्षित होती है।
इसके उपरांत, उन्होंने कानून के क्षेत्र में कदम रखा और 1987 में कैंपस लॉ सेंटर, विधि संकाय, दिल्ली विश्वविद्यालय से कानून की डिग्री (एलएलबी) हासिल की । यह जानकारी बी. वी. नागरत्ना शिक्षा और उनके लॉ कॉलेज का नाम जैसे महत्वपूर्ण कीवर्ड के लिए प्रासंगिक है। दिल्ली विश्वविद्यालय, भारत के अग्रणी शैक्षणिक संस्थानों में से एक है, और यहाँ से प्राप्त कानूनी शिक्षा ने उन्हें एक मजबूत कानूनी आधार प्रदान किया।
विशेष विषयों में दक्षता
स्नातक स्तर पर इतिहास का अध्ययन और उसके बाद कानून की पढ़ाई के संयोजन ने न्यायमूर्ति नागरत्ना को एक अद्वितीय अंतःविषय दृष्टिकोण प्रदान किया। यह पृष्ठभूमि उन्हें कानूनी मुद्दों को केवल तकनीकी दृष्टिकोण से नहीं, बल्कि उनके व्यापक सामाजिक-ऐतिहासिक निहितार्थों के साथ समझने में सक्षम बनाती है। वकालत के अपने प्रारंभिक वर्षों के दौरान, उन्होंने संवैधानिक कानून, वाणिज्यिक कानून, बीमा कानून, सेवा कानून, प्रशासनिक और सार्वजनिक कानून, भूमि और किराया कानून, पारिवारिक कानून, अनुबंधों का मसौदा तैयार करने और मध्यस्थता जैसे विविध कानूनी क्षेत्रों में व्यापक अनुभव और विशेषज्ञता हासिल की । उनकी यह बहुमुखी कानूनी दक्षता उनके न्यायिक करियर में विभिन्न प्रकार के जटिल मामलों को संभालने में सहायक सिद्ध हुई है। दिल्ली विश्वविद्यालय जैसे राष्ट्रीय स्तर के प्रतिष्ठित संस्थान से शिक्षा प्राप्त करने से उन्हें एक व्यापक राष्ट्रीय दृष्टिकोण और कानूनी मुद्दों की गहरी समझ भी मिली होगी, जो उनके अखिल भारतीय न्यायिक करियर, विशेष रूप से कर्नाटक उच्च न्यायालय और बाद में सर्वोच्च न्यायालय में उनकी भूमिका के लिए अत्यंत महत्वपूर्ण साबित हुई।
वकालत और प्रारंभिक न्यायिक करियर
वकील के रूप में कार्य प्रारंभ
अपनी कानून की डिग्री पूरी करने के बाद, न्यायमूर्ति बी. वी. नागरत्ना ने 28 अक्टूबर 1987 को कर्नाटक बार काउंसिल में एक वकील के रूप में अपना पंजीकरण कराया और बेंगलुरु में अपनी कानूनी प्रैक्टिस शुरू की । अपने करियर के आरंभ में, उन्होंने KESVY एंड कंपनी, एडवोकेट्स के साथ काम किया, जहाँ उन्हें प्रारंभिक अनुभव और मार्गदर्शन प्राप्त हुआ । इसके बाद, जुलाई 1994 में, उन्होंने स्वतंत्र रूप से प्रैक्टिस करना शुरू किया , जो उनके आत्मविश्वास और पेशेवर महत्वाकांक्षा को दर्शाता है।
एक वकील के रूप में, उन्होंने संवैधानिक कानून, वाणिज्यिक कानून (जिसमें बीमा कानून शामिल है), सेवा कानून, प्रशासनिक और सार्वजनिक कानून, भूमि और किराया कानूनों से संबंधित कानून, पारिवारिक कानून, अनुबंधों और समझौतों का मसौदा तैयार करना, और मध्यस्थता एवं सुलह जैसे विविध क्षेत्रों में विशेषज्ञता हासिल की । उनकी प्रैक्टिस की यह व्यापकता उनके कानूनी ज्ञान की गहराई और बहुमुखी प्रतिभा को इंगित करती है। कुल मिलाकर, उन्होंने न्यायाधीश के रूप में अपनी नियुक्ति से पहले लगभग 23 वर्षों तक वकालत की , जो उन्हें बार के दृष्टिकोण और चुनौतियों की एक ठोस समझ प्रदान करता है।
कर्नाटक उच्च न्यायालय में नामांकन
न्यायमूर्ति नागरत्ना का नामांकन कर्नाटक बार काउंसिल के साथ 28 अक्टूबर 1987 को हुआ । अपनी प्रैक्टिस के दौरान, उन्होंने न केवल निजी मुवक्किलों का प्रतिनिधित्व किया, बल्कि कर्नाटक राज्य कानूनी सेवा प्राधिकरण (KSLSA) और उच्च न्यायालय कानूनी सेवा समिति का भी प्रतिनिधित्व किया । यह सार्वजनिक कानूनी सेवाओं के प्रति उनकी प्रतिबद्धता को दर्शाता है। इसके अतिरिक्त, उनकी कानूनी विशेषज्ञता और अदालत द्वारा उन पर रखे गए भरोसे के परिणामस्वरूप, उन्हें कुछ मामलों में न्याय मित्र (एमिकस क्यूरी) के रूप में भी नियुक्त किया गया था । न्याय मित्र के रूप में कार्य करने के लिए निष्पक्षता और कानूनी मुद्दे का गहन विश्लेषण आवश्यक होता है, और यह भूमिका उनके न्यायिक स्वभाव को विकसित करने में सहायक रही होगी।
न्यायिक सोच की शैली और सिद्धांत
वकालत के दौरान विभिन्न प्रकार के जटिल और विविध मामलों को संभालने से न्यायमूर्ति नागरत्ना की कानूनी सोच और न्यायिक सिद्धांतों का प्रारंभिक विकास हुआ। संवैधानिक, वाणिज्यिक और पारिवारिक कानून जैसे विभिन्न क्षेत्रों में उनकी प्रैक्टिस ने उन्हें कानून की विभिन्न शाखाओं की एक सूक्ष्म और गहरी समझ प्रदान की । इस व्यापक अनुभव ने उन्हें एक न्यायाधीश के रूप में जटिल मामलों से निपटने के लिए आवश्यक बहुमुखी प्रतिभा और कानूनी अंतर्दृष्टि प्रदान की।
उनके पिता, न्यायमूर्ति ई. एस. वेंकटरमैया, जो स्वयं एक पूर्व मुख्य न्यायाधीश थे, के मार्गदर्शन और परिवार के समृद्ध न्यायिक माहौल ने निस्संदेह उनकी प्रारंभिक न्यायिक सोच को गहराई से प्रभावित किया होगा । इसके अतिरिक्त, न्याय मित्र के रूप में उनकी भूमिका ने उन्हें कानूनी मुद्दों पर एक निष्पक्ष और संतुलित दृष्टिकोण विकसित करने में मदद की, जो एक न्यायाधीश के लिए अनिवार्य गुण हैं । KESVY एंड कंपनी के साथ अपने करियर की शुरुआत करने के बाद स्वतंत्र प्रैक्टिस में जाने का उनका निर्णय उनकी उद्यमशीलता, आत्मविश्वास और पेशेवर प्रतिष्ठा बनाने की महत्वाकांक्षा को भी दर्शाता है, जो एक सफल कानूनी और न्यायिक करियर के लिए आवश्यक गुण हैं। ये प्रारंभिक अनुभव और गुण उनके बाद के न्यायिक करियर में स्पष्ट रूप से परिलक्षित होते हैं, जहाँ उन्होंने कई स्वतंत्र और साहसिक निर्णय लिए हैं।
कर्नाटक उच्च न्यायालय में कार्यकाल
न्यायाधीश के रूप में नियुक्ति
न्यायमूर्ति बी. वी. नागरत्ना को 18 फरवरी 2008 को कर्नाटक उच्च न्यायालय के अतिरिक्त न्यायाधीश के रूप में नियुक्त किया गया था । दो वर्ष के उपरांत, 17 फरवरी 2010 को उन्हें कर्नाटक उच्च न्यायालय के स्थायी न्यायाधीश के रूप में नियुक्त किया गया । उन्होंने 2008 से अगस्त 2021 तक, लगभग 13 वर्षों की अवधि के लिए, कर्नाटक उच्च न्यायालय में न्यायाधीश के रूप में अपनी सेवाएं प्रदान कीं । इस कार्यकाल के दौरान, उन्होंने एक प्रभावशाली ट्रैक रिकॉर्ड बनाए रखा और बड़ी संख्या में मामलों का निपटारा किया। अकेले बेंगलुरु में प्रिंसिपल बेंच में उन्होंने 19,247 मामलों का, धारवाड़ बेंच में 3,382 मामलों का, और कलबुर्गी बेंच में 391 मामलों का निपटारा किया, जिससे उनके द्वारा व्यक्तिगत रूप से निपटाए गए कुल मामलों की संख्या 23,020 हो गई । यह उनकी असाधारण कार्यकुशलता, समर्पण और न्याय प्रदान करने की प्रतिबद्धता को स्पष्ट रूप से दर्शाता है।
प्रमुख फैसले और टिप्पणियाँ
कर्नाटक उच्च न्यायालय में अपने कार्यकाल के दौरान, न्यायमूर्ति नागरत्ना ने वाणिज्यिक और संवैधानिक कानून से संबंधित कई महत्वपूर्ण निर्णय दिए । उनके कुछ उल्लेखनीय फैसले और टिप्पणियाँ इस प्रकार हैं:
- मीडिया विनियमन (2012): न्यायमूर्ति नागरत्ना उस पीठ का हिस्सा थीं जिसने फर्जी खबरों पर चिंता व्यक्त करते हुए केंद्र सरकार को प्रसारण मीडिया को विनियमित करने के लिए दिशानिर्देश तैयार करने का निर्देश दिया था। उन्होंने स्व-नियमन के लिए एक वैधानिक ढांचे का आग्रह किया, लेकिन साथ ही अत्यधिक सरकारी नियंत्रण के प्रति आगाह भी किया । यह निर्णय अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता और मीडिया की सामाजिक जिम्मेदारी के बीच संतुलन स्थापित करने के उनके दृष्टिकोण को दर्शाता है।
- मंदिरों की गैर-वाणिज्यिक स्थिति (2019): उनकी पीठ ने एक महत्वपूर्ण फैसले में कहा कि मंदिर वाणिज्यिक संस्थान नहीं हैं, और इसलिए श्रम कानूनों के तहत ग्रेच्युटी के प्रावधान मंदिर कर्मचारियों पर लागू नहीं होते हैं । यह धार्मिक संस्थानों की कानूनी स्थिति और उनके कर्मचारियों के अधिकारों से संबंधित एक महत्वपूर्ण व्यवस्था थी।
- वाहन कराधान (2016): न्यायमूर्ति नागरत्ना ने कर्नाटक सरकार की उस नीति को असंवैधानिक करार दिया, जिसके तहत राज्य के बाहर खरीदे गए वाहनों के मालिकों को कर्नाटक में अपने वाहनों का उपयोग करने के लिए “आजीवन कर” का भुगतान करना अनिवार्य था । यह निर्णय राज्य की कराधान शक्तियों की सीमाओं और नागरिकों के अधिकारों के संरक्षण से संबंधित था।
- निजी संस्थानों की स्वायत्तता (COVID-19) (2020): COVID-19 महामारी के दौरान, उन्होंने कर्नाटक में सार्वजनिक और निजी कॉलेजों में प्रवेश को मानकीकृत करने की सरकारी नीति को बरकरार रखा, जिसमें महामारी को निजी संस्थानों की स्वायत्तता को सीमित करने का एक वैध कारण बताया गया था ।
- COVID-19 के दौरान शिक्षा और पोषण (2020): वह उस पीठ का भी हिस्सा थीं जिसने COVID-प्रभावित क्षेत्रों में मध्याह्न भोजन योजना को रोकने के कर्नाटक सरकार के प्रस्ताव को खारिज कर दिया था। पीठ ने ऑनलाइन कक्षाओं तक बच्चों की पहुंच सुनिश्चित करने के लिए डिजिटल विभाजन को पाटने की आवश्यकता पर बल दिया और शिक्षकों तथा गैर-शिक्षण कर्मचारियों को फ्रंटलाइन कार्यकर्ता मानने की भी वकालत की । यह निर्णय सामाजिक न्याय और कमजोर वर्गों, विशेषकर बच्चों के प्रति उनकी गहरी संवेदनशीलता को दर्शाता है।
- अवैध विवाह से जन्मे बच्चों के अधिकार (के. संतोष बनाम कर्नाटक पावर ट्रांसमिशन, 2021): इस मामले में, न्यायमूर्ति नागरत्ना और न्यायमूर्ति हंचते संजीव कुमार की खंडपीठ ने एक ऐतिहासिक टिप्पणी की: “अवैध माता-पिता हो सकते हैं, लेकिन कोई भी बच्चा अवैध नहीं होता।” पीठ ने फैसला सुनाया कि एक शून्य (void) विवाह से पैदा हुए ‘बेटे’ को अनुकंपा के आधार पर नियुक्ति के लिए विचार किया जा सकता है, क्योंकि बच्चे की अपने जन्म की परिस्थितियों में कोई भूमिका नहीं होती। यह निर्णय बच्चों के अधिकारों के प्रति उनके मानवीय और प्रगतिशील दृष्टिकोण का प्रमाण है।
- निवारक निरोध और संवैधानिक अधिकार (रिज़वान पाशा बनाम पुलिस आयुक्त): न्यायमूर्ति नागरत्ना की पीठ ने माना कि यद्यपि निवारक निरोध निरोधक प्राधिकारी की व्यक्तिपरक संतुष्टि पर आधारित होता है, लेकिन बंदी द्वारा दिए गए अभ्यावेदन पर विचार करने में अनुचित देरी से उसकी रिहाई हो सकती है । यह नागरिक स्वतंत्रता और प्रक्रियात्मक निष्पक्षता की सुरक्षा के प्रति उनकी प्रतिबद्धता को दर्शाता है।
- महामारी के दौरान पत्रकारों की भूमिका (जैकब जॉर्ज बनाम सचिव, सूचना एवं प्रसारण विभाग, 2020): न्यायमूर्ति नागरत्ना और न्यायमूर्ति सूरज गोविंदराज की खंडपीठ ने माना कि महामारी के दौरान पत्रकारों और मीडिया कर्मियों की भूमिका को कम करके नहीं आंका जा सकता है, और वे पुलिस, डॉक्टरों, नर्सों और अन्य आवश्यक सेवा कर्मियों की तरह ही सही जानकारी प्रसारित करने के लिए महत्वपूर्ण कार्य कर रहे हैं ।
महिलाओं से संबंधित मामलों में दृष्टिकोण
न्यायमूर्ति नागरत्ना के निर्णय और टिप्पणियाँ महिलाओं और बच्चों सहित समाज के कमजोर वर्गों के प्रति उनकी गहरी संवेदनशीलता और सहानुभूति को दर्शाती हैं। के. संतोष मामले में उनका फैसला और COVID-19 महामारी के दौरान मध्याह्न भोजन और शिक्षा से संबंधित उनके हस्तक्षेप इसके ज्वलंत उदाहरण हैं। महिलाओं के अधिकारों और लैंगिक समानता पर उनके सुविचारित विचार, जो उनके बाद के भाषणों और सुप्रीम कोर्ट के कार्यकाल में और भी स्पष्ट रूप से उभरे हैं , संभवतः उनके उच्च न्यायालय के कार्यकाल के दौरान ही आकार लेने लगे थे। वर्ष 2020 में, एक तलाक के मामले की सुनवाई के दौरान महिलाओं के सशक्तिकरण पर उनकी टिप्पणी ने व्यापक ध्यान आकर्षित किया था, जहाँ उन्होंने समाज की सशक्त महिलाओं के साथ सामंजस्य बिठाने में असमर्थता और माता-पिता द्वारा अपने बेटों को महिलाओं के साथ उचित व्यवहार सिखाने में विफलता पर महत्वपूर्ण टिप्पणी की थी । यह महिलाओं के प्रति सामाजिक दृष्टिकोण और लैंगिक गतिशीलता पर उनकी गहरी और सूक्ष्म समझ को दर्शाता है।
संविधान और नागरिक स्वतंत्रता पर राय
न्यायमूर्ति नागरत्ना के निर्णय संवैधानिक सिद्धांतों और नागरिक स्वतंत्रता के प्रति उनके गहरे सम्मान को प्रदर्शित करते हैं। वाहन कराधान, मीडिया विनियमन और निवारक निरोध से संबंधित उनके फैसले इस प्रतिबद्धता के प्रमाण हैं । नवंबर 2009 में, कर्नाटक उच्च न्यायालय परिसर में प्रदर्शनकारी वकीलों के एक समूह द्वारा उन्हें, तत्कालीन मुख्य न्यायाधीश पी.डी. दिनकरन और एक अन्य न्यायाधीश को कुछ समय के लिए जबरन हिरासत में लिए जाने की एक दुर्भाग्यपूर्ण घटना घटी थी । इस घटना के बाद, न्यायमूर्ति नागरत्ना ने अत्यंत साहस और दृढ़ता का परिचय देते हुए कहा था, “हमें इस तरह से दबाया नहीं जा सकता। हमने संविधान की शपथ ली है।” यह कथन न्यायिक स्वतंत्रता और संवैधानिक मूल्यों के प्रति उनकी अटूट और निर्भीक प्रतिबद्धता को सशक्त रूप से उजागर करता है।
कर्नाटक उच्च न्यायालय में न्यायमूर्ति नागरत्ना का कार्यकाल उनके विविध और सिद्धांतवादी न्यायिक दृष्टिकोण को प्रदर्शित करता है, जिसमें सामाजिक न्याय, संवैधानिक अधिकार और कानून के शासन पर विशेष जोर दिया गया है। उनके निर्णय वाणिज्यिक कानून, संवैधानिक कानून और सामाजिक न्याय जैसे विभिन्न क्षेत्रों को कवर करते हैं, और इनमें अक्सर मानवीय चिंताओं तथा प्रक्रियात्मक निष्पक्षता पर बल दिया जाता है। 2009 की हिरासत की घटना के प्रति उनकी प्रतिक्रिया न्यायिक स्वतंत्रता और साहस के प्रति उनके समर्पण को और भी पुष्ट करती है। यह कार्यकाल उनके सुप्रीम कोर्ट के कार्यकाल के लिए एक महत्वपूर्ण तैयारी का चरण साबित हुआ, जहाँ उन्होंने जटिल कानूनी सवालों और सामाजिक रूप से संवेदनशील मामलों से निपटने की अपनी असाधारण क्षमता का प्रदर्शन किया। “अवैध माता-पिता हो सकते हैं, लेकिन कोई बच्चा अवैध नहीं होता” जैसी उनकी टिप्पणियाँ उनके न्यायिक दर्शन में मानवीय दृष्टिकोण और सहानुभूति के महत्व को उजागर करती हैं, जो उनके बाद के सुप्रीम कोर्ट के निर्णयों और भाषणों में भी निरंतर परिलक्षित होता रहा है, विशेष रूप से महिलाओं और बच्चों से संबंधित मामलों में।
सुप्रीम कोर्ट में नियुक्ति
नियुक्ति वर्ष और शपथ तिथि
न्यायमूर्ति बी. वी. नागरत्ना की भारतीय न्यायपालिका में यात्रा का एक महत्वपूर्ण पड़ाव तब आया जब उन्हें 26 अगस्त 2021 को भारत के सर्वोच्च न्यायालय के न्यायाधीश के रूप में नियुक्त किया गया । इसके उपरांत, उन्होंने 31 अगस्त 2021 को सर्वोच्च न्यायालय के न्यायाधीश के रूप में शपथ ग्रहण की । यह नियुक्ति न केवल उनके उत्कृष्ट न्यायिक करियर की एक महत्वपूर्ण उपलब्धि थी, बल्कि भारतीय न्यायपालिका के इतिहास में भी एक उल्लेखनीय क्षण था, क्योंकि इसने उन्हें भारत की पहली महिला मुख्य न्यायाधीश बनने की दिशा में एक कदम और करीब ला दिया। यह तथ्य बी. वी. नागरत्ना सुप्रीम कोर्ट जज जैसे प्रमुख कीवर्ड के लिए अत्यंत प्रासंगिक है।
सुप्रीम कोर्ट में योगदान
सर्वोच्च न्यायालय में अपने कार्यकाल के दौरान, न्यायमूर्ति नागरत्ना ने कई महत्वपूर्ण तरीकों से योगदान दिया है:
- कॉलेजियम सदस्यता: न्यायमूर्ति नागरत्ना 25 मई 2025 से सुप्रीम कोर्ट कॉलेजियम की सदस्य बनीं । (कुछ स्रोत 24 मई को न्यायमूर्ति अभय एस. ओका की सेवानिवृत्ति के बाद 25 मई को उनके शामिल होने का उल्लेख करते हैं)। कॉलेजियम, जिसमें भारत के मुख्य न्यायाधीश और सर्वोच्च न्यायालय के चार अन्य वरिष्ठतम न्यायाधीश शामिल होते हैं, उच्च न्यायपालिका में न्यायाधीशों की नियुक्ति और स्थानांतरण पर महत्वपूर्ण सिफारिशें करता है। कॉलेजियम में उनकी उपस्थिति न्यायिक नियुक्तियों में उनके दृष्टिकोण को शामिल करने का अवसर प्रदान करती है, जिसमें न्यायपालिका में लैंगिक विविधता पर उनके सुविचारित विचार भी शामिल हो सकते हैं। यह ध्यान रखना महत्वपूर्ण है कि यद्यपि कुछ स्रोतों ने उन्हें कॉलेजियम में शामिल होने वाली “पहली महिला न्यायाधीश” के रूप में संदर्भित किया है , यह संभवतः उस विशिष्ट समय में कॉलेजियम की एकमात्र महिला सदस्य होने के संदर्भ में हो सकता है, क्योंकि न्यायमूर्ति रूमा पाल और न्यायमूर्ति ज्ञान सुधा मिश्रा जैसी महिला न्यायाधीश पहले भी अपनी वरिष्ठता के आधार पर कॉलेजियम का हिस्सा रह चुकी हैं।
- न्यायिक साहित्य में योगदान: न्यायमूर्ति नागरत्ना ने न्यायिक ज्ञान और साहित्य के क्षेत्र में भी महत्वपूर्ण योगदान दिया है। उन्होंने सुप्रीम कोर्ट द्वारा प्रकाशित प्रतिष्ठित पुस्तक “कोर्ट्स ऑफ इंडिया: पास्ट टू प्रेज़ेंट” में एक अध्याय का योगदान दिया, जिसमें उन्होंने ‘कर्नाटक के न्यायालय’ खंड को समृद्ध किया। इसके अतिरिक्त, वह इस महत्वपूर्ण पुस्तक के कन्नड़ अनुवाद समिति की अध्यक्ष भी रहीं । यह न्यायपालिका के इतिहास और कार्यप्रणाली के व्यापक प्रसार और समझ के प्रति उनकी गहरी रुचि और प्रतिबद्धता को दर्शाता है।
ऐतिहासिक महत्व – भारत की पहली संभावित महिला मुख्य न्यायाधीश (2027 में)
न्यायमूर्ति बी. वी. नागरत्ना का सर्वोच्च न्यायालय में कार्यकाल एक और ऐतिहासिक संभावना के कारण विशेष रूप से महत्वपूर्ण है: वह वर्ष 2027 में भारत की पहली महिला मुख्य न्यायाधीश (CJI) बन सकती हैं । वरिष्ठता के स्थापित सिद्धांत के अनुसार, उनके 23 सितंबर 2027 (या कुछ स्रोतों के अनुसार 24 या 25 सितंबर) को CJI का पदभार ग्रहण करने की उम्मीद है ।
उनका कार्यकाल लगभग 36 दिनों का होगा, और वह 29 अक्टूबर 2027 को सेवानिवृत्त होंगी । कुछ स्रोत एक महीने से अधिक के कार्यकाल का भी उल्लेख करते हैं । यह उपलब्धि, भले ही संक्षिप्त कार्यकाल के लिए हो, भारतीय न्यायिक इतिहास में एक मील का पत्थर साबित होगी और महिला सशक्तिकरण की दिशा में एक अत्यंत महत्वपूर्ण कदम होगी । यह संभावना सुप्रीम कोर्ट की पहली महिला मुख्य न्यायाधीश बनने वाली और सुप्रीम कोर्ट महिला जज 2024 जैसे दीर्घ-पूंछ वाले कीवर्ड के लिए अत्यधिक प्रासंगिक है।
सुप्रीम कोर्ट में उनकी नियुक्ति और पहली महिला CJI बनने की उनकी प्रबल संभावना उनके सुसंगत और उत्कृष्ट न्यायिक रिकॉर्ड, उनकी वरिष्ठता, और संभवतः न्यायपालिका में विविधता को बढ़ावा देने की कॉलेजियम की व्यापक इच्छा का परिणाम है। कर्नाटक उच्च न्यायालय में उनका लंबा और उल्लेखनीय कार्यकाल उनकी न्यायिक क्षमता को निर्विवाद रूप से स्थापित करता है। न्यायपालिका में लैंगिक विविधता की बढ़ती मान्यता ने भी उनकी नियुक्ति और इस ऐतिहासिक संभावना को बल दिया होगा। पहली महिला CJI के रूप में उनका संक्षिप्त कार्यकाल भी प्रतीकात्मक रूप से अत्यंत महत्वपूर्ण होगा, जो अनगिनत युवा महिला वकीलों और कानून के छात्रों को प्रेरित करेगा और न्यायपालिका में लैंगिक समानता पर चल रही चर्चा को और गति प्रदान करेगा। यह उपलब्धि भारत के न्यायिक इतिहास में स्थायी रूप से अंकित हो जाएगी और यह प्रदर्शित करेगी कि महिलाएं सभी क्षेत्रों में, न्यायपालिका सहित, उच्चतम पदों तक पहुंचने में सक्षम हैं।
प्रसिद्ध निर्णय और न्यायिक दृष्टिकोण (सुप्रीम कोर्ट के संदर्भ में)
न्यायमूर्ति बी. वी. नागरत्ना ने सर्वोच्च न्यायालय के न्यायाधीश के रूप में कई महत्वपूर्ण और दूरगामी प्रभाव वाले निर्णय दिए हैं। उनके निर्णय उनके गहन कानूनी ज्ञान, संवैधानिक सिद्धांतों की सूक्ष्म समझ और न्याय के प्रति अटूट प्रतिबद्धता को दर्शाते हैं। नीचे उनके कुछ प्रसिद्ध निर्णयों और न्यायिक दृष्टिकोणों का विस्तृत विश्लेषण प्रस्तुत है:
धार्मिक स्वतंत्रता से संबंधित फैसले
- रमेश बघेल बनाम छत्तीसगढ़ राज्य (ईसाई दफन अधिकार मामला – विभाजित निर्णय): इस महत्वपूर्ण मामले में, न्यायमूर्ति नागरत्ना ने एक प्रगतिशील और संवैधानिक मूल्यों पर आधारित राय दी। मामला छत्तीसगढ़ के एक गांव में एक ईसाई व्यक्ति के शव को दफनाने के अधिकार से संबंधित था, जिसका स्थानीय लोगों द्वारा विरोध किया जा रहा था। न्यायमूर्ति नागरत्ना ने अपनी राय में स्पष्ट किया कि धर्म के आधार पर किसी को दफनाने के अधिकार से वंचित करना भारतीय संविधान के अनुच्छेद 14 (समानता का अधिकार), अनुच्छेद 15 (धर्म, मूलवंश, जाति, लिंग या जन्मस्थान के आधार पर भेदभाव का निषेध) और अनुच्छेद 21 (प्राण और दैहिक स्वतंत्रता का संरक्षण, जिसमें गरिमा के साथ मृत्यु का अधिकार भी शामिल है) का स्पष्ट उल्लंघन है। उन्होंने भारत के धर्मनिरपेक्ष ताने-बाने पर जोर देते हुए कहा कि राज्य का यह कर्तव्य है कि वह सभी धर्मों के साथ समान व्यवहार करे और धार्मिक अल्पसंख्यकों के अधिकारों की रक्षा करे। उन्होंने राज्य सरकार को यह भी निर्देश दिया कि वह सभी जिलों में ईसाइयों के लिए कब्रिस्तान हेतु भूमि निर्दिष्ट करे ताकि भविष्य में ऐसे विवाद उत्पन्न न हों । यह निर्णय धार्मिक स्वतंत्रता, समानता और राज्य की धर्मनिरपेक्ष जिम्मेदारियों पर उनके सुदृढ़ विचारों को सशक्त रूप से दर्शाता है।
मीडिया और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर राय
- कौशल किशोर बनाम उत्तर प्रदेश राज्य (मंत्रियों की अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता, 2023): इस मामले में पांच-न्यायाधीशों की संविधान पीठ ने सार्वजनिक पदाधिकारियों, विशेषकर मंत्रियों की अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता की सीमाओं पर विचार किया। बहुमत ने यह माना कि मंत्रियों द्वारा दिए गए व्यक्तिगत बयानों के लिए सरकार को सामूहिक रूप से जिम्मेदार नहीं ठहराया जा सकता है। हालांकि, न्यायमूर्ति नागरत्ना ने इस पर आंशिक रूप से असहमतिपूर्ण राय व्यक्त की। उन्होंने कहा कि यदि कोई मंत्री अपनी “आधिकारिक क्षमता” में कोई ऐसा बयान देता है जो अपमानजनक या घृणास्पद है, तो ऐसे बयानों के लिए सरकार को परोक्ष रूप से जिम्मेदार ठहराया जा सकता है। उन्होंने इस बात पर जोर दिया कि घृणास्पद भाषण संविधान के मूलभूत मूल्यों, जैसे समानता और बंधुत्व, पर प्रहार करता है और सार्वजनिक जीवन में उच्च स्तर की शालीनता और जिम्मेदारी की आवश्यकता है । यह निर्णय सार्वजनिक पदाधिकारियों की जवाबदेही और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के विवेकपूर्ण उपयोग पर उनके संतुलित लेकिन दृढ़ विचारों को स्पष्ट करता है।
- डिजिटल और प्रसारण मीडिया का विनियमन: न्यायमूर्ति नागरत्ना ने कर्नाटक उच्च न्यायालय में अपने कार्यकाल के दौरान (2012 में) और बाद में सर्वोच्च न्यायालय के न्यायाधीश के रूप में भी फर्जी खबरों (fake news) और अभद्र भाषा की बढ़ती समस्या के कारण डिजिटल और प्रसारण मीडिया को विनियमित करने की आवश्यकता पर महत्वपूर्ण विचार व्यक्त किए हैं। हालांकि, उन्होंने हमेशा अत्यधिक सरकारी नियंत्रण के प्रति आगाह किया है और स्व-नियमन के लिए एक प्रभावी वैधानिक ढांचे का सुझाव दिया है। उनका मानना है कि मीडिया की स्वतंत्रता महत्वपूर्ण है, लेकिन इसे जिम्मेदारी के साथ प्रयोग किया जाना चाहिए।
संविधान की व्याख्या में योगदान
- नोटबंदी पर असहमति (विवेक नारायण शर्मा बनाम भारत संघ, 2023): न्यायमूर्ति नागरत्ना का यह असहमतिपूर्ण निर्णय उनके सबसे चर्चित और महत्वपूर्ण न्यायिक योगदानों में से एक माना जाता है। पांच-न्यायाधीशों की पीठ में 4:1 के बहुमत के फैसले से असहमति जताते हुए, उन्होंने 2016 की नोटबंदी की कवायद को “गैरकानूनी” और “कानून के विपरीत शक्ति का प्रयोग” करार दिया। उनका मुख्य तर्क यह था कि इतने बड़े पैमाने पर और दूरगामी प्रभाव वाली नोटबंदी की प्रक्रिया केवल एक गजट अधिसूचना के माध्यम से नहीं, बल्कि संसद द्वारा एक विधिवत कानून पारित करके की जानी चाहिए थी। उन्होंने इस बात पर भी जोर दिया कि भारतीय रिजर्व बैंक (RBI) ने इस मामले में स्वतंत्र रूप से अपने विवेक का प्रयोग नहीं किया, बल्कि केंद्र सरकार के निर्देश पर कार्य किया। उन्होंने कहा कि RBI अधिनियम की धारा 26(2) केंद्र सरकार को सभी श्रृंखलाओं के बैंक नोटों को बंद करने की ऐसी व्यापक शक्ति प्रदान नहीं करती है । यह असहमतिपूर्ण निर्णय संविधान में शक्तियों के पृथक्करण, प्रक्रियात्मक निष्पक्षता, संसदीय संप्रभुता और कार्यपालिका की जवाबदेही जैसे महत्वपूर्ण संवैधानिक सिद्धांतों पर उनके दृढ़ विचारों को दर्शाता है।
- औद्योगिक अल्कोहल पर राज्यों की शक्ति (असहमति): एक अन्य महत्वपूर्ण संवैधानिक मामले में, जहाँ 8:1 के बहुमत ने यह माना कि राज्यों के पास ‘औद्योगिक अल्कोहल’ सहित ‘मादक शराब’ को विनियमित करने की विधायी शक्ति है, न्यायमूर्ति नागरत्ना ने असहमतिपूर्ण राय दी। उन्होंने तर्क दिया कि यद्यपि राज्य ‘मादक शराब’ (potable liquor) को विनियमित कर सकते हैं, ‘औद्योगिक अल्कोहल’ केंद्र सरकार के अधिकार क्षेत्र में आता है, विशेष रूप से उद्योग (विकास और विनियमन) अधिनियम, 1951 (IDRA) के तहत, जो संसद द्वारा अधिनियमित है और “किण्वन उद्योगों” को नियंत्रित करता है । यह निर्णय संघीय ढांचे और केंद्र तथा राज्यों के बीच विधायी शक्तियों के वितरण पर उनकी सूक्ष्म और गहन समझ को इंगित करता है।
- खनिज अधिकारों पर उपकर लगाने की राज्यों की शक्ति (असहमति): नौ-न्यायाधीशों की एक अन्य संविधान पीठ में, बहुमत ने यह निर्णय दिया कि खनन संचालकों द्वारा भुगतान की जाने वाली रॉयल्टी कर (tax) नहीं है और राज्य खनन तथा खनिज-उपयोग गतिविधियों पर उपकर (cess) लगा सकते हैं। न्यायमूर्ति नागरत्ना ने इस पर भी असहमति व्यक्त की। उन्होंने तर्क दिया कि खान और खनिज (विकास और विनियमन) अधिनियम, 1957 (MMDR Act) के तहत रॉयल्टी ‘कर’ या ‘वसूली’ की प्रकृति की है, और इस अधिनियम की धारा 9 राज्यों की अतिरिक्त कर या शुल्क लगाने की क्षमता को सीमित करती है । यह पुनः संघीय वित्तीय संबंधों और कराधान शक्तियों की उनकी विशिष्ट व्याख्या को दर्शाता है।
- मौलिक अधिकारों की प्रयोज्यता (कौशल किशोर मामला): इसी मामले में, न्यायमूर्ति नागरत्ना ने इस विचार से भी असहमति व्यक्त की कि अनुच्छेद 19 (अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता आदि) और अनुच्छेद 21 (प्राण और दैहिक स्वतंत्रता) के तहत मौलिक अधिकारों को राज्य या उसके साधनों के अलावा अन्य निजी व्यक्तियों के खिलाफ भी सीधे तौर पर संवैधानिक अदालतों के समक्ष लागू किया जा सकता है, जब तक कि ऐसे अधिकारों को किसी कानून द्वारा वैधानिक रूप से मान्यता प्रदान न की गई हो और लागू कानून के अनुसार न हो । यह मौलिक अधिकारों के क्षैतिज (horizontal) बनाम ऊर्ध्वाधर (vertical) अनुप्रयोग के जटिल कानूनी सिद्धांत पर एक महत्वपूर्ण न्यायिक स्थिति है।
न्यायिक सक्रियता बनाम न्यूनतम हस्तक्षेप की नीति
न्यायमूर्ति नागरत्ना के निर्णय एक संतुलित न्यायिक दर्शन को दर्शाते हैं। एक ओर, वह संवैधानिक सिद्धांतों और कानून के शासन को बनाए रखने के लिए न्यायिक हस्तक्षेप से पीछे नहीं हटती हैं, जैसा कि नोटबंदी पर उनकी असहमति और मंत्रियों की घृणास्पद भाषण पर उनकी राय से स्पष्ट है । दूसरी ओर, वह न्यायिक सीमाओं के प्रति भी सचेत हैं, विशेषकर जब मामला नीतिगत निर्णयों का हो, जैसा कि कर्नाटक उच्च न्यायालय में COVID-19 से संबंधित कुछ निर्णयों में उनके संयम से स्पष्ट होता है ।
उनका दृष्टिकोण “न्याय के लिए सक्रियता” और “प्रक्रियात्मक संयम” का एक विवेकपूर्ण मिश्रण प्रतीत होता है। वह मानती हैं कि न्यायपालिका को अपनी शक्तियों की सीमाओं के प्रति सचेत रहना चाहिए, लेकिन साथ ही, संवैधानिक मूल्यों की रक्षा करने और अन्याय को रोकने के लिए हस्तक्षेप करने से डरना भी नहीं चाहिए । सुप्रीम कोर्ट द्वारा कई छोटे और नियमित मामलों को उठाने पर उनकी चिंता , न्यायिक संसाधनों के विवेकपूर्ण उपयोग और कुछ मामलों में उच्च न्यायालयों को अंतिम मध्यस्थ बनाने की आवश्यकता पर उनके विचारों को इंगित करती है, जो न्यायिक प्रक्रिया में दक्षता और प्रभावशीलता लाने की उनकी इच्छा को दर्शाता है।
बिलकिस बानो मामला (2024)
न्यायमूर्ति नागरत्ना और न्यायमूर्ति उज्जल भुइयां की पीठ ने बिलकिस बानो सामूहिक बलात्कार और उनके परिवार के सात सदस्यों की हत्या के मामले में 11 दोषियों को गुजरात सरकार द्वारा दी गई सजा माफी (remission) को रद्द कर दिया । पीठ ने अपने ऐतिहासिक फैसले में कई महत्वपूर्ण कानूनी सिद्धांत स्थापित किए:
- सक्षम सरकार का निर्धारण: न्यायालय ने स्पष्ट किया कि सजा माफी देने का अधिकार उस राज्य सरकार का होता है जहाँ मुकदमा चला और सजा सुनाई गई थी, न कि उस राज्य का जहाँ अपराध हुआ था या जहाँ दोषी कैद थे (यदि मुकदमा स्थानांतरित किया गया हो)। इस मामले में, चूंकि मुकदमा महाराष्ट्र में स्थानांतरित किया गया था, इसलिए गुजरात सरकार सजा माफी देने के लिए “सक्षम सरकार” नहीं थी ।
- कानून का शासन और न्यायिक प्रक्रिया का दुरुपयोग: न्यायालय ने इस बात पर जोर दिया कि कानून के शासन को हर कीमत पर बनाए रखा जाना चाहिए। पीठ ने पाया कि दोषियों ने मई 2022 में सुप्रीम कोर्ट से एक अनुकूल आदेश प्राप्त करने के लिए “धोखाधड़ी” की और “तथ्यों को छिपाया”। गुजरात सरकार को भी इस प्रक्रिया में दोषियों के साथ “मिलीभगत” करने और सुप्रीम कोर्ट के उस पिछले आदेश की समीक्षा न करने के लिए कड़ी फटकार लगाई गई, जिसे अब “धोखाधड़ी से प्राप्त” और “per incuriam” (कानून में त्रुटिपूर्ण) माना गया ।
- पीड़ित के अधिकार और संवैधानिक नैतिकता: यह निर्णय कानून के शासन, पीड़ित के अधिकारों की सर्वोच्चता और संवैधानिक नैतिकता के प्रति न्यायमूर्ति नागरत्ना की दृढ़ प्रतिबद्धता को उजागर करता है। न्यायालय ने स्पष्ट किया कि सजा माफी की शक्ति का प्रयोग मनमाने ढंग से नहीं किया जा सकता है और इसमें पीड़ित के अधिकारों तथा समाज पर पड़ने वाले प्रभाव पर विचार किया जाना चाहिए।
न्यायमूर्ति नागरत्ना की संवैधानिक व्याख्या में प्रक्रियात्मक निष्पक्षता, शक्तियों के पृथक्करण और मौलिक अधिकारों की सुरक्षा पर गहरा जोर स्पष्ट रूप से दिखाई देता है। वह संविधान को एक जीवंत दस्तावेज के रूप में देखती हैं जिसे समकालीन चुनौतियों का सामना करने के लिए सख्ती और विवेक से लागू किया जाना चाहिए। उनके पिता, पूर्व CJI ई.एस. वेंकटरमैया की विरासत, और कानून के शासन के प्रति उनकी अपनी अटूट प्रतिबद्धता उनके न्यायिक दर्शन को आकार देने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाती प्रतीत होती है। वह अपने निर्णयों में “नियमों की कठोरता” के साथ “सहानुभूतिपूर्ण विवेक” को संतुलित करने का प्रयास करती हैं। उनके असहमतिपूर्ण विचार और साहसिक निर्णय न्यायिक स्वतंत्रता के महत्व को रेखांकित करते हैं और दर्शाते हैं कि वह विवादास्पद मामलों पर भी एक सुविचारित और सिद्धांतवादी स्टैंड लेने से डरती नहीं हैं, जो उन्हें एक “फायरब्रांड डिसेंटर” के रूप में भी चिह्नित करता है ।
न्यायमूर्ति बी. वी. नागरत्ना के महत्वपूर्ण निर्णय (एक झलक)
न्यायालय | वर्ष | मामले का नाम (संक्षिप्त) | विषय | मुख्य बिंदु/न्यायमूर्ति नागरत्ना का रुख |
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कर्नाटक HC | 2012 | मीडिया विनियमन | प्रसारण मीडिया का विनियमन | फर्जी खबरों पर चिंता, स्व-नियमन के लिए वैधानिक ढांचे का सुझाव, अत्यधिक सरकारी नियंत्रण के प्रति आगाह। |
कर्नाटक HC | 2019 | मंदिरों की गैर-वाणिज्यिक स्थिति | मंदिर कर्मचारी और ग्रेच्युटी | मंदिर वाणिज्यिक संस्थान नहीं, श्रम कानूनों के ग्रेच्युटी प्रावधान लागू नहीं। |
कर्नाटक HC | 2021 | के. संतोष बनाम कर्नाटक पावर ट्रांसमिशन | अवैध विवाह से जन्मे बच्चों के अधिकार | “अवैध माता-पिता हो सकते हैं, लेकिन कोई बच्चा अवैध नहीं होता।” अनुकंपा नियुक्ति के लिए विचारणीय। |
कर्नाटक HC | 2020 | COVID शिक्षा/पोषण | मध्याह्न भोजन, ऑनलाइन शिक्षा | COVID प्रभावित क्षेत्रों में मध्याह्न भोजन न रोकने का निर्देश, डिजिटल विभाजन पाटने की वकालत। |
कर्नाटक HC | 2016 | वाहन कराधान | बाहरी राज्यों के वाहनों पर कर | कर्नाटक का “आजीवन कर” असंवैधानिक। |
सुप्रीम कोर्ट | 2023 | विवेक नारायण शर्मा बनाम भारत संघ | नोटबंदी | असहमतिपूर्ण राय; नोटबंदी को “गैरकानूनी” कहा, संसदीय कानून की आवश्यकता पर जोर। |
सुप्रीम कोर्ट | 2024 | बिलकिस बानो मामला | दोषियों की सजा माफी | गुजरात सरकार द्वारा दी गई सजा माफी रद्द; सक्षम सरकार महाराष्ट्र थी, कानून के शासन पर जोर। |
सुप्रीम कोर्ट | 2023 | कौशल किशोर बनाम उत्तर प्रदेश राज्य | मंत्रियों की अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता | आंशिक असहमति; आधिकारिक क्षमता में दिए गए घृणास्पद भाषण के लिए सरकार को जिम्मेदार ठहराया जा सकता है। |
सुप्रीम कोर्ट | 2025 (काल्पनिक तिथि, शोध में वास्तविक तिथि निर्दिष्ट नहीं) | रमेश बघेल बनाम छत्तीसगढ़ राज्य | ईसाई दफन अधिकार | विभाजित निर्णय में प्रगतिशील राय; दफनाने से इनकार अनुच्छेद 14, 15, 21 का उल्लंघन, धर्मनिरपेक्षता पर जोर। |
सुप्रीम कोर्ट | निर्दिष्ट नहीं | औद्योगिक अल्कोहल पर राज्यों की शक्ति | केंद्र-राज्य विधायी शक्तियां | असहमतिपूर्ण राय; औद्योगिक अल्कोहल पर केंद्र का अधिकार। |
सुप्रीम कोर्ट | निर्दिष्ट नहीं | खनिज अधिकारों पर रॉयल्टी | केंद्र-राज्य वित्तीय संबंध | असहमतिपूर्ण राय; रॉयल्टी ‘कर’ की प्रकृति की, राज्यों की अतिरिक्त कर लगाने की क्षमता सीमित। |
महिलाओं के लिए प्रेरणा
महिला कानून छात्रों और वकीलों के लिए रोल मॉडल
न्यायमूर्ति बी. वी. नागरत्ना, विशेष रूप से भारत की पहली महिला मुख्य न्यायाधीश बनने की उनकी प्रबल संभावना के साथ, अनगिनत युवा महिलाओं के लिए एक शक्तिशाली और अनुकरणीय रोल मॉडल के रूप में उभरी हैं, जो कानून और न्यायपालिका के क्षेत्र में अपना करियर बनाने की आकांक्षा रखती हैं । उनकी यात्रा, जो समर्पण, कड़ी मेहनत और सिद्धांतों के प्रति अटूट निष्ठा से चिह्नित है, यह दर्शाती है कि महिलाएं कानूनी पेशे के शिखर तक सफलतापूर्वक पहुँच सकती हैं और नेतृत्व की भूमिका निभा सकती हैं। उन्होंने स्वयं युवा महिला वकीलों के लिए रोल मॉडल और मेंटर्स की महत्वपूर्ण आवश्यकता पर बल दिया है, ताकि उन्हें इस चुनौतीपूर्ण पेशे में मार्गदर्शन और प्रोत्साहन मिल सके ।
न्यायपालिका में लैंगिक समानता पर उनके मुखर विचार और प्रयास
न्यायमूर्ति नागरत्ना ने लगातार और सशक्त रूप से न्यायपालिका तथा कानूनी पेशे में महिलाओं के अधिक प्रतिनिधित्व और लैंगिक समानता की वकालत की है । उन्होंने सार्वजनिक मंचों पर यह स्पष्ट रूप से कहा है कि सरकारी कानूनी सलाहकार पैनलों और सार्वजनिक क्षेत्र की इकाइयों के कानूनी सलाहकार पैनलों में कम से कम 30% महिलाएं होनी चाहिए । उनका यह भी मानना है कि न्यायपालिका में महिलाओं का अधिक प्रतिनिधित्व न्यायिक निर्णय लेने की समग्र गुणवत्ता में सुधार करता है, क्योंकि यह विविध दृष्टिकोणों को सामने लाता है ।
उन्होंने इस पारंपरिक धारणा को भी चुनौती दी है कि महिलाएं पुरुषों के स्थान पर “घुसपैठ” कर रही हैं। इसके विपरीत, उनका तर्क है कि महिलाएं उन ऐतिहासिक और अनुचित बाधाओं को समाप्त कर रही हैं जिन्होंने उन्हें पीढ़ियों से बाहर रखा है, और वे अब “अपने उचित हिस्से का दावा कर रही हैं” । न्यायमूर्ति नागरत्ना ने महिला न्यायाधीशों के लिए एक सहायक और संवेदनशील कार्य वातावरण बनाने की आवश्यकता पर भी प्रकाश डाला है। उन्होंने उन अनूठी चुनौतियों को स्वीकार किया है जिनका महिला न्यायाधीशों को सामना करना पड़ता है, जैसे कि मासिक धर्म के दौरान कार्य करने के लिए दर्द निवारक दवाओं पर निर्भरता या मातृत्व और पारिवारिक जिम्मेदारियों का उनके पेशेवर जीवन पर पड़ने वाला प्रभाव, जिसमें गर्भपात जैसी घटनाएं भी शामिल हैं । इसके अतिरिक्त, उन्होंने इस सामाजिक धारणा का भी खंडन किया है कि महिलाओं के सशक्तिकरण से पारिवारिक विवाद बढ़ रहे हैं; उनका मानना है कि समस्या महिलाओं के सशक्तिकरण में नहीं, बल्कि समाज की इस बदलाव के प्रति अनुकूलन में असमर्थता में है ।
महिला नेतृत्व के लिए प्रेरक
न्यायमूर्ति बी. वी. नागरत्ना का जीवन और करियर महिला नेतृत्व का एक उत्कृष्ट और प्रेरक उदाहरण प्रस्तुत करता है। उनकी कहानी दृढ़ता, असाधारण बुद्धिमत्ता और अपने सिद्धांतों के प्रति अटूट प्रतिबद्धता को प्रदर्शित करती है । उनकी सफलता न केवल उनकी व्यक्तिगत उत्कृष्टता का प्रमाण है, बल्कि यह कानूनी पेशे और भारतीय समाज में महिलाओं के लिए अवसरों के प्रगतिशील विस्तार का भी एक महत्वपूर्ण संकेतक है । वह दर्शाती हैं कि महिलाएं नेतृत्व की भूमिकाओं में उत्कृष्टता प्राप्त कर सकती हैं और न्यायपालिका जैसे पारंपरिक रूप से पुरुष-प्रधान क्षेत्रों में भी अपनी अमिट छाप छोड़ सकती हैं।
न्यायमूर्ति नागरत्ना की कहानी केवल व्यक्तिगत उपलब्धि तक सीमित नहीं है, बल्कि यह भारतीय समाज और विशेष रूप से कानूनी पेशे में महिलाओं की स्थिति, उनके संघर्षों और उनकी आकांक्षाओं का एक सूक्ष्म प्रतिबिंब है। उनकी टिप्पणियाँ और कार्य लैंगिक समानता के प्रति एक गहरी, सुसंगत और व्यावहारिक प्रतिबद्धता को दर्शाती हैं। वह केवल प्रतीकात्मक प्रतिनिधित्व से आगे बढ़कर संरचनात्मक परिवर्तनों की वकालत करती हैं, जैसा कि सरकारी कानूनी पैनलों में 30% महिला आरक्षण के उनके सुझाव और महिला न्यायाधीशों के लिए संवेदनशील कार्य वातावरण की उनकी मांग से स्पष्ट है । “घुसपैठ” बनाम “पुनः दावा” जैसी भाषा का उपयोग करके , वह लैंगिक समानता पर विमर्श को एक अधिक सशक्त और न्याय-आधारित दृष्टिकोण प्रदान करती हैं। पारिवारिक विवादों पर उनकी टिप्पणी महिलाओं के सशक्तिकरण के सामाजिक परिणामों की उनकी गहरी समझ को दर्शाती है, जो समस्या का कारण महिलाओं को नहीं, बल्कि सामाजिक अनुकूलन की कमी को मानती है। एक भावी पहली महिला CJI के रूप में, लैंगिक समानता पर उनके मुखर विचार और निरंतर प्रयास भारत में कानूनी और न्यायिक प्रणालियों में ठोस और सकारात्मक बदलावों को उत्प्रेरित करने की अपार क्षमता रखते हैं।
व्यक्तिगत जीवन और विचारधारा
निजी आदर्श
न्यायमूर्ति बी. वी. नागरत्ना के न्यायिक करियर और सार्वजनिक जीवन से उनके कुछ प्रमुख निजी आदर्श स्पष्ट रूप से परिलक्षित होते हैं:
- कानून का पालन और प्रक्रियात्मक निष्पक्षता: उनके द्वारा दिए गए निर्णय, विशेष रूप से नोटबंदी पर उनकी ऐतिहासिक असहमतिपूर्ण राय, प्रक्रियात्मक शुद्धता और कानून के शासन के प्रति उनके गहरे और अटूट सम्मान को दर्शाती है । वह मानती हैं कि लक्ष्य चाहे कितना भी नेक क्यों न हो, उसे प्राप्त करने के साधन कानूनी और संवैधानिक रूप से वैध होने चाहिए।
- सत्यनिष्ठा और साहस: वर्ष 2009 में जब कर्नाटक उच्च न्यायालय में प्रदर्शनकारी वकीलों द्वारा उन्हें और कुछ अन्य न्यायाधीशों को बंधक बना लिया गया था, उस चुनौतीपूर्ण स्थिति के बाद उनका दृढ़ बयान – “हमें इस तरह से दबाया नहीं जा सकता। हमने संविधान की शपथ ली है।” – उनके असाधारण साहस, नैतिक बल और न्यायिक स्वतंत्रता के प्रति उनकी अडिग प्रतिबद्धता को उजागर करता है । यह घटना उनके चरित्र की दृढ़ता का प्रमाण है।
- न्यायिक परंपराओं और औचित्य का सम्मान: अपने करियर के आरंभ में, दिल्ली में अपने पिता (जो तत्कालीन सुप्रीम कोर्ट के जज थे) को आवंटित सरकारी आवास में रहने से बचने के लिए बेंगलुरु में स्वतंत्र रूप से प्रैक्टिस करने का उनका निर्णय, न्यायिक औचित्य और नैतिकता के उच्चतम मानकों को बनाए रखने की उनकी गहरी प्रतिबद्धता को दर्शाता है । यह उनके व्यक्तिगत और पेशेवर जीवन में सत्यनिष्ठा के महत्व को रेखांकित करता है।
धार्मिक और सामाजिक दृष्टिकोण
न्यायमूर्ति नागरत्ना के निर्णय और सार्वजनिक भाषण उनके प्रगतिशील धार्मिक और सामाजिक दृष्टिकोण को दर्शाते हैं:
- धर्मनिरपेक्षता, समानता और सहिष्णुता: ईसाई दफन अधिकार मामले में उनकी राय धर्मनिरपेक्षता के सिद्धांतों, सभी नागरिकों के लिए समानता और विभिन्न धर्मों के प्रति सम्मान और सहिष्णुता के उनके मजबूत सामाजिक दृष्टिकोण को स्पष्ट रूप से दर्शाती है। वह मानती हैं कि राज्य का कर्तव्य है कि वह सभी धर्मों के साथ समान व्यवहार करे और अल्पसंख्यकों के अधिकारों की रक्षा करे।
- महिलाओं का सशक्तिकरण और लैंगिक न्याय: महिलाओं के अधिकारों, उनकी सामाजिक स्थिति, कानूनी संरक्षण और सशक्तिकरण पर उनके निरंतर भाषण और न्यायिक टिप्पणियाँ उनके प्रगतिशील और समतावादी सामाजिक विचारों को इंगित करती हैं। वह दृढ़ता से मानती हैं कि महिलाओं का सशक्तिकरण समाज के लिए एक सकारात्मक शक्ति है, और समस्या इसके प्रति समाज के अनुकूलन में कमी है, न कि स्वयं सशक्तिकरण में ।
- संवैधानिक नैतिकता और बंधुत्व: घृणास्पद भाषण और सार्वजनिक पदाधिकारियों के आचरण पर उनकी टिप्पणियाँ संवैधानिक नैतिकता, सार्वजनिक जीवन में मर्यादा, और समाज में बंधुत्व जैसे मूल्यों के प्रति उनके गहरे समर्पण को दर्शाती हैं।
कार्यशैली में अनुशासन और समर्पण
न्यायमूर्ति नागरत्ना की कार्यशैली उनके असाधारण अनुशासन और अपने न्यायिक कर्तव्यों के प्रति गहरे समर्पण से चिह्नित है:
- कार्यकुशलता: कर्नाटक उच्च न्यायालय में अपने 13 वर्षों के कार्यकाल के दौरान व्यक्तिगत रूप से 23,000 से अधिक मामलों का निपटारा करना उनकी कड़ी मेहनत, समर्पण और न्यायिक दक्षता का एक उल्लेखनीय प्रमाण है।
- न्यायिक साहित्य में योगदान: सुप्रीम कोर्ट द्वारा प्रकाशित पुस्तक “कोर्ट्स ऑफ इंडिया: पास्ट टू प्रेज़ेंट” में उनका योगदान और इसके कन्नड़ अनुवाद समिति की अध्यक्षता न्यायिक साहित्य, कानूनी इतिहास और ज्ञान के व्यापक प्रसार के प्रति उनकी प्रतिबद्धता और रुचि को इंगित करता है।
- सिद्धांतवादी दृष्टिकोण: न्यायिक स्वतंत्रता, न्यायाधीश के कर्तव्य और संवैधानिक जाँच-और-संतुलन पर उनके विचार उनकी कार्यशैली में एक सिद्धांतवादी और सुविचारित दृष्टिकोण को दर्शाते हैं। वह मानती हैं कि न्यायाधीशों को कानून की अपनी समझ और अपनी अंतरात्मा के अनुसार, बिना किसी बाहरी दबाव के, निर्णय लेने चाहिए।
न्यायमूर्ति नागरत्ना की विचारधारा कानून के शासन, संवैधानिक मूल्यों, प्रक्रियात्मक निष्पक्षता और मानवीय गरिमा के प्रति गहरी और सुसंगत प्रतिबद्धता से चिह्नित है। यह उनके न्यायिक निर्णयों और सार्वजनिक बयानों दोनों में स्पष्ट रूप से परिलक्षित होता है। उनके पिता का प्रभाव, उनकी व्यापक शिक्षा और विविध कानूनी अनुभव ने संभवतः उनके मजबूत नैतिक और न्यायिक सिद्धांतों को विकसित करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है। उनकी विचारधारा और कार्यशैली उन्हें न केवल एक सक्षम और सम्मानित न्यायाधीश बनाती है, बल्कि न्यायपालिका में जनता के विश्वास को भी मजबूत करती है, खासकर ऐसे समय में जब संस्था पर विभिन्न प्रकार के दबाव और सवाल उठाए जा सकते हैं।
भारतीय न्यायपालिका में उनका प्रभाव
न्यायिक प्रक्रियाओं में सुधार पर संभावित विचार
न्यायमूर्ति बी. वी. नागरत्ना ने न्यायिक प्रक्रियाओं की चुनौतियों और उनमें सुधार की आवश्यकता पर महत्वपूर्ण विचार व्यक्त किए हैं। उन्होंने इस बात पर चिंता जताई है कि सर्वोच्च न्यायालय को अक्सर विभिन्न प्रकार की भूमिकाएँ निभानी पड़ती हैं, जैसे कि पारिवारिक अदालत या जमानत अदालत, क्योंकि छोटे-मोटे और नियमित मुद्दों पर भी बड़ी संख्या में अपीलें दायर की जाती हैं। उनका मानना है कि इससे न्यायालय की वास्तव में महत्वपूर्ण संवैधानिक मामलों पर ध्यान केंद्रित करने की क्षमता प्रभावित होती है ।
इस संदर्भ में, उन्होंने सुझाव दिया है कि कुछ प्रकार के मामलों में उच्च न्यायालयों को ही अंतिम मध्यस्थ बनाया जाना चाहिए और सर्वोच्च न्यायालय में याचिकाएं दायर करने से पहले अधिक विवेक का प्रयोग किया जाना चाहिए । यद्यपि वह स्वीकार करती हैं कि मामलों की बढ़ती संख्या और लंबितता एक बड़ी चुनौती है, लेकिन वह इसे न्याय व्यवस्था में जनता के विश्वास का प्रतीक भी मानती हैं । उन्होंने जनहित याचिकाओं (PIL) के दुरुपयोग को भी एक महत्वपूर्ण चुनौती के रूप में पहचाना है, जो न्यायिक समय और संसाधनों पर दबाव डालता है । पारिवारिक न्यायालयों के संदर्भ में, उन्होंने विवादों को अदालत तक पहुँचने से पहले ही सुलझाने के लिए अनिवार्य पूर्व-मुकदमा मध्यस्थता और प्रशिक्षित मध्यस्थों की उपलब्धता पर बल दिया है, ताकि बच्चों पर पड़ने वाले नकारात्मक प्रभाव को कम किया जा सके और प्रक्रियात्मक देरी से बचा जा सके ।
पारदर्शिता और जवाबदेही पर जोर
यद्यपि न्यायमूर्ति नागरत्ना की स्वयं की संपत्ति घोषणा की स्थिति कुछ पुराने स्निपेट्स में “प्रतीक्षित” के रूप में उल्लिखित है , यह ध्यान रखना महत्वपूर्ण है कि सर्वोच्च न्यायालय द्वारा सभी न्यायाधीशों की संपत्ति को सार्वजनिक डोमेन में डालने का सामूहिक निर्णय न्यायिक पारदर्शिता की दिशा में एक महत्वपूर्ण कदम है, और न्यायमूर्ति नागरत्ना इस संस्था का अभिन्न अंग हैं। उन्होंने न्यायिक स्वतंत्रता और जवाबदेही को “एक ही सिक्के के दो पहलू” के रूप में वर्णित किया है, लेकिन साथ ही यह भी आगाह किया है कि स्वतंत्रता को न्यायिक दुर्व्यवहार या अक्षमता के लिए ढाल के रूप में इस्तेमाल नहीं किया जाना चाहिए ।
उनके निर्णय, जैसे कि बिलकिस बानो मामले में कार्यपालिका की जवाबदेही पर उनका दृढ़ रुख, और नोटबंदी पर उनकी असहमतिपूर्ण राय , अप्रत्यक्ष रूप से सरकारी और न्यायिक प्रक्रियाओं दोनों में अधिक पारदर्शिता और जवाबदेही की मांग करते हैं। ये निर्णय दर्शाते हैं कि वह मानती हैं कि शक्तियों का प्रयोग कानून के अनुसार और उचित प्रक्रिया का पालन करते हुए किया जाना चाहिए।
भविष्य की संभावनाएँ – मुख्य न्यायाधीश बनने की दिशा में योगदान
भारत की पहली महिला मुख्य न्यायाधीश के रूप में न्यायमूर्ति नागरत्ना का संभावित कार्यकाल, भले ही वह अवधि में संक्षिप्त हो, न्यायपालिका में लैंगिक समानता और महिला नेतृत्व के लिए एक स्थायी और परिवर्तनकारी विरासत छोड़ेगा । उनके गहन और सुविचारित निर्णय, विशेष रूप से संवैधानिक व्याख्या, मौलिक अधिकारों और कानून के शासन पर, भारतीय न्यायशास्त्र को निरंतर प्रभावित करते रहेंगे और भविष्य के कानूनी विमर्शों के लिए महत्वपूर्ण संदर्भ बिंदु प्रदान करेंगे ।
न्यायपालिका में महिलाओं के लिए एक सहायक और संवेदनशील कार्य वातावरण बनाने पर उनका निरंतर जोर भविष्य में और अधिक प्रतिभाशाली महिलाओं को कानूनी पेशे में आकर्षित करने और उन्हें बनाए रखने में महत्वपूर्ण भूमिका निभा सकता है। न्यायिक स्वतंत्रता, शक्तियों के पृथक्करण और संवैधानिक मूल्यों पर उनके सार्वजनिक भाषण और लेख न्यायिक विमर्श को समृद्ध करते हैं और इन महत्वपूर्ण अवधारणाओं की सार्वजनिक समझ में योगदान करते हैं।
न्यायमूर्ति नागरत्ना का प्रभाव केवल उनके ऐतिहासिक CJI बनने की संभावना से कहीं आगे तक जाता है; यह उनके सुविचारित न्यायिक दर्शन, प्रक्रियात्मक सुधारों पर उनके व्यावहारिक और दूरंदेशी विचारों, और लैंगिक समानता तथा सामाजिक न्याय के प्रति उनकी अटूट प्रतिबद्धता में गहराई से निहित है। सुप्रीम कोर्ट के मामलों के भारी बोझ और जनहित याचिकाओं के संभावित दुरुपयोग पर उनकी टिप्पणियाँ न्यायिक प्रणाली की वास्तविक चुनौतियों की उनकी गहरी समझ को दर्शाती हैं। पारदर्शिता और जवाबदेही पर उनका अप्रत्यक्ष जोर (उनके निर्णयों के माध्यम से) और न्यायिक स्वतंत्रता पर उनके स्पष्ट विचार एक मजबूत, स्वतंत्र और सिद्धांतवादी न्यायपालिका के उनके दृष्टिकोण को स्पष्ट करते हैं। लैंगिक समानता पर उनके निरंतर और मुखर प्रयास न्यायपालिका के भीतर और बाहर दोनों जगह एक स्थायी और सकारात्मक प्रभाव पैदा करने की अपार क्षमता रखते हैं। CJI के रूप में, भले ही यह एक संक्षिप्त कार्यकाल के लिए हो, उनके पास इन सुधारों और विचारों को आगे बढ़ाने का एक अनूठा और शक्तिशाली मंच होगा, जो भारतीय न्यायपालिका के भविष्य की दिशा को महत्वपूर्ण रूप से प्रभावित कर सकता है।
निष्कर्ष
न्यायमूर्ति बी. वी. नागरत्ना का जीवन और न्यायिक यात्रा भारतीय न्यायपालिका के इतिहास में एक असाधारण और प्रेरणादायक अध्याय है। एक प्रतिष्ठित न्यायिक परिवार में जन्मीं, उन्होंने अपनी शिक्षा और कानूनी प्रैक्टिस के माध्यम से अपनी एक विशिष्ट पहचान बनाई। कर्नाटक उच्च न्यायालय में उनके कार्यकाल के दौरान दिए गए महत्वपूर्ण निर्णय और सर्वोच्च न्यायालय में उनकी नियुक्ति, विशेष रूप से उनके द्वारा दिए गए साहसिक और सिद्धांतवादी फैसले, उनकी गहन कानूनी समझ, संवैधानिक मूल्यों के प्रति अटूट प्रतिबद्धता और न्याय के प्रति गहरे समर्पण को दर्शाते हैं।
नोटबंदी पर उनकी असहमतिपूर्ण राय और बिलकिस बानो मामले में उनका निर्णय न केवल कानून के शासन और प्रक्रियात्मक निष्पक्षता के महत्व को रेखांकित करते हैं, बल्कि न्यायिक स्वतंत्रता और साहस का भी प्रतीक हैं। न्यायमूर्ति नागरत्ना लैंगिक समानता की एक मुखर समर्थक रही हैं, और न्यायपालिका तथा कानूनी पेशे में महिलाओं के अधिक प्रतिनिधित्व और उनके लिए एक सहायक वातावरण बनाने की निरंतर वकालत करती रही हैं।
वर्ष 2027 में भारत की पहली महिला मुख्य न्यायाधीश बनने की उनकी प्रबल संभावना भारतीय लोकतंत्र और न्यायपालिका के लिए एक ऐतिहासिक क्षण होगा। यह न केवल लैंगिक बाधाओं को तोड़ने का प्रतीक होगा, बल्कि यह भी दर्शाएगा कि योग्यता, समर्पण और सिद्धांतों के प्रति निष्ठा सर्वोच्च पदों तक पहुंचने का मार्ग प्रशस्त करती है। उनका संक्षिप्त कार्यकाल भी न्यायिक विमर्श, नियुक्तियों और समग्र रूप से न्यायपालिका की दिशा पर एक स्थायी प्रभाव छोड़ने की क्षमता रखता है। न्यायमूर्ति बी. वी. नागरत्ना की जीवनी और उनके न्यायिक दर्शन का अध्ययन विधि के छात्रों, शोधकर्ताओं, कानूनी पेशेवरों और आम नागरिकों सभी के लिए प्रेरणादायक और ज्ञानवर्धक है, जो भारत की न्याय व्यवस्था और संवैधानिक लोकतंत्र के विकास को समझने में सहायक है। उनका योगदान भारतीय न्यायपालिका को अधिक समावेशी, जवाबदेह और न्यायसंगत बनाने की दिशा में एक महत्वपूर्ण कदम है।
न्यायमूर्ति बी. वी. नागरत्ना: प्रश्नोत्तर
न्यायमूर्ति बी. वी. नागरत्ना कौन हैं और वह क्यों महत्वपूर्ण हैं?
न्यायमूर्ति बी.वी. नागरत्ना भारत के सर्वोच्च न्यायालय की एक न्यायाधीश हैं। वह इसलिए महत्वपूर्ण हैं क्योंकि वह अपनी कानूनी कुशाग्रता, संवैधानिक सिद्धांतों की गहरी समझ और महत्वपूर्ण न्यायिक निर्णयों के लिए जानी जाती हैं। इसके अतिरिक्त, वह वर्ष 2027 में भारत की पहली महिला मुख्य न्यायाधीश बनने की कतार में हैं, जो भारतीय न्यायिक इतिहास में एक अभूतपूर्व और ऐतिहासिक उपलब्धि होगी ।
न्यायमूर्ति बी. वी. नागरत्ना के पिता कौन थे और क्या उनका भी न्यायपालिका से कोई संबंध था?
न्यायमूर्ति बी.वी. नागरत्ना के पिता न्यायमूर्ति ई. एस. वेंकटरमैया थे, जो भारत के 19वें मुख्य न्यायाधीश (19 जून 1989 से 17 दिसंबर 1989 तक) थे । इस प्रकार, उनका परिवार एक मजबूत और प्रतिष्ठित न्यायिक परंपरा से गहराई से जुड़ा हुआ है, जिसने निस्संदेह उनके कानूनी करियर को प्रभावित और प्रेरित किया है।
न्यायमूर्ति बी. वी. नागरत्ना की शिक्षा क्या है?
न्यायमूर्ति नागरत्ना ने अपनी स्कूली शिक्षा सोफिया हाई स्कूल, बैंगलोर और भारतीय विद्या भवन, नई दिल्ली से प्राप्त की। इसके बाद उन्होंने 1984 में जीसस एंड मैरी कॉलेज, दिल्ली विश्वविद्यालय से इतिहास में बी.ए. (ऑनर्स) की डिग्री और 1987 में कैंपस लॉ सेंटर, विधि संकाय, दिल्ली विश्वविद्यालय से कानून की डिग्री (एलएलबी) प्राप्त की ।
न्यायमूर्ति बी. वी. नागरत्ना के कुछ प्रसिद्ध फैसले कौन से हैं?
कर्नाटक उच्च न्यायालय में रहते हुए, उन्होंने मीडिया विनियमन, मंदिरों की गैर-वाणिज्यिक स्थिति, और अवैध विवाह से जन्मे बच्चों के अधिकारों (“अवैध माता-पिता हो सकते हैं, लेकिन कोई बच्चा अवैध नहीं होता”) जैसे मामलों पर महत्वपूर्ण निर्णय दिए । सर्वोच्च न्यायालय में, नोटबंदी पर उनकी असहमतिपूर्ण राय और बिलकिस बानो मामले में दोषियों की सजा माफी को रद्द करने का उनका निर्णय अत्यंत चर्चित और महत्वपूर्ण रहे हैं।
न्यायमूर्ति बी. वी. नागरत्ना का न्यायिक दर्शन क्या है?
उनका न्यायिक दर्शन कानून के शासन, संवैधानिक मूल्यों, प्रक्रियात्मक निष्पक्षता और मानवीय गरिमा के प्रति गहरी प्रतिबद्धता पर आधारित प्रतीत होता है। वह शक्तियों के पृथक्करण के सिद्धांत का सम्मान करती हैं और मानती हैं कि न्यायपालिका को अपनी सीमाओं के प्रति सचेत रहना चाहिए, लेकिन अन्याय को रोकने और संवैधानिक सिद्धांतों को बनाए रखने के लिए हस्तक्षेप करने से भी नहीं हिचकना चाहिए । वह “नियमों की कठोरता” के साथ “सहानुभूतिपूर्ण विवेक” को संतुलित करने का प्रयास करती हैं।
न्यायपालिका में महिलाओं की भूमिका पर न्यायमूर्ति नागरत्ना के क्या विचार हैं?
न्यायमूर्ति नागरत्ना न्यायपालिका और कानूनी पेशे में महिलाओं के अधिक प्रतिनिधित्व और लैंगिक समानता की एक प्रबल समर्थक हैं। उन्होंने सरकारी कानूनी पैनलों में महिलाओं के लिए आरक्षण का सुझाव दिया है और कहा है कि न्यायपालिका में महिलाओं का अधिक प्रतिनिधित्व न्यायिक निर्णय लेने की गुणवत्ता में सुधार करता है । वह मानती हैं कि महिलाएं पुरुषों के स्थान पर “घुसपैठ” नहीं कर रही हैं, बल्कि ऐतिहासिक बाधाओं को तोड़कर अपना “उचित हिस्सा” प्राप्त कर रही हैं ।
भारत की पहली महिला मुख्य न्यायाधीश बनने का क्या महत्व है?

यदि न्यायमूर्ति नागरत्ना 2027 में भारत की पहली महिला मुख्य न्यायाधीश बनती हैं, तो यह भारतीय न्यायिक और सामाजिक इतिहास में एक मील का पत्थर होगा। यह न केवल लैंगिक समानता की दिशा में एक बड़ी छलांग होगी, बल्कि यह अनगिनत युवा महिलाओं को कानून और सार्वजनिक जीवन में नेतृत्व की भूमिका निभाने के लिए प्रेरित करेगा । यह न्यायपालिका की समावेशिता और प्रगतिशीलता का भी प्रतीक होगा।