वर्षण क्या है?

जब नमी युक्त वायु की अत्यधिक मात्रा किसी विशेष कारणवश—जैसे कि तापवृद्धि, वायुसंचरण प्रणाली, अथवा विक्षेपक बल के प्रभाव से—ऊपर की ओर उठती है, तो ऊँचाई पर पहुँचने के साथ-साथ उसका तापमान क्रमिक रूप से घटने लगता है, जिसके परिणामस्वरूप अंततः वह संघनित होने लगती है।
यह संघनन प्रक्रिया ही मेघ निर्माण का कारण बनती है। मेघ, सूक्ष्म जलकणों, बारीक हिमकणों अथवा इन दोनों के सम्मिश्रण से गठित होते हैं। ये जलकण इतने हल्के होते हैं कि गुरुत्वाकर्षण बल के बावजूद भी वे मेघों से पृथक नहीं हो पाते। किंतु जब ये सूक्ष्म कण आपस में मिलकर विशाल जलकणों का निर्माण करते हैं, तो उनका भार इतना बढ़ जाता है कि वे मेघमंडल को छोड़कर तरल या ठोस रूप में पृथ्वी की सतह पर गिरने लगते हैं। यही प्रक्रिया वर्षण (Precipitation) कहलाती है। यह वर्षण विविध रूपों में—जैसे वर्षा, हिमपात, बूंदाबांदी अथवा ओलावृष्टि—प्रकट हो सकता है।
वर्षण की प्रक्रिया (Process of Precipitation)
वर्षण की प्रमुख प्रक्रियाएँ मुख्यतः गर्म और नमी से भरपूर वायु के रुद्धोष्मीय (Adiabatic) शीतलीकरण, तत्पश्चात संघनन के द्वारा जलवाष्प का जल या हिम में परिवर्तन, तथा मेघों के रूप में परिणत होकर अन्ततः पृथ्वी पर विविध स्वरूपों में गिरने से संबंधित होती हैं।
निरंतर वर्षा के लिए स्थायी उष्ण-आर्द्र वायु के साथ-साथ वायुमंडल में विशाल संख्या में ‘आर्द्रताग्राही नाभिक’ की उपस्थिति अत्यंत आवश्यक होती है। ज्ञात है कि ऊपर उठती वायु ठंडी होकर संतृप्त हो जाती है, किंतु इसके उपरांत संघनन के द्वारा बादलों के निर्माण के बावजूद भी वर्षा नहीं होती। इससे यह स्पष्ट होता है कि वर्षा की स्थिति प्राप्त करने हेतु वायु का अत्यधिक संतृप्त होना अनिवार्य है। जब वायुमंडलीय सापेक्षिक आर्द्रता 100 प्रतिशत पर पहुँच जाती है, तो उसके पश्चात वायु के और ठंडा होने से संघनन प्रक्रिया आरंभ होती है। इस प्रक्रिया की प्रारंभिक अवस्था में संघनन विशाल ‘आर्द्रताग्राही नाभिकों’ के चारों ओर ही प्रारंभ होता है।

इस प्रकार निर्मित जलकणों को मेघ सीकर कहा जाता है। जब ये मेघ सीकर विशाल समूहों में संगठित हो जाते हैं, तब बादल बनते हैं। ये मेघ सीकर इतने लघु आकार के होते हैं कि वायु में स्थिरता से लटके रह सकते हैं। जब तक ये सीकर आपस में मिलकर इतने विशालकाय नहीं हो जाते कि वायु उन्हें सहारा देने में असमर्थ हो जाए, तब तक वर्षा की संभावना नहीं बनती। यही कारण है कि कभी-कभी आकाश में घने मेघों की उपस्थिति के बावजूद भी वर्षा नहीं होती।
वर्षण कितने प्रकार के होते हैं? (Various Forms of Precipitation)
जब वायु ऊर्ध्वगमन, शीतलीकरण, तथा संघनन प्रक्रिया से गुजरती है, तब मेघों का निर्माण होता है। इन मेघों से जलकण एवं हिमकण सतह की ओर निरंतर गिरते रहते हैं। यदि वायुमंडल की निचली परतों में तापमान अपेक्षाकृत अधिक हो, तो यह प्रक्रिया वर्षा में परिवर्तित हो जाती है। वर्षण के कुछ प्रमुख एवं विशिष्ट रूप निम्नलिखित हैं—
जब संघनन प्रक्रिया 0° C से ऊपर तापमान पर संपन्न होती है, तब वर्षण तरल अवस्था में होता है, जैसे—वर्षा एवं पटुवा। वहीं, यदि संघनन हिमांक से कम तापमान पर हो, तो यह वर्षण ठोस रूप में परिवर्तित होता है, जैसे—हिमपात, ओलावृष्टि, तथा तुषार (पाला) आदि। वर्षण की विविधता में वर्षा, फुहार, जमती हुई फुहार या वर्षा, हिमपात, हिम गुटिका, तथा ओला सम्मिलित होते हैं।

वर्षा
यह वर्षण का सबसे व्यापक तथा अत्यंत महत्वपूर्ण रूप है। वर्षा की घटना तब संभव होती है, जब वायुमंडल में पर्याप्त जलवाष्प विद्यमान हो। वास्तविक रूप में यह 5 मिमी से अधिक व्यास वाली जलबूँदों के रूप में होती है। जब जलकणों का आकार इतना बढ़ जाता है कि वायु उन्हें सहारा देने में असमर्थ हो जाती है, तो वे तेज गति से नीचे गिरते हैं, किंतु वातावरण में गिरते समय ये टूटकर अनेक सूक्ष्म बूँदों में विभाजित हो जाते हैं, जिससे तीव्र वर्षा होती है।
फुहार
जब अत्यंत सूक्ष्म, लगभग 0.5 मिमी से कम व्यास वाले जलकण मंद गति से पृथ्वी की ओर गिरते हैं, तो इस प्रकार के वर्षण को फुहार या फुहारे कहते हैं। कभी-कभी ये फुहारे कोहरे के साथ सम्मिलित हो जाती हैं, जिससे दृश्यता में उल्लेखनीय कमी आती है।


हिम
जब संघनन 0° C से निम्न तापमान पर होता है, तो यह वर्षण हिम के रूप में प्रकट होता है। इस प्रक्रिया में हिमबुलों का निर्माण होता है, जो गिरते हुए हिमपात कहलाते हैं। हिमबुलों का निर्माण सामान्यतः तब होता है, जब वायु का तापमान -5° C से 0° C के बीच हो। वास्तव में यह श्वेत रंग के अपारदर्शी हिमकणों की वर्षा होती है। हिमपात तब होता है जब हिमांक स्तर सतह के इतने समीप हो कि हिमकण बिना पिघले धरातल तक ठोस अवस्था में पहुँच जाएँ।
हिम गुटिका
वे गोलाकार अपारदर्शी हिमकण जिन्हें संघनन के समय हिमांक के समीप तापमान पर निर्मित होते हुए देखा जाता है, उन्हें हिम गुटिका कहा जाता है। इनका व्यास सामान्यतः 2 मिमी से 5 मिमी तक होता है। ये वास्तव में कोमल ओलों के रूप में देखे जाते हैं।


प्रांपल
जिन हिमकणों का व्यास एक मिमी से भी कम होता है, उन्हें प्रांपल या कच्चा ओला कहा जाता है। ये श्वेत रंग के होते हैं और प्रकाश के लिए पूर्णतः अपारदर्शी होते हैं।
ओला
जिन बर्फ के कणों का आकार अपेक्षाकृत बड़ा होता है, उन्हें ओले कहा जाता है। इनका व्यास सामान्यतः 5 मिमी से 50 मिमी अथवा उससे अधिक हो सकता है। जब ये ओले भारी मात्रा में धरातल पर गिरते हैं, तो इसे ओलावृष्टि कहा जाता है। यह ठोस अवस्था में वर्षण का एक खतरनाक एवं विनाशकारी रूप है, जो खड़ी फसलों को नष्ट कर देता है और कभी-कभी मानव एवं पशु जीवन के लिए भी घातक सिद्ध होता है।


जमती फुहार या जमती वर्षा
जब तापमान 0° C से नीचे होता है और उस स्थिति में हल्की वर्षा या फुहार होती है, तो जलकण धरातलीय सतह तक पहुँचने से पूर्व ही जम जाते हैं। इसे ही जमती फुहार अथवा जमती वर्षा के रूप में जाना जाता है।
स्लीट या सहिम वर्षण
जब वर्षा तथा हिम एक साथ मिश्रित रूप में गिरते हैं, तो इसे सहिम वर्षण अथवा स्लीट कहा जाता है। यह मिश्रित स्वरूप में होने वाला वर्षण है, जिसमें जल एवं हिम दोनों उपस्थित होते हैं।

वर्षा के प्रकार (Types of Rainfall)
वर्षा की प्रक्रिया के लिए वायु का ऊर्ध्वगमन एवं संघनन दोनों ही आवश्यक तत्व होते हैं। यदि ये क्रियाएँ अनुपस्थित हों, तो वर्षा की संभावना नहीं रहती। वायु के आरोहण के प्रमुख कारक निम्नलिखित हैं—
जब तीव्र तापीय प्रभाव के कारण धरातल अधिक गर्म हो जाता है, तो वायु हल्की एवं उष्ण होकर ऊपर उठने लगती है।
जब वायु किसी पर्वतीय रुकावट से टकराकर मजबूरन ऊर्ध्वगमन करती है।
जब वायु का आरोहण किसी चक्रवातीय तंत्र के वाताग्र के प्रभाव से होता है।
इन समस्त स्थितियों में वायु का आरोहण सुनिश्चित होता है और इसके परिणामस्वरूप वर्षा घटित होती है। इन्हीं आधारों पर वर्षा को निम्नलिखित तीन श्रेणियों में वर्गीकृत किया गया है—
- संवहनीय वर्षा
- पर्वतीय वर्षा
- चक्रवातीय वर्षा
संवहनीय वर्षा (Convectional Rainfall)
जब धरातल पर तीव्र तापीय प्रभाव के चलते वायु गर्म एवं हल्की होकर ऊपर की ओर गति करती है, तब संवहनीय वर्षा के लिए उपयुक्त परिस्थितियाँ निर्मित होती हैं।
यह प्रकार की वर्षा मुख्यतः धरातल की तापीय तीव्रता एवं वायुमंडल में विद्यमान जलवाष्प की मात्रा पर निर्भर करती है। ग्रीष्म ऋतु में जब सतह अत्यधिक गर्म हो जाती है, तब वायु अत्यंत ऊँचाई तक उठती है। यदि इस वायु में पर्याप्त जलवाष्प उपस्थित हो, तो बड़े पैमाने पर संघनन की प्रक्रिया आरंभ हो जाती है, जिसके कारण वायु को अतिरिक्त गुप्त ऊष्मा प्राप्त होती है। फलस्वरूप, वायुमंडल में ऊँचाई तक कपासी वर्षी मेघों का निर्माण होता है।
यह स्पष्ट है कि संवहनीय वर्षा की उत्पत्ति धरातलीय उष्मन से होती है। अतः गर्म ऋतु इस वर्षा के लिए अत्यंत अनुकूल होती है। इस प्रकार की वर्षा की प्रमुख विशेषता यह है कि थोड़े समय में सीमित मेघों से अत्यधिक मात्रा में जलवर्षण होता है, जिसके पश्चात् आकाश निर्मल एवं मौसम स्वच्छ हो जाता है।

पर्वतीय वर्षा (Mountain Rainfall)
जब आर्द्र वायु का आरोहण किसी पर्वतीय अवरोध के कारण होता है और उससे उत्पन्न वर्षा घटित होती है, तो उसे पर्वतीय वर्षा कहा जाता है। इस परिस्थिति में, जब आर्द्र हवाएँ अपने प्राकृतिक पथ में पर्वतों से टकराती हैं, तो वे ऊर्ध्वगमन हेतु बाध्य होती हैं। यद्यपि केवल कुछ वायु धाराएँ ही पर्याप्त बल के साथ ऊपर उठ पाती हैं।
जब यह आरोहित वायु संघनन-स्तर तक पहुँचती है, तब संघनन प्रक्रिया आरंभ हो जाती है और हवाओं को गुप्त ऊष्मा प्राप्त होती है, जिससे उनका ऊर्ध्वगमन और तीव्र हो जाता है। तत्पश्चात्, वायु का शीतलन आर्द्र रुद्धोष्म दर से होता है, जिससे कपासी वर्षी मेघ अत्यधिक ऊँचाई तक विकसित हो जाते हैं और तीव्र व तीव्रतम वर्षा होती है। पर्वतीय ढाल की ओर बढ़ती इन हवाओं के साथ वर्षा की मात्रा भी एक निश्चित ऊँचाई तक क्रमशः बढ़ती है। हालांकि, एक विशेष ऊँचाई के बाद वर्षा में धीरे-धीरे गिरावट आने लगती है, क्योंकि वायु की आर्द्रता घटती जाती है।
पर्वतीय शिखर तक पहुँचते-पहुँचते वायु में शेष नमी समाप्त हो जाती है और वर्षा रुक जाती है। जब वायु पर्वत को पार करके विपरीत ढाल की ओर उतरती है, तो उसका तापमान पुनः रुद्धोष्म दर से बढ़ने लगता है, जिससे वायु गर्म और शुष्क हो जाती है। इसके साथ-साथ वायु की सापेक्षिक आर्द्रता में कमी आने लगती है, फलस्वरूप वर्षा की संभावना नहीं रहती। इस वृष्टिविहीन क्षेत्र को ही वृष्टि छाया प्रदेश (Rain Shadow Region) कहा जाता है।

चक्रवातीय वर्षा (Cyclonic Rainfall)

जब किसी विशाल और उष्ण क्षेत्र में फैली वायुराशि का ऊर्ध्वगमन वाताग्र की उपस्थिति में होता है, तब चक्रवातीय वर्षा की प्रक्रिया प्रारंभ होती है। तापमान, आर्द्रता, तथा घनत्व जैसी भौतिक विशेषताओं में भिन्न, व्यापक एवं स्थूल वायुराशियाँ जब एक-दूसरे के संपर्क में आती हैं, तब वाताग्र (front) का निर्माण होता है। यह वाताग्र प्रायः ढालाकार होता है, जिससे होकर उष्ण वायुराशियाँ ऊपर उठने लगती हैं।
वायु के ऊपर उठने एवं शीतलन की प्रक्रिया के फलस्वरूप मेघ बनते हैं। यदि यह आरोहण तीव्र गति से होता है, तो आकाश में घने मेघ फैल जाते हैं और तेज मूसलधार वर्षा होती है। इसके विपरीत, जब वायु की गति धीमी होती है और शीतलन क्रमिक होता है, तब छिछले कपासी मेघों का विकास होता है जिससे हल्की फुहारें गिरती हैं।
जब उष्ण वाताग्र के प्रभाव से वायु का आरोहण होता है, तो इससे निर्मित मेघों से वर्षा सामान्यतः फुहार के रूप में होती है, जो विस्तृत क्षेत्र में लंबे समय तक चलती है। दूसरी ओर, जब वायु का ऊर्ध्वगमन शीत वाताग्र की उपस्थिति में होता है, तो इस स्थिति में निर्मित मेघों से वर्षा अल्पकालिक होती है, परंतु वह मूसलधार होती है और प्रायः बिजली की चमक के साथ घटित होती है।
वर्षा के वितरण को प्रभावित करने वाले कारक (Factors Affecting Distribution of Rainfall)
वर्षा के स्थलाकृतिक वितरण को अनेक कारक प्रभावित करते हैं, जैसे अक्षांशीय स्थिति, पर्वतीय एवं पठारी स्वरूप, तथा स्थल-जल वितरण में विषमता। यही कारण है कि पृथ्वी की सतह पर वर्षा का वितरण असमान रूप में देखा जाता है।
भूमध्य रेखा के समीप वायु का अभिसरण अत्यधिक होता है, जिससे इस क्षेत्र में वर्षा की मात्रा अपेक्षाकृत अधिक होती है। इसके विपरीत, उपोष्णकटिबंधीय उच्च दबाव क्षेत्र में वायु का अवरोहण होता है, जिससे यहाँ वर्षा बहुत कम होती है। पछुआ पवन पट्टी में विभिन्न प्रकार की हवाओं के संपर्क से वाताग्रों का निर्माण होता है, जिनके प्रभाव से वायु का आरोहण होता है और वहाँ अपेक्षाकृत अधिक वर्षा होती है।
लगभग 50° अक्षांश रेखा के उत्तर एवं दक्षिण में तापमान में कमी और वायुगति के अवतलन के कारण वर्षा में कमी आती है। जैसे-जैसे हम 75° अक्षांश की ओर बढ़ते हैं, वर्षा की मात्रा अत्यल्प हो जाती है। अतः, भूमध्य रेखा से ध्रुवों की ओर बढ़ते हुए वर्षा का वितरण क्रमशः परिवर्तित होता है, जिससे विभिन्न स्थानों पर वर्षा की मात्रा में स्पष्ट अंतर देखा जाता है।
स्थल तथा जल वितरण में असमानता भी वर्षा को प्रभावित करती है। पृथ्वी की सतह पर महासागर और स्थल खंड असमान रूप में फैले हुए हैं। महासागरीय वायुराशियाँ सामान्यतः आर्द्र होती हैं, जबकि महाद्वीपीय वायुराशियाँ प्रायः शुष्क होती हैं, जिससे महासागर क्षेत्रों में वर्षा की मात्रा महाद्वीपों की तुलना में कहीं अधिक होती है। वैश्विक स्तर पर होने वाली कुल वर्षा का 80 प्रतिशत भाग महासागरों पर गिरता है, जबकि केवल 20 प्रतिशत वर्षा महाद्वीपीय भूभागों पर होती है।
कुछ तटीय क्षेत्र ऐसे हैं जहाँ महासागरों से आई आर्द्र हवाएँ भारी वर्षा उत्पन्न करती हैं। वहीं कुछ अन्य तटीय क्षेत्रों में अंतर्देशीय शुष्क हवाएँ पहुँचती हैं, जिनसे वर्षा अत्यल्प या नगण्य होती है।
पर्वतीय अवरोध भी वर्षा के वितरण में प्रमुख भूमिका निभाते हैं। जब हवाएँ पर्वतों से टकराती हैं, तब वे ऊपर की ओर उठती हैं और शीतलन के कारण वर्षा होती है। जैसे-जैसे वे ऊँचाई पर चढ़ती जाती हैं, वर्षा की मात्रा भी बढ़ती जाती है। परंतु एक सीमा के बाद जब वायुराशियों की जलवाष्प क्षमता समाप्त हो जाती है, तब वर्षा कृश हो जाती है या पूरी तरह रुक जाती है।
पर्वत की विपरीत ढाल पर जब हवाओं का अवरोहण होता है, तब तापमान लगभग 1°C प्रति 100 मीटर की दर से बढ़ता है, जिससे वायु और भी शुष्क हो जाती है। ऐसे क्षेत्र जहाँ यह स्थिति बनती है, उन्हें वृष्टि छायाप्रदेश कहा जाता है क्योंकि यहाँ वर्षा नहीं होती।
इस प्रकार पर्वतीय ढालें भी वर्षा के वितरण में विषमता उत्पन्न करती हैं, जिससे एक ही पर्वतीय क्षेत्र में कहीं अत्यधिक तो कहीं नगण्य वर्षा देखने को मिलती है।
वर्षा का विश्व वितरण (World Distribution of Rainfall)
वैश्विक भू-तल पर सामान्यतः वर्षा की छह प्रमुख पेटियाँ पाई जाती हैं—
- भूमध्य रेखीय उच्च वर्षा क्षेत्र
- उष्ण कटिबंधीय न्यून वर्षा क्षेत्र
- मध्य अक्षांशीय उच्च वर्षा क्षेत्र
- सन्मार्गी पवनों से संबंधित वर्षा क्षेत्र
- भूमध्य सागरीय वर्षा क्षेत्र
- ध्रुवीय अल्प वर्षा क्षेत्र

भूमध्य रेखीय उच्च वर्षा क्षेत्र
यह क्षेत्र भूमध्य रेखा के दोनों ओर 10° अक्षांशों के मध्य विस्तृत है। इसमें उष्ण तथा शीतल वायुराशियों का संयोग पाया जाता है। यह क्षेत्र अंतर-उष्णकटिबंधीय अभिसरण मंडल (ITCZ) के अंतर्गत आता है, जिसके कारण वर्षभर यहां अनुकूल पर्यावरणीय स्थितियाँ उपलब्ध रहती हैं, जिससे वर्षा की मात्रा अत्यधिक होती है। यहाँ 175 से 200 सेंटीमीटर तक वार्षिक वर्षा होती है। पर्वतीय वर्षा के अतिरिक्त, यहाँ संवहनीय वर्षा का भी योगदान रहता है। प्रत्येक दिन दोपहर उपरांत गरज और बिजली की चमक के साथ तेज मूसलाधार वर्षा घटित होती है।
सन्मार्गी पवनों से संबंधित वर्षा क्षेत्र
यह वर्षा पेटी भूमध्य रेखा के दोनों ओर 10° से 20° अक्षांशों के बीच विस्तृत है। इस क्षेत्र में व्यापारिक पवनों का प्रभुत्व होता है। समुद्री क्षेत्रों से आने वाली इन हवाओं में वाष्प की मात्रा अत्यधिक होती है, जिससे महाद्वीपों के पूर्वी किनारों पर अत्यधिक वर्षा होती है। परंतु जब यही हवाएँ पर्वतीय क्षेत्रों में प्रवेश करती हैं, तो उनमें शुष्कता आ जाने से वर्षा नहीं होती। यही कारण है कि इन अक्षांशीय पट्टियों में अनेक स्थानों पर मरुस्थलीय विस्तार पाया जाता है।
इस क्षेत्र में स्थित मरुस्थलों में वर्षा की मात्रा और समय दोनों ही अनिश्चित होते हैं। कभी-कभी अचानक तीव्र गति से वर्षा होती है। इस वर्षा क्षेत्र के कुछ भागों में, ग्रीष्म ऋतु में उच्च तापमान के प्रभाव से संवहनीय प्रवाह उत्पन्न होते हैं, जो अचानक तीव्र वर्षा का कारण बनते हैं।
उष्ण कटिबंधीय न्यून वर्षा क्षेत्र
यह पेटी भूमध्य रेखा के दोनों ओर 20° से 40° अक्षांशों के बीच विस्तृत है। इस क्षेत्र में वायुगति के अवतलन के कारण वायुराशियों का तापमान रुद्धोष्म दर से बढ़ता है। इसके परिणामस्वरूप, यहाँ उच्च वायुदाबीय स्थितियाँ बनी रहती हैं, जिससे प्रतिचक्रवातीय परिस्थितियाँ उत्पन्न होती हैं।
भूमध्य सागरीय वर्षा क्षेत्र
यह वर्षा क्षेत्र भूमध्य रेखा के दोनों ओर 30° से 40° अक्षांशों के मध्य फैला हुआ है। इस क्षेत्र के पश्चिमी समुद्री किनारों पर शीतकाल में पछुआ पवनों के साथ चक्रवातों का आगमन होता है, जिससे तीव्र और झंझावाती वर्षा होती है। ग्रीष्म ऋतु में यहाँ व्यापारिक हवाएँ बहती हैं, जिनके कारण पश्चिमी तटों पर पूर्व से पश्चिम की ओर वर्षा में क्रमशः कमी आती है और मौसम शुष्क हो जाता है।
मध्य अक्षांशीय उच्च वर्षा क्षेत्र
यह क्षेत्र भूमध्य रेखा के दोनों ओर 40° से 60° अक्षांशों के बीच स्थित है। इस वर्षा क्षेत्र में पछुआ पवनों के प्रवाह से वर्षा की मात्रा अधिक होती है। इन हवाओं से महाद्वीपीय भागों में 100 से 125 सेंटीमीटर तक वर्षा होती है। इस कारण इसे ‘महाद्वीपीय उच्च वर्षा क्षेत्र‘ भी कहा जाता है।
पछुआ पवनें जब महाद्वीपों के पश्चिमी भागों में स्थित पर्वतों या पठारों से टकराती हैं, तब उनके ऊर्ध्वगमन, शीतलन और संघनन की प्रक्रिया से वहाँ अधिक वर्षा होती है। इसके विपरीत, आंतरिक क्षेत्रों में वर्षा की मात्रा कम होती है। दक्षिणी गोलार्द्ध में जहाँ सागर का विस्तार अधिक है, वहाँ वर्षा की मात्रा उत्तरी गोलार्द्ध की अपेक्षा अधिक होती है। इस क्षेत्र में ध्रुवीय शीत हवाओं एवं पछुआ पवनों के संघर्ष से चक्रवात उत्पन्न होते हैं, जो शीत ऋतु में तेज़ वर्षा लाते हैं।
ध्रुवीय अल्प वर्षा क्षेत्र
इस पेटी में 60° अक्षांश से लेकर ध्रुवीय क्षेत्रों तक जाने पर वर्षा की मात्रा लगातार घटती है, और 75° अक्षांश के परे वार्षिक वर्षा का औसत मात्र 25 सेंटीमीटर रह जाता है। इस क्षेत्र में अधिकांश वर्षा हिमपात के रूप में होती है।