ज्वालामुखीयता से आप क्या समझते हैं?
पृथ्वी के आभ्यंतरिक अस्थिरता के परिणामस्वरूप उसकी सतह पर विभिन्न घटनाएँ घटित होती हैं। ये घटनाएँ सृजनात्मक और विनाशकारी दोनों स्वरूपों में देखी जाती हैं। ज्वालामुखी क्रिया एक अल्पकालिक लेकिन गंभीर विनाशकारी घटना होती है, वहीं इसका सृजनात्मक पक्ष भी अत्यंत महत्वपूर्ण माना जाता है।


ज्वालामुखीयता (Vulcanicity), ज्वालामुखी विस्फोट की प्रक्रिया (mechanism of volcano) तथा ज्वालामुखी (volcano) को प्रायः समानार्थक रूप में प्रयोग किया जाता है। यह एक ऐसी प्रक्रिया है, जिसमें भूगर्भीय मैग्मा का निर्माण तथा उसका पृथ्वी की आंतरिक परतों से होते हुए सतह पर उद्गार सम्मिलित होता है। यदि यह प्रक्रिया तीव्र हो, तो गर्म लावा और अन्य पदार्थ पृथ्वी के भीतर से बाहर निकलते हैं, जबकि धीमी गति से होने पर वे सतह के नीचे ही जम जाते हैं और अभ्यंतरिक स्थलाकृतियों का निर्माण करते हैं। इस प्रकार, ज्वालामुखीयता के अंतर्गत होने वाली आंतरिक गतिविधियाँ, आंतरिक ज्वालामुखीय स्थलाकृतियों का निर्माण करती हैं, जबकि बाह्य गतिविधियाँ, बाह्य ज्वालामुखीय स्थलाकृतियों के निर्माण में सहायक होती हैं।
ज्वालामुखीयता के कारण क्या क्या है?(Causes of Volcanism)
1. तापमान में वृद्धि (Increase in Temperature)
पृथ्वी की सतह के नीचे हर 32 मीटर पर 1°C तापमान की वृद्धि होती है। कुछ भौतिक वैज्ञानिकों का मानना है कि पृथ्वी के आंतरिक भाग में कुछ ऐसे पदार्थ विद्यमान हैं, जो स्वतः ऊष्मा उत्पन्न करते हैं। इसके कारण पृथ्वी के भीतर तापमान अत्यधिक बढ़ जाता है, जिससे इसका मध्य भाग एक द्रवित परत के रूप में विद्यमान रहता है।
2. दाब में कमी (Decrease in Pressure)
कुछ वैज्ञानिकों के अनुसार, पृथ्वी की सतह से केंद्र की ओर जाने पर दाब में निरंतर वृद्धि होती है। अधिक तापमान होने के बावजूद, उच्च दाब के कारण पदार्थ ठोस अवस्था में बने रहते हैं, क्योंकि दाब एवं गलनांक परस्पर समानुपाती होते हैं। जब तक ऊपरी परतों से दबाव बना रहता है, तब तक भूगर्भीय बेसाल्ट परत ठोस रूप में रहती है। किन्तु जब दबाव में कमी आती है, तो गलनांक में भी कमी होती है, जिससे यह परत तरल या पिघली हुई अवस्था में बदल जाती है। दबाव में कमी के दो मुख्य कारण माने जाते हैं:
- दरारें अथवा भ्रंशों (faults) का निर्माण।
- मोड़दार पर्वतों (folded mountains) के निर्माण से भार में असमानता।
इन परिस्थितियों में, जहाँ दबाव में कमी होती है, वहाँ भूगर्भीय पदार्थ पिघलकर मैग्मा में परिवर्तित हो जाता है।
3. जल की मात्रा में वृद्धि (Increase in the Amount of Water)
यदि भूगर्भीय गतिविधियों के दौरान जल किसी प्रकार गहरी दरारों में रिसकर नीचे चला जाता है, तो वह मैग्मा के संपर्क में आकर तीव्र गति से वाष्पीकृत होकर गैस में परिवर्तित हो जाता है। यदि इस उच्च तापमान वाले गलित पदार्थ में गैसों की मात्रा अधिक होती है, तो इसके सतह पर आने की संभावना भी अधिक हो जाती है। जिन स्थानों पर चट्टानें कमजोर होती हैं, या जहाँ भ्रंश अथवा दरारें बनी होती हैं, वहाँ यह गैस अत्यधिक दबाव उत्पन्न कर चट्टानों को तोड़ते हुए बाहर निकलती है, जिससे ज्वालामुखी विस्फोट होता है।
ज्वालामुखी उद्गार से उत्सर्जित सामग्री (Matter Ejected from Volcanic Eruption)

ज्वालामुखीय गतिविधियों के दौरान विविध प्रकार की सामग्रियाँ बाहर निकलती हैं, जिनमें गैसें, जलवाष्प, विखंडित अवशेष, तथा उष्ण लावा विशेष रूप से महत्त्वपूर्ण मानी जाती हैं। जब ये अवयव पृथ्वी के भीतरी प्रक्रियात्मक परिवर्तनों के प्रभाव से सतह तक पहुँचते हैं, तब तीव्र विस्फोट एवं ध्वनियाँ उत्पन्न होती हैं। ज्वालामुखी के प्रस्फोटन के समय गैसें भूपटल को भेदते हुए सतह पर प्रकट होती हैं। इन गैसों में जलवाष्प का अनुपात सर्वाधिक होता है, जबकि अन्य गैसों में कार्बन डाइऑक्साइड (CO₂), नाइट्रोजन (N₂), तथा सल्फर डाइऑक्साइड (SO₂) सम्मिलित होती हैं। जलवाष्प की मात्रा सामान्यतः 60% से 90% के मध्य होती है। गैसीय उत्सर्जन के साथ-साथ अत्यंत सूक्ष्म धूल-कणों से लेकर विशाल चट्टानी खंडों तक की संरचनाएँ बाहर निकलती हैं और इनका विस्थापन ऊँचाई तक गैसों द्वारा किया जाता है।
ज्वालामुखीय विस्फोट से निकली सामग्रियों को पाइरोक्लास्टस कहा जाता है। इनमें से सर्वाधिक सूक्ष्म कणों को ‘ज्वालामुखीय धूल‘ की संज्ञा दी जाती है। जिन कणों का आकार लगभग 2 मिमी होता है, उन्हें ज्वालामुखी राख कहा जाता है। मटर जैसे आकार वाले खंडों को लैपिली तथा 6 से.मी. अथवा उससे अधिक आकार वाले अवयवों को ज्वालामुखी बम की श्रेणी में रखा जाता है। कभी-कभी तो 100 टन तक का एकल पिंड भी बाहर आ जाता है। जब ज्वालामुखी से उष्ण, चिपचिपा पदार्थ बाहर निकलता है, तो उसे लावा की संज्ञा दी जाती है। लावा को सिलिका (Si) की सांद्रता के आधार पर दो भिन्न वर्गों में विभाजित किया जाता है–
(1) अम्लीय लावा: इसमें सिलिका की मात्रा 77% से अधिक होती है। इसका रंग पीताभ होता है, भार में यह हल्का होता है तथा यह अपेक्षाकृत अधिक तापमान पर पिघलता है।
(2) पैठिक क्षारीय लावा: इसमें सिलिका की सांद्रता 45% से 55% के मध्य होती है, अतः इसे क्षारीय लावा भी कहा जाता है। इसका वर्ण गहरा, मैफिक तथा श्यामवर्ण होता है। इसका घनत्व अधिक होता है तथा यह न्यून ताप पर ही पिघलने में सक्षम होता है।
ज्वालामुखियों का वैश्विक वितरण (Global Distribution of Volcanoes)
विश्व मानचित्र के निरीक्षण से यह स्पष्ट होता है कि ज्वालामुखीय प्रभाव अधिकांशतः उन भौगोलिक क्षेत्रों से सम्बद्ध हैं, जो भूगर्भीय दृष्टि से अस्थिर माने जाते हैं। ये अस्थिर क्षेत्र प्रायः नवीन वलित पर्वत श्रृंखलाओं वाले होते हैं, जो महाद्वीपों के मध्य पूर्व-पश्चिम दिशा में या फिर महाद्वीपों के पश्चिमी तटीय क्षेत्रों में उत्तर-दक्षिण दिशा में फैले होते हैं। हालांकि, विश्व के सीमित क्षेत्रों में ही सक्रिय ज्वालामुखी विद्यमान हैं।

परिप्रशांत महासागरीय पट्टी (Circum-Pacific Oceanic Belt)
परिप्रशांत महासागरीय पट्टी ज्वालामुखीय सक्रियता की दृष्टि से सबसे महत्त्वपूर्ण क्षेत्र है, जिसे सामान्यतः प्रशांत महासागरीय पट्टी के नाम से जाना जाता है। इस ज्वालामुखीय श्रेणी को ‘प्रशांत अग्निवृत्त’ (Fire Ring of the Pacific) कहा जाता है। इस विस्तृत क्षेत्र में सक्रिय, सुप्त एवं शांत तीनों प्रकार के ज्वालामुखी पाये जाते हैं। इस क्षेत्र में जापान का ‘फ्यूज़ीयामा’, फिलीपीन का ‘माउंट ताल’, संयुक्त राज्य अमेरिका का ‘शहस्ता’, ‘रेनियर’, ‘हुड’, तथा मध्य अमेरिका का ‘चिम्बरेजो’ जैसे लगभग 500 सक्रिय ज्वालामुखी स्थित हैं।
यह पट्टी दक्षिण अमेरिका के एंडीज पर्वतों से प्रारंभ होकर उत्तरी अमेरिका के रॉकी पर्वत श्रृंखला के साथ अलास्का तक विस्तृत है। यहाँ से यह एक वक्राकार पथ बनाते हुए कमचटका, क्युराइल द्वीप, जापान, फिलीपाइन्स, सेलबीस, न्युगिनी, सोलोमन द्वीप, तथा न्यू कैलेडोनिया होते हुए न्यूज़ीलैंड तक पहुँची है। इस विस्तृत एवं जटिल क्षेत्र के अतिरिक्त, विश्व के छः अन्य प्रमुख क्षेत्रों में भी ज्वालामुखीय गतिविधियाँ दृष्टिगोचर होती हैं।
इनमें प्रशांत महासागर के विविध द्वीपीय क्षेत्र, जैसे हवाई द्वीप, गलापागोस, तथा जान फर्नान्डीस द्वीप सम्मिलित हैं। इसके अलावा, अरब प्रायद्वीप, मेडागास्कर, तथा अफ्रीका के दरार घाटी क्षेत्र में भी महत्त्वपूर्ण ज्वालामुखीय क्रियाएँ परिलक्षित होती हैं।
हिंद महासागरीय पेटी (Indian Ocean Belt)
हिंद महासागरीय क्षेत्रीय पट्टी में प्रमुख रूप से टिमोर, जावा, बाली, तथा सुमात्रा जैसे द्वीपों को सम्मिलित किया जाता है।
मध्य महाद्वीपीय पेटी (Mid Continental Belt)
• इस पट्टी को प्रायः भूमध्यसागरीय पट्टी के नाम से जाना जाता है। यह पट्टी मूलतः अल्पाइन-हिमालय पर्वतीय श्रृंखला के साथ संलग्न रहती है। भूमध्यसागरीय क्षेत्र में विद्यमान ज्वालामुखीय सक्रियता का प्रत्यक्ष संबंध इसी क्षेत्रीय पट्टी से होता है। स्ट्राम्बोली, विसुवियस, एटना, तथा एजियन सागर के समीप स्थित ज्वालामुखी इस पट्टी के महत्त्वपूर्ण घटक हैं। भारत स्थित बैरन द्वीप का ज्वालामुखी भी इसी भूगर्भीय क्षेत्र का हिस्सा है।
• इस क्षेत्रीय पट्टी का संबंध मध्य अटलांटिक मेखला से भी सुदृढ़ है। यह मेखला आइसलैंड के हेक्ला पर्वत से आरंभ होकर कनारी द्वीपों तक विस्तृत है। कनारी द्वीपों के पास पहुँचने पर यह मेखला दो उपशाखाओं में विभक्त हो जाती है—एक शाखा अटलांटिक महासागर के पथ से होती हुई पश्चिमी द्वीपसमूह की ओर अग्रसर होती है, जबकि दूसरी शाखा पुनः मध्य महाद्वीपीय पट्टी से संयोजित हो जाती है।
• प्लेट विवर्तनिकी के सैद्धांतिक ढाँचे के अंतर्गत ज्वालामुखी पर्वतों का वैश्विक वितरण लगभग 80% विनाशात्मक प्लेट सीमाओं, तथा 15% रचनात्मक प्लेट सीमाओं से संबद्ध पाया गया है।
• इसके अतिरिक्त कुछ विखंडित क्षेत्र, जैसे आइसलैंड, भी ज्वालामुखीय गतिविधियों के विशिष्ट स्थल हैं।
इन भूखंडीय सीमाओं से इतर अनेक शांत ज्वालामुखीय क्षेत्र भी विद्यमान हैं, जो भू-आकृतिक दृष्टिकोण से अत्यंत महत्त्वपूर्ण हैं। इनमें प्रमुख रूप से एरिज़ोना, न्यू मैक्सिको, नेवादा, ऊटा, फ्रांस का ऑवर्जिन क्षेत्र, जर्मनी का इफ्लि क्षेत्र, तथा फैरो द्वीप सम्मिलित हैं।
प्लेट विवर्तनिकी और ज्वालामुखी कैसे संबंधित हैं? (Plate Tectonic Theory of Volcanism)

पृथ्वी की सतह पर ज्वालामुखीय प्रक्रियाओं से प्रभावित क्षेत्रों के वितरण की विवेचना करने पर यह स्पष्ट परिलक्षित होता है कि वैश्विक स्तर पर अधिकांश सक्रिय ज्वालामुखी विभिन्न प्लेट सीमाओं से घनिष्ठ रूप से जुड़े हुए हैं।
अपसारी प्लेट सीमांत पर जब प्लेटों के पारस्परिक विछेदन से भ्रंश घाटियों की चौड़ाई में वृद्धि होती है और साथ ही दाब में गिरावट आती है, तो यह स्थिति दुर्बलमंडल में पेरिडोटाइट के आंशिक गलन को उत्प्रेरित करती है, जिससे क्षारीय मैग्मा का निर्माण होता है। यही मैग्मा जब भ्रंश घाटियों के माध्यम से ऊपर की ओर संचरित होता है, तो इससे शांत दरार प्रकार की ज्वालामुखीय प्रक्रिया आरंभ होती है। मध्य अटलांटिक कटक, प्रशांत महासागर, तथा हिंद महासागर के कटकों पर होने वाली ज्वालामुखीय गतिविधियाँ इसी अपसारी प्लेट गति से संबंधित हैं।
अभिसारी प्लेट सीमांत पर, जहाँ महासागरीय प्लेट मुड़कर गहराई में क्षेपित होती है, वहाँ बढ़े हुए तापमान के कारण महासागरीय प्लेट का क्रस्ट आंशिक रूप से गलनशील हो जाता है, जिससे मैग्मा का निर्माण होता है। यह मैग्मा जब पृथ्वी की भीतरी परतों को भेदते हुए सतह तक पहुँचता है, तो वहाँ विस्फोटक ज्वालामुखीय प्रक्रिया उत्पन्न होती है। परिप्रशांत क्षेत्र में देखी जाने वाली ज्वालामुखीय गतिविधि इसी अभिसारी प्लेट सीमांत से जुड़ी हुई है।
वहीं, प्लेट सीमाओं से दूर जिन क्षेत्रों में ज्वालामुखीय गतिविधि देखी जाती है, वे अंतः प्लेट ज्वालामुखीय क्षेत्र माने जाते हैं। इनका संबंध विशेष रूप से तप्त स्थलों से होता है। यह स्थल वे क्षेत्र हैं, जहाँ रेडियोधर्मी तत्वों के विघटन के परिणामस्वरूप तापमान में अत्यधिक वृद्धि होती है, जिससे उष्ण व गलित मैग्मा का निर्माण होता है। यह मैग्मा जब पृथ्वी की भीतरी संरचनाओं को भेदता है, तो उससे ज्वालामुखीय उद्गार होता है। इस प्रकार की ज्वालामुखीयता से ज्वालामुखीय रेखाएँ एवं ज्वालामुखीय गुच्छ निर्मित होते हैं। इसका प्रमुख उदाहरण हवाई द्वीप समूह में देखा जा सकता है।
ज्वालामुखियों का वर्गीकरण (Classification of Volcanoes)
जिन भौगोलिक क्षेत्रों में ज्वालामुखीय गतिविधि सक्रिय होती है, वहाँ उद्गार की प्रकृति एवं कालावधि में उल्लेखनीय अंतर देखा जाता है। कुछ ज्वालामुखी अत्यंत विस्फोटक प्रकृति के होते हैं, जबकि कुछ अन्य अपेक्षाकृत शांत प्रक्रिया के माध्यम से मैग्मा का निष्कासन करते हैं। वहीं, कुछ ज्वालामुखी नियत अंतराल पर निष्क्रिय हो जाते हैं और पुनः सक्रिय हो सकते हैं, जबकि अन्य स्थायी रूप से निष्क्रिय हो जाते हैं। अतः यह प्रतिपादित किया जा सकता है कि ज्वालामुखियों के प्रकार के वर्गीकरण में उनकी उद्गार प्रक्रिया तथा क्रियाशीलता को मूल आधार के रूप में स्वीकार किया जाना चाहिए।
ज्वालामुखी के उद्गार की अवधि के अनुसार वर्गीकरण (Classification on the basis of duration of Volcanic Eruption)
इस आधार पर ज्वालामुखियों को तीन प्रमुख वर्गों में वर्गीकृत किया जा सकता है—

सक्रिय ज्वालामुखी (Active Volcano) किसे कहते है?
वर्तमान में वैश्विक स्तर पर लगभग 500 ज्वालामुखी ऐसे हैं जो सक्रिय अवस्था में पाए जाते हैं। जिन ज्वालामुखियों से गैस, ठोस कण, तथा तरल मैग्मा समय-समय पर सतह पर निष्कासित होता है, उन्हें सक्रिय ज्वालामुखी की श्रेणी में रखा जाता है। इस प्रकार के ज्वालामुखियों में इटली स्थित एटना एवं लीपारी द्वीप का स्ट्रांबोली विशेष रूप से महत्त्वपूर्ण उदाहरण माने जाते हैं।
सुषुप्त ज्वालामुखी (Dormant Volcano) किसे कहते है?
कुछ ज्वालामुखी ऐसे होते हैं जो एक बार उद्गार के पश्चात दीर्घकालीन शांत अवस्था में चले जाते हैं, किंतु पुनः उनमें ज्वालामुखीय लक्षणों का प्रादुर्भाव हो सकता है। इस प्रकार के ज्वालामुखियों की उद्गार पुनरावृत्ति तथा प्राकृतिक प्रवृत्तियों के विषय में पूर्णतः निश्चित जानकारी प्राप्त नहीं हो पाती, जिससे इनके व्यवहार की पूर्वानुमान-योग्यता सीमित रहती है। विसुवियस एवं क्राकाटोवा इस श्रेणी के प्रमुख उदाहरण हैं।


मृत या शांत ज्वालामुखी (Dead or Extinct Volcano) किसे कहते है?
जब किसी ज्वालामुखी की उद्गार क्रिया पूर्णतः समाप्त हो जाती है और पुनः उसकी सक्रियता की संभावना नगण्य हो जाती है, तब उसे मृत ज्वालामुखी की श्रेणी में रखा जाता है। ईरान के कोह सुल्तान तथा डमवंड को इस श्रेणी के उल्लेखनीय उदाहरण माना जाता है। इसी प्रकार, म्यांमार का माउंट पोपा भी मृत ज्वालामुखी का एक महत्त्वपूर्ण उदाहरण प्रस्तुत करता है।
ज्वालामुखियों के उद्गार के आधर पर वर्गीकरण (Classification of Volcanoes on the basis of Eruption)
ज्वालामुखीय संरचनाओं का वर्गीकरण उनके उद्गार की प्रवृत्ति एवं स्वरूप को आधार मानकर भी किया जाता है। इनका उद्गार सामान्यतः दो विशिष्ट रूपों में परिलक्षित होता है—
- जब उद्गार एक एकल छिद्र अथवा संकरी नलिका के माध्यम से होता है, तो उसे केंद्रीय उद्गार कहा जाता है।
- वहीं, जब लावा किसी विस्तृत दरार के सहारे शांतिपूर्वक प्रवाहित होता है, तब उसे दरारी उद्गार के रूप में वर्गीकृत किया जाता है।
केंद्रीय उद्गार के आधार पर ज्वालामुखियों का वर्गीकरण (Classification of Volcanoes on the basis of Central Eruption)
केंद्रीय उद्गार की प्रकृति के आधार पर ज्वालामुखियों को चार विशिष्ट श्रेणियों में विभाजित किया जाता है—
स्ट्राम्बोलियन प्रकार के ज्वालामुखी (Strombolian Type) क्या है?
इस वर्ग के ज्वालामुखीय उद्गार का नामकरण सिसिली द्वीप के उत्तर में स्थित स्ट्रोम्बोली ज्वालामुखी के आधार पर किया गया है। यद्यपि इस प्रकार के ज्वालामुखियों से निष्कासित लावा अपेक्षाकृत द्रवित होता है, परंतु यह हवाई प्रकार के लावे की तुलना में कुछ कम तरल होता है। इस विशेषता के कारण क्रेटर से गैसों के साधारण विस्फोट, लावा के साथ ही बाहर निकलते हैं। इसके अतिरिक्त, ज्वालामुखीय राख एवं बम भी इसी समय निष्कासित होते हैं, जो पुनः क्रेटर में गिर जाते हैं। ऐसे ज्वालामुखियों में उद्गार की प्रक्रिया प्रायः सतत बनी रहती है, किंतु यह स्थिति हमेशा नहीं पाई जाती।


वुलकेनियन प्रकार के ज्वालामुखी (Vulcanian Type Volcano) को बताइये
इस श्रेणी के ज्वालामुखी का नामकरण भी सिसिली क्षेत्र में स्ट्राम्बोली ज्वालामुखी के समीप अवस्थित एक प्रसिद्ध ज्वालामुखी स्थल के नाम पर किया गया है। इस प्रकार के ज्वालामुखी से निकलने वाला लावा अत्यंत लसदार तथा सघन चिपचिपे स्वभाव का होता है, जो दो अलग-अलग उद्गारों के मध्य छिद्र को अवरुद्ध कर देता है। इस तरह गैसें उस अवरुद्ध भाग के नीचे संचित होती जाती हैं और जब उनका दबाव अत्यधिक बढ़ जाता है, तो वे उस अवरोध को तीव्र विस्फोट के साथ विस्फारित कर धरातल पर प्रकट होती हैं। इस प्रकार के उद्गार के दौरान आकाश में काले धुएँ के घने बादल छा जाते हैं, जिससे उत्पन्न आकृति फूलदार गोभी के समान प्रतीत होती है, जो इसे स्ट्राम्बोलियन प्रकार से विशिष्ट रूप में भिन्न बनाती है।
वेसुवियस प्रकार के ज्वालामुखी (Vesuvius Type Volcano) क्या है?
इस श्रेणी के ज्वालामुखीय विस्फोट भी तीव्र ऊर्जा के साथ धरातल पर उभरते हैं। इनसे निकलने वाला ज्वालामुखीय पदार्थ अत्यंत ऊँचाई तक आकाश में पहुँचता है, जिसके परिणामस्वरूप लंबे समय तक राख की वर्षा होती रहती है। इस प्रकार का प्रसिद्ध विस्फोट 79 ईस्वी में वेसुवियस पर्वत पर हुआ था, जिसका प्रारंभिक अध्ययन विख्यात विद्वान प्लीनी द्वारा किया गया था; इस कारण इसे प्लिनियन प्रकार का ज्वालामुखी भी कहा जाता है।
ज्वालामुखीय संरचनाओं का एक प्रमुख वर्गीकरण उनके द्वारा उत्सर्जित पदार्थों के आधार पर भी संपन्न होता है, जिसके अंतर्गत बैसाल्टिक गुम्बद, बैसाल्टिक शंकु, शील्ड ज्वालामुखी, राख शंकु, सिंडर कोन, तथा संयुक्त या स्ट्रेटो ज्वालामुखी सम्मिलित होते हैं। यदि इस आधारभूत वर्गीकरण को ध्यान में रखकर वैश्विक ज्वालामुखियों का विश्लेषण किया जाए, तो अधिकांश ज्वालामुखी संयुक्त एवं स्ट्रेटो श्रेणियों में सम्मिलित पाए जाते हैं।


पीलियन प्रकार के ज्वालामुखी (Pelean Type Volcano)
इस वर्ग के ज्वालामुखीय विस्फोट अत्यंत विनाशकारी और तीव्र प्रकृति के होते हैं। इन्हें सबसे भयंकर श्रेणी के ज्वालामुखी माना जाता है। इस प्रकार के उद्गार से निष्कासित लावा अत्यधिक चिपचिपा तथा गाढ़ा होता है, जिसमें विखंडित ठोस पदार्थों की मात्रा भी अत्यधिक होती है। जब इस प्रकार का विस्फोट घटित होता है, तो इसके प्रभाव से पूर्व निर्मित ज्वालामुखीय शंकु पूरी तरह नष्ट हो जाते हैं तथा वायुमंडल में उड़ जाते हैं।
हवाई प्रकार के ज्वालामुखी (Hawaiian Type of Volcano)
इस श्रेणी के ज्वालामुखी शांत प्रकृति के उद्गार के लिए जाने जाते हैं, जिनमें विस्फोटक गतिविधि नगण्य होती है। चूँकि यह प्रकार विशेष रूप से हवाई द्वीपसमूह में देखा जाता है, अतः इसे हवाई प्रकार के नाम से जाना जाता है। इसमें उत्सर्जित लावा अत्यधिक द्रवित होता है, जो दूर-दूर तक फैलता है। इसके अतिरिक्त, इनमें गैसों का दबाव कम होने के कारण वे धीरे-धीरे लावा से अलग होती हैं, जिससे विस्फोट की प्रक्रिया नगण्य हो जाती है।

दरार उद्गार वाले ज्वालामुखी (Fissure Eruption Volcano)
जब लावा के उद्गार के समय उसमें गैसों की मात्रा अत्यल्प होती है, तो वह अत्यंत तरल एवं शांत प्रवाह में धरातल पर फैलता है और वहाँ जम जाता है। समय के साथ जब इस प्रकार का लावा जमकर मोटी परत का निर्माण करता है, तो उसके ठोस होने के पश्चात लावा मैदान एवं पठारी भूआकृतियाँ निर्मित होती हैं। हवाई भाषा के अनुसार, लावा के इस प्रवाह को दो श्रेणियों में विभाजित किया गया है—
(i) पहोयहोय – यह लावा अत्यधिक तरल और समतल प्रवाहित होता है, जो चादरनुमा संरचना बनाता है; इसे ‘लसदार लावा’ भी कहा जाता है।
(ii) आह-आह लावा – यह लावा कम तरल तथा अधिक गाढ़ा और सघन होता है, जो खंडित पिंडों में प्रवाहित होता है; इसे ‘ब्लॉक लावा’ भी कहा जाता है।
ज्वालामुखीयता एवं भूकंप (Volcanism and Earthquake)
पृथ्वी की सतही संरचना पर ज्वालामुखीय गतिविधि एवं भूकंपीय घटनाओं के मध्य एक विशिष्ट प्रकार का परस्पर संबंध विद्यमान होता है, क्योंकि ज्वालामुखीय क्रियाओं के दौरान भूकंपीय तरंगों का सृजन भी होता है। जब ज्वालामुखीय प्रक्रियाओं के अंतर्गत मैग्मा पृथ्वी की विभिन्न परतों को भेदते हुए ऊपर की दिशा में गतिशील होता है, तब इस प्रवाह के कारण ठोस परतों में तनाव उत्पन्न होकर दरारें विकसित होती हैं, जिससे भूकंपीय तरंगें निर्मित होती हैं।
ज्वालामुखी से निर्मित स्थलाकृतियाँ (Volcanic Landforms) कौन-कौन सी है?
ज्वालामुखीय प्रक्रियाओं के परिणामस्वरूप पृथ्वी की सतह पर विलक्षण भू-आकृतियों का निर्माण होता है। इनसे उत्पन्न स्थलरूपों के विश्लेषण से ज्वालामुखी की उत्पत्ति एवं प्रकृति के संबंध में मूल्यवान जानकारी प्राप्त होती है, क्योंकि ज्वालामुखीय निर्माण के कारणों और उनसे उत्पन्न स्थलाकृतियों के मध्य गहरा पारस्परिक संबंध होता है।
ज्वालामुखीय उद्गार के साथ-साथ जो पदार्थ उत्सर्जित होते हैं, उनमें लावा, चट्टानी धूलकण, गैसें, वाष्प आदि सम्मिलित होते हैं, जो पृथ्वी की बाहरी सतह पर विविध स्थलरूपों का सृजन करते हैं। साथ ही, जब मैग्मा उच्च दाब की अनुपस्थिति में बाहर नहीं निकल पाता, तो यह पृथ्वी के अंदरूनी भाग में ही विशिष्ट आकारों का निर्माण करता है। बाद में, जब ऊपरी परत की चट्टानें अपरदन की प्रक्रिया द्वारा हट जाती हैं, तब ये आंतरिक स्थलरूप सतह पर प्रकट होते हैं। अतः, ज्वालामुखीय क्रिया के कारण पृथ्वी की सतह तथा आंतरिक भाग, दोनों में महत्वपूर्ण स्थलाकृतियाँ विकसित होती हैं।
ज्वालामुखी से निर्मित स्थलरूपों को निम्नलिखित वर्गों में विभाजित किया जा सकता है–
- बाह्य स्थलाकृतियाँ (Extrusive Landforms)
(अ) उन्नत स्थलरूप
(i) पंख शंकु या सिंडर शंकु (Cinder Cone)
(ii) मिश्रित शंकु (Composite Cone)
(iii) परिपोषित शंकु (Parasitic Cone)
(iv) स्पैटर शंकु (Spatter Cone)
(v) पैठिक लावा शंकु (Basic Lava Cone)
(vi) अम्लीय लावा शंकु (Acidic Lava Cone)
(vii) गुम्बद एवं टीले (Domes & Mounds)
(viii) लावा डाट (Lava Plug)
(a) डाट गुम्बद (Plug Dome)
(b) बाह्य गुम्बद (Exogeneous Dome)
(c) आंतरिक गुम्बद (Endogeneous Dome)
(ix) लावा, सिंडर एवं राख का मैदान (Lava, Cinder & Ash Plain)
(x) पंक वाह (Mud Flows)
(xi) कंगार एवं अर्ग (Cliff and Erg) - (ब) अवसन्न स्थलरूप
- (i) लावा पठार (Lava Plateau)
- (ii) लावा मैदान (Lava Plain)
- (iii) मेसा एवं ब्यूटे (Mesa & Butte – Lava Capped)

केंद्रीय उद्गार द्वारा निर्मित स्थल रूप (ऊँचे उठे हुए स्थलरूप) (Landform Created by Central Eruption)

राख शंकु (Ash Cone) किसे कहते है?
विस्फोटक प्रकृति के ज्वालामुखियों से उत्पन्न होने वाले राख शंकु अपेक्षाकृत छोटे, ऊँचाई पर स्थित स्थलरूप होते हैं, जो ज्वालामुखीय उद्गार के दौरान निकले ठोस विखंडित तत्वों और राख के संचित होने से निर्मित होते हैं। उद्गार प्रक्रिया में ज्वालामुखीय राख और विखंडित पदार्थ मुख्य केंद्र के समीप एकत्र होने लगते हैं, जो समय के साथ केंद्र के चारों ओर परत दर परत जमकर शंकु का आकार ग्रहण कर लेते हैं। इस प्रकार के शंकुओं में तरल लावा की अनुपस्थिति होती है। इनका ढाल भीतर की दिशा में निम्नाभिमुख होता है और राख के जमाव का कोण सामान्यतः 30° से 45° के मध्य होता है। इटली के नेपल्स के पश्चिम में स्थित नूवो पर्वत (Mt. Nuvo), मेक्सिको का जोरूला (Jorulla), सेल्वाडोर का इसाल्को (Isalco) तथा फिलीपींस के लूजन द्वीप का केमीजुएन इस प्रकार के प्रमुख उदाहरण हैं।
मिश्रित शंकु (Composite Cone) क्या है?
मिश्रित या संयुक्त शंकु उस अवस्था में निर्मित होते हैं जब लावा और राख की परतें एक के ऊपर एक क्रमशः जमा होती जाती हैं, जिससे शंकु का आकार विकसित होता है। इन शंकुओं का ढाल सामान्यतः 35° से 40° के मध्य होता है। संयुक्त राज्य अमेरिका के शहस्ता (Shasta), हुड (Hood), रेनियर (Rainier), मेक्सिको का पोपोकाटेपेटल (Popocatépetl), फिलीपींस का मेयान (Mayon) तथा जापान का प्रसिद्ध फ्यूजीयामा (Fujiyama) इन महत्वपूर्ण मिश्रित शंकुओं में गिने जाते हैं।
परिपोषित शंकु (Parasitic Cone)
जब मुख्य ज्वालामुखीय शंकु अत्यधिक विस्तारित हो जाता है और उसका उद्गार मुख्य क्रेटर के बजाय पार्श्व स्थित दरारों अथवा नवीन उद्घाटन केंद्रों से प्रारंभ होता है, तो मुख्य शंकु की ढाल पर छोटे-छोटे सहायक शंकु उत्पन्न होने लगते हैं। इन सहायक शंकुओं को परिपोषित शंकु की संज्ञा दी जाती है।
पैठिक लावा शंकु (Basic Lava Cone)
जब ज्वालामुखीय क्रिया में पैठिक प्रकृति के लावा का प्रवाह केंद्रीय उद्गार स्थल से होता है, तो वह लावा प्रायः कम घनत्व वाला, पतला तथा सिलिका में न्यून होता है। यह लावा बहुत दूर तक प्रवाहित होकर अपेक्षाकृत विस्तृत, किंतु कम ऊँचाई वाले शंकुओं का निर्माण करता है। इनका आकृति-गठन ढाल जैसी होती है, जिस कारण इन्हें शील्ड शंकु भी कहा जाता है। इनका ढाल कोण सामान्यतः 6° से 8° के बीच होता है। हवाई द्वीपसमूह में इनका प्रमुख विकास देखा जाता है।
अम्लीय लावा शंकु (Acidic Lava Cone)
जब ज्वालामुखीय उद्गार के दौरान अत्यधिक चिपचिपे और सिलिका-समृद्ध लावा का निष्कासन होता है, तो वह शीघ्रता से ठोस अवस्था ग्रहण कर लेता है, जिससे उसे दूरी तक प्रवाहित होने का अवसर नहीं मिल पाता। इसके परिणामस्वरूप, ऐसे शंकुओं की ढाल तीव्र हो जाती है। स्ट्राम्बोली (Stromboli) इस श्रेणी का एक उल्लेखनीय उदाहरण है।
लावा और राख निर्मित मैदान (Lava and Ash Made Plain)
कुछ अत्यंत विस्फोटक ज्वालामुखी अपने उद्गार के दौरान विस्तृत क्षेत्र में राख, धूल और चट्टानी कणों को फैला देते हैं। यह सामग्री हवा द्वारा एकत्र होकर समतल मैदानों के रूप में परिवर्तित हो जाती है, जिन्हें राख-मैदान कहा जाता है।
नीचे धँसे हुए स्थलरूप
क्रेटर (Crater)
ज्वालामुखीय नली के शीर्ष पर स्थित अवसादी गड्ढे को क्रेटर की संज्ञा दी जाती है। इसका स्वरूप प्रायः कीप के आकार का होता है, जो ज्वालामुखी उद्गार की आवृत्ति और तीव्रता के साथ क्रमशः विस्तृत होता जाता है। इनका व्यास कुछ फीट से लेकर कई मील तक हो सकता है। अलास्का स्थित एक प्रमुख क्रेटर का व्यास लगभग 6 मील है, जबकि इसकी दीवारें 3000 फीट की ऊँचाई तक पहुंचती हैं।
अंतर्वेधन से बनी स्थलाकृतियाँ (Landforms due to Intrusion) कौन कौन सी है?
जब पृथ्वी के अंतर्गत स्थित गर्म लावा ऊपरी पर्पटी को भेदकर ऊपर उठने का प्रयास करता है, परंतु पूर्णतः सतह पर न पहुँच पाकर पर्पटी की चट्टानों में ही समाविष्ट रह जाता है, तब वह लावा धीरे-धीरे ठंडा होकर ठोस रूप ले लेता है। भौमिकी अपरदन की प्रक्रियाओं के पश्चात यह अंतर्वेधित लावा विभिन्न विशिष्ट स्थलरूपों के रूप में सतह पर प्रकट होता है।
डाइक (Dyke) क्या है ?
डाइक एक सामान्य किंतु महत्त्वपूर्ण अंतर्वेधनात्मक संरचना है। इसमें ज्वालामुखीय गतिविधि चट्टानों को लम्बवत् दिशा में तोड़ देती है, जिससे लावा उन दरारों को भर देता है। जब आसपास की अपेक्षाकृत नरम चट्टानों का अपरदन हो जाता है, तो डाइक दीवारनुमा कठोर लावा संरचना के रूप में मीलों तक विस्तृत दिखाई देता है।


सिल (Sill) किसे कहते है?
जब लावा समानांतर या क्षैतिज चट्टानी जोड़ों के बीच संचित होकर ठोस हो जाता है, तो इससे जो क्षैतिज या नत सतही संरचना निर्मित होती है, उसे सिल कहा जाता है। कुछ अवस्थाओं में, लावा कई स्तरों को भेदते हुए असामान्य संचलन के कारण उत्पन्न गौण संरचनाओं को जन्म देता है। सिल की मोटाई कुछ इंच से लेकर कई फीट तक हो सकती है। पतली सिल को विशेषतः ‘शीट’ कहा जाता है।
लैकोलिथ (Laccolith)
जब लावा की अंतर्वेधन प्रक्रिया परतदार चट्टानों के मध्य होती है और इसके प्रभाव से ऊपरी चट्टानी परतें गुंबदाकार रूप में ऊपर उठ जाती हैं, तब इस रूप को लैकोलिथ कहा जाता है। यह एक गंभीर भूगर्भिक संरचना है जो स्थानीय परतों में महत्त्वपूर्ण विकृति उत्पन्न करती है।


बैथोलिथ (Batholith)
बैथोलिथ एक विशालकाय और गुंबदाकार अंतर्वेधनात्मक संरचना है, जिसकी सीमाएँ प्रायः स्पष्ट नहीं होतीं और न ही लावा के ऊपर की ओर आने का कोई प्रत्यक्ष मार्ग दिखाई देता है। यह सभी आभ्यंतर ज्वालामुखीय स्थलरूपों में सबसे वृहद संरचना होती है। यह केवल ऊपरी चट्टानों के अपरदन के पश्चात ही दिखाई देता है, जबकि किनारे चारों ओर की चट्टानों द्वारा ढँके रहते हैं। सामान्यतः यह संरचना ग्रेनाइट चट्टानों से निर्मित होती है। बैथोलिथ का निर्माण अधिकतर पर्वतीय क्षेत्रों के आधार में होता है, जो ज्वालामुखीय क्रियाओं से प्रभावित होते हैं।
फैकोलिथ (Phacolith)
मोड़दार पर्वतीय प्रदेशों में, जब लावा का प्रवाह होता है तो वह वक्रित परतों की अपनति और अभिनति में जम जाता है। इस प्रकार से उत्पन्न भू-आकृति को फैकोलिथ की संज्ञा दी जाती है। यह संरचना भू-संरचनात्मक जटिलताओं के अध्ययन में अत्यंत महत्वपूर्ण होती है।
लोपोलिथ (Lopolith)
जब लावा का निष्कासन किसी नतोदर या तश्तरीनुमा परतदार बेसिन में होता है, तो उसका जमाव परतों के मध्य नीचे की ओर अवनत आकृति में होता है। इस प्रकार की भू-आकृति को लोपोलिथ कहा जाता है। यह संरचना परतदार चट्टानों की स्थिति और लावा के प्रवाह के अनुसार विकसित होती है।