केंद्रीय वाणिज्य मंत्री द्वारा द्वारका में ISA भवन का उद्घाटन
समाचार में क्यों?
पेटेंट आवेदनों की संख्या में पिछले पाँच वर्षों में तेज़ी से वृद्धि हुई है। भारतीय आविष्कारकों, स्टार्टअप्स और उद्यमियों ने वैश्विक प्रतिस्पर्धा में हिस्सा लेने के लिए नवाचार की ओर रुख तेज़ किया है। ऐसे में ISA (International Searching Authority) का कार्य होता है – किसी पेटेंट आवेदक के दस्तावेजों के प्राथमिक अन्वेषण (search) तथा प्रासंगिक ‘prior art’ की पहचान करना। मौजूदा समय में भारत में यह सेवा सीमित क्षमता में उपलब्ध थी, जिसके कारण पेटेंट खोज में देरी होती थी। नए ISA भवन के माध्यम से भारत अब विश्व बौद्धिक संपदा संगठन (WIPO) द्वारा मान्यता प्राप्त ISA केंद्र के रूप में उभर रहा है। इससे:
- पेटेंट आवेदनों की जांच और मान्यता प्रक्रिया तीव्र होगी।
- आविष्कारकों को अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर शीघ्र ‘search report’ और ‘written opinion’ प्राप्त होंगे।
- भारतीय पेटेंट कार्यालय पर बोझ कम होगा, साथ ही कर-मुक्त अंकेक्षण क्षमताएँ बढ़ेंगी।
परीक्षा दृष्टिकोण से महत्ता
- संसदीय एवं संवैधानिक संदर्भ: पेटेंट कानून भारत का विषय है, जो संसद द्वारा संशोधित ‘पेटेंट अधिनियम, 1970’ एवं बाद में हुए विभिन्न नियमावली संशोधनों से संचालित होता है। UPSC प्रीलिम्स में ट्रेड एवं इंटेलेक्चुअल प्रॉपर्टी के अंतर्गत इस अधिनियाच को तथा मेन्स में नीति-निर्माण प्रक्रिया में सुधार हेतु उठाए जा रहे कदमों को समझना अनिवार्य है।
- आर्थिक नीतियाँ और नवाचार: पेटेंट व्यवस्था सीधे तौर पर भारत की ‘आत्मनिर्भर भारत’ पहल, ‘स्टार्टअप इंडिया’ तथा ‘मेक इन इंडिया’ के उद्देश्यों से जुड़ी है। केंद्र सरकार का यह कदम विदेशी निवेश को आकर्षित करने, उच्च-स्तरीय अनुसंधान को बढ़ावा देने और घरेलू उद्योगों की प्रतिस्पर्धा क्षमता को सुदृढ़ करने के प्रयासों का हिस्सा है।
- अंतर्राष्ट्रीय संस्थाओं में भागीदारी: WIPO की ISA संरचना में शामिल होना भारत को वैश्विक बौद्धिक संपदा व्यवस्था के केंद्र में लाएगा। इससे मेन्स में ‘भारत का बहुपक्षीय मंचों में योगदान’ जैसे टॉपिक्स पर प्रश्न आ सकते हैं।
प्रमुख बिंदु
- ISA की भूमिका: प्राथमिक खोज रिपोर्ट एवं लिखित मत (written opinion) तैयार करना।
- IPO का विस्तार: नई सुविधाएँ, डिजिटल सर्च इंजन, विशेषज्ञ पैनल और रिमोट एक्सेस कार्यशालाएँ।
- पेटेंट आवेदन की प्रक्रिया: ग्रांट से पहले ‘search report’ और ‘written opinion’ की महत्ता।
- नीति संबंधी सुधार: ट्रांसपेरेंसी, समयबद्धता, फीस संरचना में बदलाव।
- आर्थिक और सामाजिक प्रभाव: नवाचार के लिए इंक्यूबेशन, व्यापारिक अवसर, रोजगार सृजन।
महत्वपूर्ण वाक्यांश एवं तथ्य
- भारत में पेटेंट आवेदनों का वार्षिक वृद्धि दर पिछले तीन वर्षों में औसतन 18% रही है।
- ISA भवन में नियुक्त 25 विशेषज्ञ पेटेंट परीक्षक पहले से दोगुने होंगे, जिससे प्रतिवर्ष 50,000 अतिरिक्त खोज रिपोर्ट तैयार की जा सकेंगी।
- IPO ने नई डिजिटल लाइब्रेरी में 120 मिलियन दस्तावेजों को इंडेक्स किया है, जो वैश्विक ‘prior art’ स्रोतों का अभिगमन साधन बनेगी।
निष्कर्ष
ISA भवन का उद्घाटन भारत के बौद्धिक संपदा पारिस्थितिक तंत्र में मील का पत्थर साबित होगा। इससे न केवल पेटेंट प्रक्रिया में गति आएगी, बल्कि देश में अनुसंधान एवं विकास (R&D) को भी नई ऊँचाइयाँ हासिल होंगी।
दक्षिणपंथी उग्रवाद की जड़ों को खत्म करना
समाचार में क्यों?
14 अगस्त 2025 को दृष्टि IAS ने अपनी मासिक करंट अफेयर्स श्रृंखला में इस विषय को प्रमुखता से उजागर किया क्योंकि केंद्रीय गृह मंत्रालय ने पहली बार नक्सल प्रभावित जिलों के पुनर्गठन का प्रस्ताव पारित किया है। प्रस्ताव के अनुसार
- जिन जिलों में हाल के तीन वर्षों में किसी बड़े हमले की घटना नहीं हुई, उन्हें “स्थिर” श्रेणी में रेखांकित किया जाएगा।
- “आक्रामक” श्रेणी की निगरानी तकनीकी संवर्द्धन, सिविल–पुलिस सहयोग एवं विकास परियोजनाओं के प्रभाव मूल्यांकन से की जाएगी।
- केंद्र सरकार ने ₹3,000 करोड़ का विशेष कोष आवंटित किया है, जिसका उपयोग सड़क, शिक्षा, स्वास्थ्य एवं महिला स्व-सहायता समूहों के समर्थन में किया जाएगा।
परीक्षा दृष्टिकोण से महत्ता
यह विषय UPSC के कई खंडों से सीधे जुड़ा है:
- भारतीय गृह नीति: गृह मंत्रालय द्वारा विकसित ‘एकीकृत क्षेत्र विकास मॉडल’ और विशेष वित्त पोषण संरचनाएँ सिविल–सेना समन्वय के दृष्टिकोण से महत्वपूर्ण हैं। मेन्स के प्रश्न “किस प्रकार के विकास मॉडल असहिष्णु उग्रवाद प्रकोप को समाप्त कर सकते हैं?” के उत्तर में इन पहलों का अध्ययन जरूरी है।
- संघ–राज्य संबंध: राज्यों के मुख्यमंत्री और केन्द्र के बीच संसाधन आवंटन व निगरानी ढांचे का संतुलन संघीय संरचना की सीमाएँ एवं जिम्मेदारियाँ समझाने के लिए प्रभावी उदाहरण है।
- विकास-अभिसरण रणनीति: “अंतर-प्रवेशित विकास” (Integrated Entry Development) तथा “समुदाय आधारित पहलों” (Community-based Initiatives) की सफलता इस परीक्षा के निबंध व नीतिगत सवालों में काम आती है।
महत्वपूर्ण बिंदु
- प्रस्तावित पुनर्गठन के तीन वर्ग: “आक्रामक,” “स्थिर,” और “सक्रिय पुनर्गठन”
- ₹3,000 करोड़ का विशेष केंद्र-राज्य कोष: उपयोग के क्षेत्र—सड़क, स्वास्थ्य, शिक्षा, महिला स्वरोजगार
- निगरानी तकनीक: हीडरोड्रोन्स, बहु-स्रोत खुफिया डेटा विश्लेषण, भू-सैटेलाइट इमेजरी
- सामुदायिक भागीदारी: ग्राम स्तर पर शांति समितियाँ, बेरोजगारी भत्ता योजना, जल–जमीन विवाद निवारण समितियाँ
- सुरक्षा बलों का प्रशिक्षण: मानवाधिकार संवेदनशील अंग्रेजी प्रशिक्षण, स्थानीय भाषा में संवाद कौशल
विषय क्यों महत्वपूर्ण?
नक्सलवाद केवल एक सुरक्षा चुनौती नहीं, बल्कि विकास और प्राथमिक कड़ारूप में शासन की अनुपस्थितता का आईना भी है। केंद्रीय एवं राज्य सरकारों की यह पहल बताती है कि लंबी लड़ाई केवल हथियारों से नहीं, बल्कि सामाजिक-आर्थिक पुनर्निर्माण, स्थानीय नेतृत्व सशक्तिकरण और भरोसे के पुनर्निर्माण से जीती जा सकती है। UPSC परीक्षा में यह विषय दो दृष्टिकोणों से पूछा जा सकता है:
- सुरक्षा–विकास संतुलन: “क्या कठोर सुरक्षा उपायों से उग्रवाद पर नियंत्रण संभव है या फिर विकासोन्मुखी रास्ता बेहतर विकल्प है?”
- नीतिगत अनुशासन: “कैसे संघीय ढांचे में केन्द्र-राज्य सहयोग देकर असहिष्णु उग्रवाद को कुंद किया जा सकता है?”
निष्कर्ष
नक्सल प्रभावित जिलों के पुनर्गठन का यह निर्णय, सुरक्षा, विकास और मानवाधिकारों के बीच संतुलन स्थापित करने में ऐतिहासिक कदम हो सकता है।
चार निजी फर्मों का कंसोर्टियम भारत का पहला वाणिज्यिक EO उपग्रह समूह बनाएगा
समाचार में क्यों?
वैश्विक स्तर पर भू-अवलोकन सेवाओं की मांग निरंतर बढ़ रही है। कृषि, आपदा प्रबंधन, वन संरक्षण, शहरी नियोजन, खनन और जल संसाधन प्रबंधन जैसे क्षेत्रों में अधिक सटीक, लगातार और तात्कालिक डेटा की आवश्यकता सामने आई है। पारंपरिक सरकारी उपग्रह कार्यक्रम अक्सर लम्बी पूर्व-निर्माण अवधि, उच्च लागत और नियत अवतरण बिंदुओं के कारण त्वरित जवाबी सेवाएँ देने में सीमित रहे हैं। भारत, जो पहले से ही इसरो की क्षमता के जरिये भू-अवलोकन में मजबूत रहा है, निजी क्षेत्र के सहयोग से इस स्पेस को वाणिज्यिक दृष्टि से खोलकर उन एजेंसियों और कंपनियों को त्वरित, डेटा-संवेदनशील सेवाएँ उपलब्ध कराएगा, जिन्हें वास्तविक समय में सटीक जानकारी चाहिए। इसके अतिरिक्त, परियोजना से भारत का स्पेस इकोसिस्टम मजबूत होगा, रोजगार के अवसर बढ़ेंगे, और वैश्विक बाजार में भारतीय सेवाओं की प्रतिस्पर्धात्मक स्थिति सुदृढ़ होगी।
महत्व परीक्षा दृष्टिकोण से
इस विषय में निम्न मुख्य बिंदुओं को समझना आवश्यक है:
- IN-SPACe का रोल:
- IN-SPACe (Indian National Space Promotion and Authorization Centre) को भारत सरकार ने निजी क्षेत्र की भागीदारी बढ़ाने के लिए स्थापित किया है। यह निजी उपग्रह एवं लॉन्च सेवाओं के लिए लाइसेंसिंग, निगरानी और नीति फ्रेमवर्क प्रदान करता है।
- EO उपग्रहों के लिए विनियमन में इजाफा, लागत-प्रभावशीलता और नवाचार को प्रोत्साहित करना इस केंद्र का उद्देश्य है।
- कंसोर्टियम की संरचना:
- PixxelSpace: हाइपरस्पेक्ट्रल इमेजिंग पर केंद्रित स्टार्टअप, जो 400 से 2500 नैनोमीटर तक स्पेक्ट्रम में डेटा कैप्चर करता है।
- Piersight Space: माइक्रोवेव और माइक्रोवेव SAR डेटा विशेषज्ञ, जिन्हें बादल-आच्छादित क्षेत्रों में भी स्पष्ट इमेजिंग करने के लिए जाना जाता है।
- Satsure Analytics: कृषि, वित्तीय संस्थानों और सरकारी योजनाओं के लिए भू-स्थानिक डेटा एनालिटिक्स सॉफ़्टवेयर प्रदाता।
- Dhruva Space: छोटे उपग्रह तथा सबसिस्टम डिज़ाइन व निर्माण में वर्षों का अनुभव रखने वाली कंपनी।
- तकनीकी विशेषताएँ:
- बहु-ध्रुवीकरण SAR सेंसर जो दिन-रात और किसी भी मौसम में विश्वसनीय डेटा प्रदान कर सकते हैं।
- हाइपरस्पेक्ट्रल इमेजिंग से कृषि फसल स्वास्थ्य पर सूक्ष्म विश्लेषण, खनिज अन्वेषण और पर्यावरण निगरानी संभव होगी।
- सहज रीअल-टाइम डेटा डाउनलोड हेतु ग्लोबल रेल नेटवर्क के व्यावसायिक नैटवर्क का प्रयोग।
- परियोजना कार्यान्वयन एवं समयरेखा:
- पहले दो उपग्रहों का प्रक्षेपण Q1 2026 में PSLV रॉकेट से संपन्न होगा, शेष चरणबद्ध रूप से चार-चार उपग्रह वाले बैचों में 2027-28 तक पूरे किए जाएंगे।
- डेटा प्रसंस्करण हेतु भारत में नोएडा और विशाखापत्तनम में स्थित दो तकनीकी केंद्र विकसित किए जाएंगे।
- आर्थिक एवं सामाजिक प्रभाव:
- वाणिज्यिक EO सेवाओं का वैश्विक बाज़ार 2024 में $5.3 बिलियन था, जो 2030 तक $12 बिलियन तक पहुंचने का अनुमान है। भारत को इसमें लगभग 10% हिस्सा हासिल करने की संभावनाएँ हैं।
- कृषि क्षेत्रों में समयबद्ध डेटा से किसान निर्णय लेने की क्षमता सुधरेगी, जिससे फसल उपज में 15–20% तक बढ़ोतरी हो सकती है।
- आपदा प्रबंधन: बाढ़, सूखा, भूकंप जैसी आपदाओं में विश्वसनीय तिथि आधारित खतरा मानचित्रण करने पर राहत एवं बचाव अभियानों की दक्षता बढ़ेगी।
- नीति-निर्माण व बहुपक्षीय संदर्भ:
- इस परियोजना से भारत-US और भारत-EU भू-अवलोकन सहयोग बातचीत में बल मिलेगा।
- निजी क्षेत्र के स्पेस कार्यक्रम पर यूनवरसल स्पेस लॉ (Outer Space Treaty) और अंतर्राष्ट्रीय नियमों में वृद्धि की दिशा में कदम उठाने होंगे।
निष्कर्ष
चौकसीपूर्ण आर्थिक, तकनीकी और नीति-आधारित तर्कों पर टिका यह कदम भारत को भू-अवलोकन के क्षेत्र में एक शक्तिशाली वाणिज्यिक खिलाड़ी बनाएगा। इससे जुड़ने वाले उपग्रह नेटवर्क से प्राप्त डेटा कृषि, आपदा प्रबंधन, पर्यावरण संरक्षण एवं राष्ट्रीय सुरक्षा जैसे बहुआयामी क्षेत्रों में महत्वपूर्ण भूमिका निभाएगा। इन पहलुओं की गहन समझ प्रतियोगी परीक्षाओं के किसी भी स्तर पर—विशेषकर नीतिगत विश्लेषण और बहुपक्षीय भागीदारी—में सहायक होगी।
संसदीय समिति की रिपोर्ट: भारत की IOR रणनीति का मूल्यांकन
रिपोर्ट में प्रमुख बिंदु
- महासागरीय भागीदारी का दायरा: रिपोर्ट ने SAGAR (Security and Growth for All in the Region) पहल का विस्तार करते हुए MAHASAGAR के दृष्टिकोण का प्रस्ताव रखा है। इसमें बहुपक्षीय सहयोग, सामरिक साझेदारी और क्षेत्रीय संस्थाओं के समन्वय को बढ़ाने पर बल दिया गया है।
- कानूनी तथा नीतिगत ढांचे:
- UNCLOS (United Nations Convention on the Law of the Sea) के बल पर भारत ने IOR में स्वतंत्र व्यापार मार्गों, संप्रभुता और सीमाओं की रक्षा सुनिश्चित की। समिति ने इसकी कार्यान्वयन की समीक्षा करते हुए सुझाया कि क्षेत्रीय महासागरीय संधियों की मजबूती के लिए समरूप शर्तों का निर्धारण आवश्यक है।
- समुद्री कानून प्रवर्तन एजेंसियों के बीच साझा मानक और जानकारी आदान-प्रदान हेतु ‘इंटर-एजेंसी कोऑर्डिनेशन प्लैटफ़ॉर्म’ विकसित करने की सिफ़ारिश की गई है।
- सुरक्षा चुनौतियाँ एवं समाधान:
- पायरेटरी एवं समुद्री डकैती: सोमा और अडन खाड़ियों में मौजूदा जहरीले इलाकों से बचाव हेतु INS Visakhapatnam जैसे युद्धपोतों की तैनाती प्रभावी रही। समिति ने सुझाव दिया कि द्वीप राष्ट्रों के साथ संयुक्त नौसैनिक अभ्यास एवं सतत् गश्ती अभियान बढ़ाने से समुद्री डकैती में गिरावट लाई जा सकती है।
- आतंकवाद एवं हथियार तस्करी: मानिटरिंग एवं खुफिया तंत्र मजबूत रखने के लिए मल्टी-सेंसर ड्रोन नेटवर्क तथा समुद्री परिवहन पोर्टल (Maritime Domain Awareness – MDA) प्रणाली को उन्नत करने की आवश्यकता है।
- आर्थिक एवं व्यापारिक महत्व:
- IOR में 90% समुद्री व्यापार मार्ग स्थित हैं, जिनमें तेल एवं गैस की आपूर्ति प्रमुख है। समिति ने ध्यान दिलाया कि चाबहार बंदरगाह, मुंबई एवं विशाखापत्तनम जैसे केंद्रों को आधुनिक पोर्ट लॉजिस्टिक्स, डीप-सी मरीन सुविधाएँ और मल्टीमॉडल कनेक्टिविटी से लैस करना नितांत जरूरी है।
- Blue Economy को बढ़ावा देने के लिए मछलीपालन, समुद्री पर्यटन और समुद्री नवाचार स्टार्टअप्स को नीति एवं वित्तीय समर्थन देने की अनुशंसा की गई है।
- पर्यावरण संरक्षण एवं सतत् विकास:
- कोरल रिफ, मैंग्रोव एवं प्राथमिक समुद्री पारिस्थितिक तंत्रों का संरक्षण रिपोर्ट का महत्त्वपूर्ण अंग है। समिति ने ‘Regional Marine Protected Areas Network’ सृजित करने की वकालत की, जिससे साझा बायोडायवर्सिटी के संरक्षण हेतु वैज्ञानिक अनुसंधान, निगरानी एवं पुनर्स्थापन सक्रिय हों।
- समुद्री प्रदूषण—तेल रिसाव, प्लास्टिक तथा जहरीले रसायनों—के नियंत्रण हेतु सख्त नियम, क्षेत्रीय कार्यबल और पारदर्शी निगरानी प्रणाली स्थापित करने की सिफ़ारिश की गई।
- डिजिटल और तकनीकी पहल:
- Maritime Domain Awareness (MDA) को बढ़ाने के लिए उपायों में सैटेलाइट आधारित निगरानी, AIS (Automatic Identification System) और बिग डेटा एनालिटिक्स को एकीकृत प्लेटफ़ॉर्म पर लाने का सुझाव रिपोर्ट में प्रमुखता से शामिल है।
- साइबरसिक्योरिटी को मजबूती प्रदान करने हेतु ‘Maritime Cyber Resilience Framework’ विकसित करने की अनुशंसा की गई, जिससे पोर्ट्स और नेविगेशनल सिस्टम्स पर साइबर हमलों को टाला जा सके।
कारण और महत्व
भारतीय महासागर क्षेत्र में चीन की सक्रिय भागीदारी, जैसे मालाका डिलेमा में नौसैनिक अभ्यास तथा पायस प्रोजेक्ट्स की वृद्धि, ने भारत के सामरिक हितों को चुनौती दी है। इसी परिप्रेक्ष्य में रिपोर्ट ने MAHASAGAR पहल के तहत उच्च स्तरीय रणनीतिक साझेदारी, भरोसेमंद रक्षा सहयोग और आर्थिक जुड़ाव को सुदृढ़ करने पर जोर दिया। इसके अतिरिक्त, IOR में विदेशी ताकतों की प्रतिस्पर्धा वैश्विक ऊर्जा सुरक्षा, व्यापार मार्गों की अवरोध-रहितता तथा क्षेत्रीय स्थिरता पर असर डालती है। रिपोर्ट यह सुनिश्चित करती है कि भारतीय दृष्टिकोण—समावेशी, सहयोगात्मक और स्वतंत्र—से क्षेत्रीय राष्ट्रों के साथ आपसी विश्वास बढ़े और समुद्री गलियारे सुरक्षित रहें।
निष्कर्ष
संसदीय समिति की यह रिपोर्ट IOR में भारत की बहुपक्षीय भूमिका, समुद्री सुरक्षा एवं आर्थिक अवसरों की व्यापक समझ प्रस्तुत करती है। इसमें सुरक्षा, व्यापार एवं पर्यावरण, तीनों आयामों का संतुलित समाधान निहित है। IOR रणनीति को मजबूत करने के लिए पारदर्शी नीतिगत सुधार, क्षेत्रीय साझेदारी और तकनीकी नवप्रयोगों का सम्मिलित कार्य तय है। भारत की समुद्री शक्ति को बढ़ावा देने और क्षेत्रीय स्थिरता सुनिश्चित करने में यह रिपोर्ट मार्गदर्शक सिद्ध होगी।
महासागर सुरक्षा एवं आर्थिक महत्व
समाचार में क्यों?
14 अगस्त 2025 को Vision IAS ने ‘महासागर सुरक्षा एवं आर्थिक महत्व’ पर केंद्रित एक व्यापक विश्लेषण प्रकाशित किया, क्योंकि हाल ही में IOR में बढ़ती गतिविधियों ने भारत की समुद्री सुरक्षा नीति और आर्थिक रणनीतियों पर नए प्रश्न खड़े कर दिए हैं। प्रमुख घटनाएँ इस प्रकार हैं:
- चीन के मलक्का प्रोजेक्ट्स के विस्तार तथा नौसैनिक अभ्यासों में वृद्धि ने भारत के समुद्री हितों को चुनौती दी है।
- अफ्रीका, मध्य पूर्व और दक्षिण पूर्व एशिया के बीच माल ढुलाई मार्ग में पायरेटरी एवं आतंकवाद की घटनाओं में वृद्धि देखी गई है।
- खाड़ी देशों और दक्षिण एशियाई देशों के बंदरगाहों में निवेश तथा हब विकसित करने के प्रयास बढ़े हैं, जिससे माल यातायात के केंद्रीकरण के विकल्प उभर रहे हैं।
- भारत-फ्रांस और भारत-जापान ने हाल ही में द्विपक्षीय समुद्री सुरक्षा समझौतों पर हस्ताक्षर किए, जो संकट समय में संयुक्त गश्त, सूचना साझाकरण और आपदा प्रबंधन सहयोग को मजबूती देते हैं।
महत्ता और प्रमुख आयाम
- सामरिक दृष्टिकोण: IOR में भारत-शत्रु प्रतिस्पर्धा ने समुद्री गलियारा में निगरानी, गुप्तचर तंत्र और नौसैनिक क्षमताओं को अत्यधिक महत्वपूर्ण बना दिया है। Malacca Strait के माध्यम से ऊर्जा संवाहन की निर्भरता, हिमालयी सीमाओं से अलग, समुद्री साधनों द्वारा सुरक्षित रहने पर टिकी है। समय पर खतरा पहचानकर प्रतिक्रिया दे पाने की क्षमता के लिए India’s Information Fusion Centre-IOR जैसे प्लेटफ़ॉर्म काम आ रहे हैं।
- ऊर्जा एवं व्यापार सुरक्षा: गुजरात के कांडला और मुंबई की टर्मिनल्स, चेन्नई एवं विशाखापत्तनम के डीप-सी पोर्ट्स को समुचित गहरे जल सुविधाओं एवं लॉजिस्टिक नेटवर्क से जोड़ना जरूरी है। भारत–मध्य पूर्व तेल भेजने वाले टैंकरों की निरंतर निगरानी, प्राकृतिक गैस पाइपलाइन परियोजनाओं की सुरक्षा तथा तेल रिसाव नियंत्रण प्रणाली इसके आर्थिक हितों को सुरक्षित रखती है।
- ब्लू इकॉनॉमी के अवसर:
- मछलीपालन एवं समुद्री उद्यमिता: भारत 14 लाख टन वार्षिक मछली उत्पादन वाला देश है। ऑब्जर्वेशन डेटा और तटीय निगरानी से संसाधन प्रबंधन, जैव विविधता संरक्षण और समुद्री कृषि (como-seaweed farming) में वृद्धि संभव है।
- समुद्री पर्यटन: गोवा, अंडमान-निकोबार एवं केरल में बढ़ते क्रूज शिप्स और जलमालिकाएँ—इन क्षेत्रों में नौका पार्किंग, जलक्रीड़ा सुविधाएं लाने से स्थानीय अर्थव्यवस्था को बल मिलता है।
- डिजिटलीकृत बंदरगाह: मल्टीमॉडल कनेक्टिविटी (रेल, सड़क, पाइपलाइन) एवं स्मार्ट पोर्ट टेक्नोलॉजी से व्यापार लागत में 20–25 प्रतिशत तक कमी आ सकती है।
- आपदा प्रबंधन एवं पर्यावरणीय निगरानी: समुद्री तूफान, सुनामी और तेल रिसाव जैसी आपदाओं के प्रति तैयारी में सैटेलाइट-based Early Warning Systems और DRR (Disaster Risk Reduction) फ्रेमवर्क अहम भूमिका निभाते हैं। कोरल रीफ, मैंग्रोव और समुद्री प्रदूषण नियंत्रण हेतु संयुक्त समुद्री पर्यावरण सुरक्षा समझौते (MOUs) तैयार किए जा रहे हैं।
- बहुपक्षीय सहयोग एवं कानूनी ढांचे: UNCLOS के अंतर्गत समुद्री सीमाओं के बाउंड्री व्यवस्थापन से लेकर समुद्री संसाधनों के न्यायसंगत उपयोग तक, भारत–श्रीलंका–मालदीव त्रिपक्षीय सहयोग तथा IORA (Indian Ocean Rim Association) की पहलें साझा संसाधन प्रबंधन और समुद्री अपराध नियंत्रण में सहायक हैं।
निष्कर्ष
महासागर सुरक्षा एवं आर्थिक महत्व यह स्पष्ट करता है कि समुद्री क्षेत्र में भारत का समग्र दृष्टिकोण—सुरक्षा, आर्थिक विकास और पर्यावरण संरक्षण—संतुलित हो। बंदरगाह इंफ्रास्ट्रक्चर से लेकर मल्टी-स्पेक्ट्रल निगरानी तक, ये पहलें भारत को IOR में प्रभावशाली भूमिका निभाने की ओर अग्रसर करेंगी। इस विषय की गहन समझ प्रतियोगी परीक्षाओं में भारत की बाह्य नीति, आर्थिक सुरक्षा एवं बहुपक्षीय भागीदारी से जुड़े प्रश्नों का समुचित उत्तर देने में सहायक होगी।
फास्ट ट्रैक स्पेशल कोर्ट्स का धीमा प्रवाह
समाचार में क्यों?
दिल्ली उच्च न्यायालय ने जून 2025 तक_FAST TRACK SPECIAL COURTS_ (FTSCs) द्वारा संचालित यौन अपराध मामलों के निपटारे की प्रगति की समीक्षा जारी की, जिससे यह स्पष्ट हुआ कि इन विशेष न्यायालयों ने अपेक्षित गति से मुकदमों का निपटान नहीं किया है। यौन उत्पीड़न, बाल यौन शोषण और दलित व महिलाओं के खिलाफ सांप्रदायिक अपराधों के लिए गठित ये अदालतें त्वरित न्याय सुनिश्चित करने के उद्देश्य से स्थापित की गई थीं, परंतु पिछले छह महीनों में केवल 43% मामलों का निपटान संभव हो सका।
परीक्षा दृष्टिकोण से महत्त्व
- न्यायिक सुधार और नीति कार्यान्वयन: FTSCs की स्थापना न्यायिक समयबद्धता (judicial timeliness) की दिशा में महत्वपूर्ण कदम है। इसके पीछे का विधिक ढांचा—Criminal Law (Amendment) Act, 2013 व National Judicial Policy—प्राथमिक अध्ययन का विषय है।
- विकास-प्रक्रिया अध्ययन: योजना और संसाधन आवंटन के बीच असंतुलन, मानव संसाधन प्रबंधन व प्रशिक्षण कार्यक्रमों का आकलन, ये सभी GS Paper II के “सरकारी नीतियों के मूल्यांकन” अनुभाग के लिए प्रासंगिक हैं।
- लैंगिक न्याय: कानून व्यवस्था में महिलाओं व कमजोर वर्गों की पहुंच का विश्लेषण “विकास दृष्टिकोण और न्याय” के पाठ्यक्रम में आता है। FTSCs की धीमी कार्यवाही सामाजिक न्याय की दिशा में बाधाएँ प्रस्तुत करती है।
महत्वपूर्ण बिंदु
- कार्यान्वयन ढांचा:
- 20 FTSCs की स्थापना—Delhi High Court अधिसूचना, जनवरी 2015
- विशेषज्ञ न्यायाधीशों, अतिरिक्त सरकारी वकीलों और पुलिस समन्वयक की नियुक्ति
- प्रमुख अवरोध:
- न्यायाधीशों और स्टाफ की अपर्याप्त संख्या: नियोजित 60 न्यायाधीशों में से केवल 38 पद भरे गए
- प्रशिक्षित पीठासीन अधिकारी व पुलिस कर्मियों का अभाव
- अग्रिम जमानत प्रावधानों की अधिक याचिकाएँ—प्रतिवर्ष 2,500 याचिकाओं में से 70% मंजूर
- गोपनीय गवाहों की सुरक्षा और साक्ष्य विहीनता के कारण सुनवाई में देरी
- सुधार हेतु प्रस्तावित कदम:
- न्यायालय-विशेष प्रशिक्षण मॉड्यूल तैयार कर अधिवक्ताओं एवं पुलिस कर्मियों का सशक्तीकरण
- डिजिटल सुबूती प्रबंधन प्रणाली (e-evidence management) का अनिवार्य उपयोग
- पीड़ितों व गवाहों के लिए संवैधानिक सुरक्षा व स्टैंड-बाय वकीलों की व्यवस्था
- मासिक प्रगति ऑडिट एवं लाभ-हानि रिपोर्टिंग प्रणाली
- सामाजिक प्रभाव:
- लंबित याचिकाओं के कारण पीड़ितों का मनोवैज्ञानिक तनाव व आर्थिक दबाव
- अपराधियों का संरक्षण—अपराध प्रवृत्ति में वृद्धि का जोखिम
- न्याय में अविश्वास—महिलाओं में पुलिस व न्यायालय प्रणाली से विश्वासहीनता
- कानूनी संदर्भ:
- Criminal Law (Amendment) Act, 2013 [Section 375 IPC में बदलाव]
- National Judicial Policy, 2015—“Time Norms for Disposal of Cases”
- Protection of Children from Sexual Offences (POCSO) Act, 2012—विशेष अदालतों के गठन का आधार
निष्कर्ष
फास्ट ट्रैक विशेष न्यायालयों का धीमा प्रवाह न्याय व्यवस्था की कुशलता पर प्रश्न चिन्ह खड़ा करता है। प्रणालीगत बाधाओं, संसाधन अभाव और तैयारी की कमी ने इस पहल के उद्देश्य को अधूरा छोड़ दिया है। यौन अपराधों में त्वरित न्याय मिलने से न सिर्फ पीड़ितों को संवैधानिक सुरक्षा मिलती है, बल्कि अपराध निरोधक प्रभाव भी बढ़ता है। इन अवरोधों को दूर करने के लिए व्यापक प्रशिक्षण, प्रौद्योगिकी समावेशन और निगरानी तंत्र की आवश्यकता है, ताकि न्याय प्रक्रिया तेज, पारदर्शी और विश्वासप्रद बनी रहे।
सुप्रीम कोर्ट ने सेना के JAG बहुजातीय आरक्षण को रद्द किया
निर्णय की पृष्ठभूमि
JAG शाखा सैन्य न्याय व्यवस्था का वह अंग है, जो राजकीय अभियोजन, कानूनी परामर्श और कोर्ट–मार्शल के मामलों में सशस्त्र बलों को विधिक सहायता प्रदान करता है। वर्ष 2018 में सशस्त्र बलों में महिलाओं की हिस्सेदारी बढ़ाने के मकसद से रक्षा मंत्रालय ने JAG शाखा में महिला अधिकारियों के लिए 10% आरक्षण आरक्षित करने की नीति अपनाई थी। हालांकि, इस नीति के विरोध में चार अधिकारियों ने उच्च न्यायालय में याचिका दाखिल की, जिसमें कहा गया कि सेना में भर्ती एवं पदोन्नति का मूल आधार सेवा की आवश्यकताएँ, योग्यता और वरिष्ठता हैं।
खबर में क्यों?
इस याचिका का निपटारा सुप्रीम कोर्ट की संवैधानिक पीठ ने किया, जिसने पाया कि आरक्षण देने से सेना की इकाईगत संरचना और संचालन में अनुशासनात्मक असंतुलन पैदा हो सकता है। निर्णय में आगे कहा गया कि सशस्त्र बलों की कार्यप्रणाली ప్రజాస్వామ्यवादिक संस्थाओं से अलग होती है, जहां चेन ऑफ कमांड और युनिट का समुचित संतुलन सर्वोपरि होता है। सर्वोच्च न्यायालय ने स्पष्ट किया कि संविधान के अनुच्छेद 16 (समान अवसर) का संदर्भ लेते हुए रक्षा सेवाओं में समानता बनाए रखने के लिए सिर्फ वर्ग–आधारित आरक्षण उपयुक्त नहीं है।
कानूनी तर्क एवं महत्व
- सामग्रीगत समता बनाम संरचनात्मक विशिष्टता: संविधान में समान अवसर का अधिकार नागरिक सेवाओं पर लागू होता है, परंतु सशस्त्र बलों पर अनुच्छेद 33 के अंतर्गत विशिष्ट छूटें हैं, जिससे संसद एवं सरकार को रक्षा सेवाओं के विनियमन का विशेष अधिकार प्राप्त है। अदालत ने कहा कि रक्षा सेवाओं की विशिष्टताएँ – जैसे तत्काल तैनाती, युनिट के सामूहिक निर्णय और युद्ध–स्थितियों में वर्ग–आधारित भेदभाव से बचाव – सामान्य आरक्षण सिद्धांतों से भिन्न हैं।
- एकल मेरिट सूची का तर्क: सर्वोच्च न्यायालय ने जोर देकर कहा कि सभी उम्मीदवारों के मेरिट के आधार पर एकल सूची तैयार करने से संगठन में पारदर्शिता एवं न्याय की भावना बनी रहेगी। सेना में दक्षता और तत्परता बनाए रखने के लिए सर्वश्रेष्ठ योग्य उम्मीदवारों का चयन अनिवार्य है, न कि विशिष्ट वर्गों के लिए आरक्षित पदों पर आधारित भर्ती।
- न्यायिक हस्तक्षेप की सीमाएँ: अदालत ने गहराई से निरीक्षण किया कि यद्यपि न्यायपालिका को संवैधानिक संरक्षण सुनिश्चित करना है, परंतु रक्षा मामलों में नीति–निर्माण एवं प्रशासनिक निर्णयों में हस्तक्षेप से सेना की तैयारी और राष्ट्रीय सुरक्षा प्रभावित हो सकती है। इसलिए, रक्षा मंत्रालय द्वारा लिए गए निर्णयों की समीक्षा करते समय अतिरंजित हस्तक्षेप से बचने की सलाह दी गई।
कार्यान्वयन प्रभाव
- अगले सत्र से JAG शाखा में किसी भी श्रेणी के लिए आरक्षित पद नहीं रहेंगे; सभी नियुक्तियाँ और पदोन्नति केवल मेरिट के आधार पर होंगी।
- रक्षा मंत्रालय को निर्देश दिया गया कि वह इस निर्णय के अनुरूप सभी भर्ती और पदोन्नति प्रक्रिया के नियमावली संशोधन करके पात्रता मानदंडों को प्रकाशित करे।
- प्रशिक्षण दलों, कानूनी अनुभव और मानदंडों के आधार पर युवाओं को न्यायिक पैनल में शामिल करने के लिए नई चयन समिति का गठन कार्यावली रूप में किया जाएगा।
क्यों महत्वपूर्ण है?
यह निर्णय केवल महिला अधिकारियों के अधिकारों का प्रश्न नहीं, बल्कि सशस्त्र बलों की संचालन कुशलता, अनुशासनात्मक अखंडता और राष्ट्र–सुरक्षा से जुड़ा मामला है। निर्णय में यह बात उभरकर आई कि क्षमता और योग्यता के आधार पर भर्ती करने से सेना की लड़ाकू शक्ति और नीति–क्रियान्वयन में गति बनी रहती है।
निष्कर्ष
सर्वोच्च न्यायालय का यह फैसला सशस्त्र बलों में भर्ती एवं पदोन्नति पर आये वर्ग–विशिष्ट आरक्षण के प्रभावों को परखता है और संविधान के रक्षा संबंधी प्रावधानों के अनुरूप एकल मेरिट आधारित चयन की वकालत करता है। JAG शाखा की इस नीति रद्दीकरण से सेना में पारदर्शिता, दक्षता और अनुशासनात्मक संतुलन सुनिश्चित होगा, जो राष्ट्रीय सुरक्षा के दृष्टिकोण से अत्यावश्यक है।
भारत सरकार ने चार नए सेमीकंडक्टर संयंत्रों को मंजूरी दी
निर्णय की पृष्ठभूमि
वैश्विक इलेक्ट्रॉनिक्स एवं तकनीकी आपूर्ति श्रृंखलाओं में चिप्स का संकट 2020-22 के दौरान स्पष्ट हुआ, जब COVID-19 महामारी और रणनीतिक निर्यात नीतियों के कारण सेमीकंडक्टर की कमी ने वैश्विक उद्योगों को प्रभावित किया। उस समय भारत की चिप उत्पादन क्षमता नगण्य थी, जिसके चलते देश 90% से अधिक चिप्स आयात पर निर्भर था। आत्मनिर्भर भारत एवं मेक इन इंडिया पहलों के तहत 2021 में ISM की स्थापना हुई, जिसका लक्ष्य 2030 तक भारत की घरेलू सेमीकंडक्टर बाजार हिस्सेदारी 10% तक पहुंचाना है।
संयंत्रों का विवरण
- BharatFab Technologies (वैस्टर्न उत्तर प्रदेश):
- निवेश: ₹1,200 करोड़; क्षमता: 65 नैनोमीटर (nm) तकनीक पर आधारित आठ इंच के वेफर।
- विशेषताएँ: DRAM एवं फ्लैश मेमोरी के लिए अग्रिम परिष्कृत क्लीनरूम और EUV प्रकाश-स्रोत उपकरण।
- NanoCircuits India (तमिलनाडु):
- निवेश: ₹1,100 करोड़; क्षमता: 45nm और 28nm टेक्नोलॉजी पर 12 इंच वेफर उत्पादन।
- प्रमुख: ऑटोमोटिव सेमीकंडक्टर, पॉवर मैनेजमेंट आईसी एवं स्मार्ट कार्ड चिप्स निर्माण।
- SilicoFab Solutions (कर्नाटक):
- निवेश: ₹900 करोड़; क्षमता: 28nm FinFET और 14nm टेक्नोलॉजी पर छोटे बैच में एनालॉग एवं मिक्स्ड-सिग्नल आईसी।
- नवाचार केंद्र: एन्हांस्ड पैकेजिंग तकनीक, थर्मल प्रबंधन और 3D स्टैक्ड चिप्स के लिए आर एंड डी लैब।
- MicroChip India (आंध्र प्रदेश):
- निवेश: ₹1,394 करोड़; क्षमता: 65nm वीएलएसआई (Very Large Scale Integration) चिप्स, माइक्रोकंट्रोलर और IoT चिप्स।
- सुविधा: अनुकूलित फोटोलिथोग्राफी, स्वचालित परीक्षण और बोन्डिंग-डाय बांडिंग यूनिट।
क्यों खबर में?
सेमीकंडक्टर केवल इलेक्ट्रॉनिक उपकरणों का मूलभूत घटक नहीं, बल्कि देश की राष्ट्रीय सुरक्षा, आर्थिक विकास और तकनीकी स्वराज का आधार भी हैं। रक्षा, अंतरिक्ष, 5G नेटवर्क, ऑटोमेशन एवं कृत्रिम बुद्धिमत्ता जैसे क्षेत्रों में विशेष PURPOSE चिप्स की आवश्यकता होती है। इन संयंत्रों की स्थापना से आयात में कमी आएगी, विदेशी मुद्रा की बचत होगी तथा सुदृढ़ आपूर्ति श्रृंखला तैयार होगी।
रणनीतिक महत्व
- आपूर्ति श्रृंखला सुरक्षा: वैश्विक ग़लतफहमियों या राजनयिक तनातनी के समय चिप्स की उपलब्धता सुनिश्चित होती है।
- रक्षा एवं अंतरिक्ष: DRDO, ISRO के संवेदनशील मिशनों के लिए “ट्रस्टेड चिप” का विकास संभव होगा।
- औद्योगिक आधार: इलेक्ट्रॉनिक्स विनिर्माण सेवाओं (EMS) क्षेत्र में नए निवेश आकर्षित होंगे तथा ईकॉनॉमिक जोन में हजारों रोजगार सृजित होंगे।
- आर एंड डी संवर्द्धन: उच्च-स्तरीय चिप डिजाइनिंग, पैकेजिंग और परीक्षण क्षमता से घरेलू स्टार्टअप एवं अकादमिक संस्थान जुड़ेंगे।
कार्यान्वयन और समयसीमा
- वर्ष 2025-26: ज़मीन खरीद, बुनियादी ढांचा एवं उपकरण स्थापना
- वर्ष 2026-27: मशीन इंस्टॉलेशन, परीक्षण एवं वालिडेशन रन
- वर्ष 2027-28: वोल्यूम प्रोडक्शन आरंभ, निर्यात एवं घरेलू आपूर्ति
प्रमुख चुनौतियाँ
- उच्च पूंजी-गत व्यय: सेमीकंडक्टर फैब्रिकेशन संयंत्रों में निवेश वापसी में लंबा समय लगता है।
- तकनीकी आत्मनिर्भरता: EUV मशीनें और अत्याधुनिक उपकरण अभी भी सीमित देशों के हाथों में हैं।
- मानव संसाधन: फैब्रिकेशन, पैकेजिंग और वैलिडेशन के लिए प्रशिक्षित वैज्ञानिक एवं तकनीशियन की कमी।
- सप्लाई इनपुट: रिफाइंड सिलिकॉन, गैसीय रसायन, विशेष मेटल ऑक्साइड्स व अन्य मटेरियल्स की उपलब्धता पर निर्भरता।
भविष्य की दिशा
इन संयंत्रों के संचालन से निकट भविष्य में इंटीग्रेटेड चिप्स के लिए एक स्वदेशी इकोसिस्टम विकसित होगा। धीरे-धीरे भारत एडवांस्ड नोड्स (7nm, 5nm) की दिशा में भी कदम बढ़ाएगा। नीति निर्माण में R&D क्रेडिट, कैपिटल सब्सिडी, PLI स्कीम और स्किल इंडिया इंटर्नशिप को और सशक्त किया जाएगा। इस निर्णय से भारत में चिप निर्माण क्रांति का आरंभ हुआ है, जो 21वीं सदी में तकनीकी श्रेष्ठता, आर्थिक मजबूती और सामरिक स्वतंत्रता सुनिश्चित करेगा।
बॉम्बे उच्च न्यायालय ने आधार, पैन और मतदाता पहचान पत्र को नागरिकता प्रमाण नहीं माना
क्यों समाचार में?
भारत में नागरिकता जांच विवाद अक्सर जातीय और सांप्रदायिक विभेदों को बढ़ावा देते हैं। पिछले कुछ वर्षों में नेशनल रजिस्टर ऑफ सिटिजन्स (NRC) और नागरिकता संशोधन अधिनियम (CAA) जैसी पहलों ने दस्तावेज़ आधारित नागरिकता सत्यापन को तीखा विषय बना दिया है। इस परिप्रेक्ष्य में बॉम्बे उच्च न्यायालय का फैसला महत्व रखता है, क्योंकि:
- यह स्पष्ट करता है कि केंद्र और राज्य सरकारों द्वारा जारी भले ही कितने ही आधिकारिक दस्तावेज हों, उनकी मौलिक सीमा होती है।
- नागरिकता का निर्धारण संविधान के अनुच्छेद 5–11 और नागरिकता अधिनियम, 1955 द्वारा निर्धारित मानदंडों पर आधारित है, जिसमें जन्मस्थान, अभिवादन और प्राकृतिककरण प्रक्रियाएँ प्रमुख हैं।
- दस्तावेज़ों को पर्याप्त मान लेने के परिणामस्वरूप गलतवश अवैध प्रवासियों या शरणार्थियों के पंजीकरण की आशंका रहती है। अदालत ने साक्ष्य संतुलन और प्राकृतिक न्याय के सिद्धांतों का हवाला दिया।
मामला और निर्णय
रिट याचिका में तीन परिवारों ने दावा किया कि उनके पास आधार, पैन और वोटर आईडी हैं, इसलिए उन्हें नागरिकता संबंधी किसी विशेष प्रक्रिया से नहीं गुजरना चाहिए। याचिकाकर्ताओं का तर्क था कि इन दस्तावेजों के लिए पहले ही पहचान और आवासीय सत्यापन हो चुका है। बेंच ने हालांकि कहा:
- आधार कार्ड केवल पहचान हेतु है; नागरिकता से संबंधित कोई प्रावधान इसमें शामिल नहीं।
- पैन कार्ड वित्तीय लेनदेन की निगरानी के लिए है, इसमें निवास या नागरिकता की पुष्टि करने वाली कोई जांच नहीं होती।
- वोटर आईडी मतदाता नामावली में नाम दर्ज करने के लिए जारी किया जाता है, लेकिन इसमें केवल मतदाता सूची के मानदंड—रक्षा आयु व दृश्य निवास—पूरे किए जाते हैं, न कि नागरिकता।
महत्व और परीक्षीय परिप्रेक्ष्य
यह फैसला संवैधानिक क़ायदे—नागरिकता अधिनियम (1955), नागरिकता संशोधन विधेयक (2019), अनुच्छेद 5–11—और न्यायपालिका द्वारा अंगीकार किए गए प्राकृतिक न्याय के सिद्धांतों को जोड़ता है। UPSC के विभिन्न पेपर्स में इसे निम्न प्रकार से शामिल किया जा सकता है:
- संविधान एवं नागरिकता: नागरिकता के स्वाभाविक और अधिकारों पर आधारित प्रश्न, जिसमें दस्तावेज आधारित सत्यापन और विधाननुसार प्रक्रिया का विश्लेषण आवश्यक है।
- नागरिकता कानून: नागरिकता अधिनियम में संशोधन और प्रवासी–संबंधी नीतियां जैसे CAA व NRC पर प्रश्नों के सन्दर्भ में अदालत का यह निर्णय साक्ष्य-आधारित बहस का आधार बनेगा।
- न्यायिक समीक्षा: न्यायपालिका द्वारा विधायी या प्रशासकीय निर्णयों का संशोधन या सीमांकन, जिसमें इस फैसले का केस स्टडी के तौर पर उपयोग हो सकता है।
प्रमुख बिंदु
- आधार, पैन और वोटर आईडी नागरिकता के ‘मूल’ प्रमाण नहीं; केवल पहचान और निवास सत्यापन के दस्तावेज
- नागरिकता अधिनियम, 1955 के अनुच्छेद 5–11 और संशोधन अधिनियम 2019 के प्रक्रियात्मक प्रावधान
- संविधान के अनुच्छेद 14 (समानता का अधिकार) और 21 (व्यक्तिगत स्वतंत्रता का अधिकार) के साक्ष्य-आधारित संतुलन का न्यायिक व्याख्या
- प्राकृतिक न्याय के सिद्धांत—न्याय सुनिश्चियता और सुनवाई का अधिकार—दस्तावेज सत्यापन से पहले और बाद में लागू रहेंगे
- केंद्र एवं राज्य द्वारा जारी दस्तावेज़ों की सीमाएँ: गलत पहचान, धोखाधड़ी और विवादास्पद स्थितियों की रोकथाम
क्यों महत्वपूर्ण है?
यह फैसला भारत के बहुलवादी समाज में नागरिकता सत्यापन की प्रक्रिया को न्यायसंगत बनाता है और अधिनायकवाद से बचाव सुनिश्चित करता है। इसके परिणामस्वरूप शासन के लिए स्पष्ट दिशानिर्देश बनेंगे, जिससे अवैध प्रवासियों या दस्तावेज़ घोटालों को नियंत्रित करने में सहूलियत होगी। न्यायविदों और नीति-निर्माताओं को यह निर्णय लेखन, बहस और सुधारात्मक सुझावों के लिए मजबूत कानूनी आधार प्रदान करता है।
विश्व हाथी दिवस पर जागरूकता कार्यक्रम
क्यों खबर में?
विश्व हाथी दिवस की स्थापना 2012 में हुई थी, ताकि अफ्रीकी तथा एशियाई हाथियों पर बढ़ते शिकार, अवैध व्यापार और आवास घटने की समस्या पर ध्यान केंद्रित किया जा सके। भारत, जहां एशियाई हाथियों की आबादी लगभग 27,000 के करीब है, हाथी–मानव संघर्ष, रास्ता अवरोध और वनों की कटाई से जूझ रहा है। 2024-25 में देशभर में कम से कम 350 हाथियों की मृत्यु दर्ज की गई, जिनमें से करीब 120 विवादित संघर्षों या खेती-क्षेत्र में घुसने के कारण गाड़ियों से टकराकर मरे। इसे रोकने के लिए वन विभाग और एनजीओ ने ‘चैम्पियन कम्युनिटी’ मॉडल के तहत ग्रामीणों को हस्तक्षेप में शामिल किया।
हाथियों की भूमिका और पारिस्थितिक महत्व
- पारिस्थितिक इन्जीनियर्स: हाथी अपनी सहायत से बीज वितरण करते हैं, नए पेड़–पौधों का विस्तार कर जंगलों की बहुलता बनाए रखते हैं। एक अकेला हाथी प्रतिदिन सूखे क्षेत्र में 30–50 किमी तक चलकर बीज फैला सकता है।
- वन आवास संतुलन: बड़े आकार और दैनिक चराई प्रवृत्ति से हाथी घास के मैदानों और जंगल के संतुलन को कायम रखते हैं, जिससे अन्य छोटे घासचरों की जैव विविधता सुरक्षित रहती है।
- जल संसाधन: सूखे मौसम में हाथी नदियों और तालाबों के किनारे कच्ची मिट्टी खनन कर पानी के स्रोत बनाए रखते हैं, जो अनेक अन्य प्रजातियों के लिए जीवनरेखा का काम करते हैं।
मुख्य चुनौतियाँ
- मानव–हाथी संघर्ष: जनसंख्या विस्तार के चलते कृषि भूमि हाथियों के आवास में घुस जाती है। किसानों के साथ मक्का, केला व मूंगफली के खेतों में विध्वंस के कारण 2024-25 में 280 मानव मृत्यु और 350 हाथी मृत्यु हुईं।
- पथ अवरोध एवं सड़क दुर्घटनाएँ: जंगल मार्गों के बीच बिछे राष्ट्रीय राजमार्गों पर गति रेखांकन की कमी से 45 हाथी दुर्घटनाग्रस्त वाहनाबाधित मरे।
- अवैध व्यापार व काजू: घोड़ेदाँत और त्वचा के लिए शिकार निरंतर होता है, जिससे एशियाई हाथी की ‘संवेदनशील’ स्थिति और बिगड़ रही है।
- आवास घटाव: औद्योगिक एवं बुनियादी ढांचा परियोजनाओं के चलते हाथियों के पारंपरिक आवास क्षेत्रों का छोटे-छोटे टुकड़ों में टूटना, कॉरिडोर बाधित होना प्रमुख कारण हैं।
सरकार एवं संगठनों की पहलें
- मानव–हाथी संघर्ष प्रबंधन योजना: पर्यवेक्षण टावर, इलेक्ट्रीकल बाड़ और साइलेंट ड्रोन पेट्रोलिंग से हाथियों के आवागमन पर नजर रखी जा रही है।
- हाथी कॉरिडोर पुनर्स्थापन: केरल, असम और कर्नाटक में समन्वित प्रयासों से कुल 500 किमी पाथवे मुक्त कराए गए, जिससे झाड़ियों को काटकर और जैविक बाड़ लगाकर कॉरिडोर खोले गए।
- समुदाय आधारित मॉडल: ‘हाथी रक्षक’ स्वयंसेवक समूहों ने लाइवस्टॉक घेरों, कानूनी मशाल बाड़ तथा आवाज-प्रेरित डिवाइस का उपयोग कर हाथियों को फसलों के पास आने से रोका।
- प्रौद्योगिकी अनुप्रयोग: इन्फ्रारेड कैमरा ट्रैप, GPS कॉलर और मोबाइल एप्लिकेशन से मानव–हाथी संघर्ष की घटनाओं का त्वरित डेटा संग्रह किया जा रहा है।
महत्व परीक्षा दृष्टिकोण से
- वन्यजीव संरक्षण नीति: वन्यजीव (संरक्षण) अधिनियम, 1972 में संशोधन और राष्ट्रीय कार्य योजना (2017) के तहत हाथी संरक्षण एवं संघर्ष प्रबंधन के प्रावधान समझने को मिलते हैं।
- पारिस्थितिक संतुलन: हाथियों की भूमिका पर प्रश्न “इकोसिस्टम सर्विसेज” के अंतर्गत आते हैं, जो GS Paper III में पर्यावरण विषय में पूछे जा सकते हैं।
- जैव विविधता और सतत विकास: SDG 15 (Life on Land) महाद्वीपीय संरक्षण लक्ष्यों के अनुरूप हाथी सुरक्षा योजनाएं इस परीक्षा में उपयुक्त केस स्टडी मुहैया कराती हैं।
निष्कर्ष
विश्व हाथी दिवस पर आयोजित कार्यक्रमों ने मानव–हाथी संघर्ष प्रबंधन, कॉरिडोर सुरक्षा और सामुदायिक भागीदारी के कार्यों को उजागर किया। भारत में हाथियों की पारिस्थितिक महत्वपूर्णता को समझते हुए सरकारी और गैर-सरकारी एजेंसियों ने समन्वित नीतियों और तकनीकी उपायों से उनके संरक्षण के नए आयाम गढ़े हैं। इन पहलों की गहराई से जानकारी वन्यजीव संरक्षण, पर्यावरण संतुलन तथा सतत विकास जैसे विषयों में परीक्षा हेतु उपयुक्त संदर्भ देती है।
बॉम्बे उच्च न्यायालय ने BNS की धारा 152 पर सवाल उठाए
पृष्ठभूमि और सामग्री
BNS, 2023 ने IPC की कई धाराओं को संशोधित कर भारतीय दंड संहिता (IPC), आईपीसी के नाम से पुनर्गठित किया। धारा 152 में ‘देशद्रोह’ के आधुनिक स्वरूप को परिभाषित किया गया है, जिसमें राज्य की साख, एकता या सुरक्षा के विरुद्ध आपत्तिजनक कथन, वीडियो या डिजिटल सामग्री प्रकाशित करने पर दंड का प्रावधान है। विशेषत: इसमें निम्नलिखित उपधाराएँ शामिल हैं:
- सार्वजनिक मंच पर ऐसी किसी भी सामग्री का प्रसारण जो “स्थानीय शांति” या “देश की अखंडता” को बाधित करने की अभिव्यक्ति करे।
- सोशल मीडिया, इंटरनेट एवं डिजिटल प्लेटफार्म पर आपत्तिजनक कथन या समाचार साझा करने पर तीन वर्ष तक का कारावास एवं जुर्माना।
- पत्रकारों, विचारकों और शिक्षाविदों के लिए ‘सार्वजनिक हित’ में टिप्पणी करने की छूट रखते हुए, ‘आयोजन’ तथा ‘प्रसारण’ की परिभाषा में अस्पष्टता को महत्त्वपूर्ण माना गया।
समाचार में क्यों?
इस मामले को तब अधिक तवज्जो मिली जब इस याचिका ने धारा 152 की अस्पष्ट भाषा एवं दंड के दायरे पर ध्यान आकर्षित किया। याचिकाकर्ता, एक मीडिया एनजीओ, तर्क देता है कि “लोक-हित में की गई आलोचनाएं” भी इस धारा की दायरे में आ सकती हैं क्योंकि ‘चर्चा करना’ और ‘प्रसारित करना’ शाब्दिक रूप से परिभाषित नहीं हैं।
- न्यायालय ने पूछा कि क्या कोई ऐसा मापदंड हो सकेगा जिससे यह स्पष्ट हो कि सार्वजनिक हित में की गई आलोचना देशद्रोह नहीं?
- संवैधानिक अनुच्छेद 19(1)(a) – अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता – और 19(2) – उसका ‘सर्वोच्च हित’ के तहत सीमित करने का अधिकार – के मध्य संतुलन कैसे स्थापित होगा?
- किस प्रकार की सामग्री ‘देशद्रोह’ की श्रेणी में आएगी, और उसे भिन्न-भिन्न राज्यों में अलग-अलग कार्यान्वयन का जोखिम कैसे टाला जाए?
मुख्य प्रश्न और चिंताएँ
- स्पष्टता का सिद्धांत (Doctrine of Vagueness): अदालत ने धारा 152 की उपधाराओं में प्रयुक्त शब्दावली—जैसे “स्थानीय शांति” व “देश की अखंडता”—की अस्पष्टता पर प्रश्न उठाया। संवैधानिक कानून में ऐसी अस्पष्ट धाराएँ नागरिकों के लिए पूर्वानुमानित आचरण तय नहीं कर पातीं, जिससे दंड का दुरुपयोग संभव होता है।
- अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता: 19(1)(a) के तहत विचार व्यक्त करने का मौलिक अधिकार है, परंतु 19(2) इसकी सीमाएँ—“देश की सुरक्षा”, “सार्वजनिक व्यवस्था” इत्यादि—परिभाषित करता है। अदालत ने पूछा कि क्या BNS की धारा 152 का दायरा इन संवैधानिक सीमाओं के अनुरूप है, या कहीं यह व्यापक दंडात्मक शक्ति दे रही है?
- डिजिटल प्लेटफार्म एवं सोशल मीडिया: डिजिटल माध्यमों की व्याप्ति और त्वरित प्रसार को देखते हुए, इस धारा को लागू करने वाले अधिकारी शिकायतों और अभियोगों में असंगत व्याख्याएँ देकर सामाजिक एवं राजनैतिक वाद-विवादों को दबा सकते हैं।
- न्यायिक पुनरीक्षा: सर्वोच्च न्यायालय के ‘न्यूनतम हस्तक्षेप’ सिद्धांत के तहत क्या उच्च न्यायालय को इस संवैधानिक विषय पर अग्रिम निर्देश जारी करने का अधिकार है, या ऐसे मामलों में सुप्रीम कोर्ट के आदेश का पालन आवश्यक होगा?
महत्व एवं प्रभाव
- विधि एवं शासन: अस्पष्ट धाराएँ दंड प्रक्रिया संहिता और प्रशासनिक निर्णयों में विवेकाधिकार बढ़ाकर न्यायिक बोझ बढ़ा सकती हैं। ऐसे में स्पष्ट मापदंड बनना आवश्यक है।
- मीडिया एवं नागरिक समाज: पत्रकारों, शोधकर्ताओं और मानवाधिकार कार्यकर्ताओं की कार्यक्षमता पर असर पड़ सकता है यदि सार्वजनिक हित की सामग्री को भी दंड के दायरे में लाया जा सके।
- राजनीतिक संवाद: आलोचनात्मक विमर्श पर अंकुश लगने से लोकतांत्रिक संवाद प्रभावित होता है तथा सत्तारूढ़ और विपक्षी दलों के बीच संतुलन बिगड़ सकता है।
- un न्टेक्चुअल हाइब्रिडिटी: आधुनिक कानून में डिजिटल संदर्भ और पारंपरिक दृष्टिकोण का समन्वय तभी संभव जब परिभाषाएँ स्पष्ट हों।
निष्कर्ष
बॉम्बे उच्च न्यायालय द्वारा BNS की धारा 152 पर उठाए गए सवाल संवैधानिक अधिकारों, विधिक स्पष्टता और राष्ट्रीय सुरक्षा की मांग के बीच संतुलन स्थापित करने की चुनौती को दर्शाते हैं। इस प्रकरण से स्पष्ट होगा कि अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता की रक्षा और देशद्रोह जैसे संवेदनशील विषय पर कानून निर्माताओं द्वारा दी गई शक्तियों का विवेकपूर्ण उपयोग कैसे सुनिश्चित किया जाए। न्यायालय द्वारा आगामी निर्देश इस धारा के व्यावहारिक कार्यान्वयन और संवैधानिक अनुच्छेद 19 के दायरे को पुनर्परिभाषित करने में मार्गदर्शक सिद्ध होंोंगे।