सामान्य परिप्रेक्ष्य में, राज्य की नीति के निदेशक तत्वों को उन कल्याणकारी आदर्शों का समुच्चय माना जाता है जिन्हें प्रत्येक सरकार को अपने नीतिगत निर्णयों एवं विधि-निर्माण के समय सदैव ध्यान में रखना अनिवार्य है। संविधान निर्माताओं का यह दृढ़ विश्वास था कि भारतीय समाज में समानता स्थापित करना एवं सर्वजनहित सुनिश्चित करना अत्यंत महत्वपूर्ण चुनौती है। अतः इन जटिलताओं से निपटने हेतु उन्होंने भारतीय संविधान में राज्य के लिए नीतिगत दिशा-निर्देश निर्धारित किए ताकि प्रस्तावना में उल्लिखित लोक कल्याणकारी राज्य की स्थापना संभव हो सके।
संवैधानिक उपबंध एवं उद्देश्य (Constitutional Provisions and Objectives)
भारतीय संविधान के भाग-4 में, अनुच्छेद 36 से लेकर अनुच्छेद 51 तक, राज्य की नीति के निदेशक तत्वों का विस्तृत उल्लेख किया गया है। संविधान में समाहित ये तत्व आयरलैंड के संविधान से प्रेरणा प्राप्त करते हैं।
उद्देश्य (Objectives)
राज्य की नीति के निदेशक तत्वों का प्रमुख उद्देश्य भारत को एक लोक कल्याणकारी राज्य के रूप में स्थापित करना है। यह राज्य का मौलिक दायित्व है कि वह सामाजिक एवं आर्थिक लोकतंत्र की स्थापना हेतु अपने समस्त नीतिगत एवं विधिक उपायों द्वारा इन तत्वों को प्रभावशाली रूप से लागू करे।
इन तत्वों का एक अन्य गौरवपूर्ण उद्देश्य यह भी है कि वे शासन की कार्यप्रणाली का एक मानक निर्धारण करें, जिससे सरकारें अपनी सफलता या विफलता का मूल्यांकन कर सकें।
राज्य की नीति के निदेशक तत्वों की विशेषताएँ (Characteristics of Directive Principles of State Policy)
राज्य की नीति के निदेशक तत्व संविधान की प्रस्तावना में उल्लिखित सामाजिक, आर्थिक तथा राजनीतिक न्याय एवं स्वतंत्रता, समानता और बंधुत्व की भावना से प्रेरित हैं।
ये तत्व शासन प्रणाली में मूलभूत स्थान रखते हैं तथा यह राज्य का कर्तव्य है कि वे इन्हें विधिक माध्यमों द्वारा क्रियान्वित करें।
यद्यपि नीति निदेशक तत्व न्यायिक रूप से बाध्यकारी नहीं हैं, अर्थात् इन्हें न्यायालय द्वारा लागू नहीं किया जा सकता, तथापि सरकार इनका अनुपालन करने हेतु नैतिक रूप से बाध्य है।
इसके अतिरिक्त, ये तत्व न्यायपालिका को न्यायिक समीक्षा की प्रक्रिया में मार्गदर्शन प्रदान करते हैं।
राज्य की नीति के निदेशक तत्वों की वर्गीकरण (Classification of DPSP)
हालाँकि संविधान में इन तत्वों का औपचारिक वर्गीकरण नहीं किया गया है, तथापि लक्ष्य और सिद्धांत के आधार पर इन्हें तीन प्रमुख श्रेणियों में विभाजित किया गया है—समाजवादी, उदारवादी, एवं गांधीवादी।
समाजवादी तत्व (Socialistic Principles)
अनुच्छेद 38: राज्य का दायित्व है कि वह लोक कल्याण की वृद्धि हेतु ऐसी सामाजिक व्यवस्था का निर्माण करे, जो प्रत्येक नागरिक के लिए सामाजिक, आर्थिक एवं राजनीतिक न्याय को सुनिश्चित कर सके।
अनुच्छेद 38(2): राज्य को यह प्रयास करना चाहिए कि वह आय और संसाधनों में असमानता को कम करे, न केवल व्यक्तियों के मध्य, बल्कि विभिन्न क्षेत्रों और व्यवसायों में लगे लोगों के बीच भी सुविधाओं एवं अवसरों में समानता स्थापित करे।
अनुच्छेद 39: राज्य द्वारा अनुसरणीय नीतिगत सिद्धांतों में यह अनिवार्य है कि पुरुष एवं स्त्री दोनों को समान रूप से जीविका के पर्याप्त साधनों की उपलब्धता सुनिश्चित की जाए।
सार्वजनिक संसाधनों के स्वामित्व और नियंत्रण का ऐसा वितरण किया जाए जिससे सामूहिक हितों की पूर्ति हो सके।
धन और उत्पादन संसाधनों का विकेंद्रीकरण किया जाना चाहिए ताकि वे कुछ व्यक्तियों के हाथों में केंद्रित न रहें।
पुरुषों और स्त्रियों के लिए समान कार्य के लिए समान वेतन की व्यवस्था सुनिश्चित की जानी चाहिए।
श्रमिकों की शारीरिक शक्ति और स्वास्थ्य का दुरुपयोग न हो तथा बच्चों को आर्थिक विवशताओं के कारण ऐसे कार्यों में प्रवृत्त न होना पड़े जो उनकी उम्र और शक्ति के प्रतिकूल हों।
बच्चों को एक स्वतंत्र एवं गरिमामय वातावरण में स्वस्थ विकास हेतु उचित अवसर एवं सुविधाएँ प्रदान की जानी चाहिए, और साथ ही बच्चों एवं युवाओं को शोषण एवं नैतिक-आर्थिक उपेक्षा से संरक्षित रखा जाना चाहिए।
अनुच्छेद 39क: न्याय का समान अवसर सुनिश्चित करने हेतु राज्य को यह प्रयास करना चाहिए कि विधिक सहायता नि:शुल्क रूप में उपलब्ध हो, जिससे कोई भी नागरिक आर्थिक बाध्यता के कारण न्याय से वंचित न हो।
अनुच्छेद 41: राज्य को अपनी आर्थिक क्षमता एवं संसाधनों की सीमा के भीतर, रोज़गार, शिक्षा तथा जन सहायता प्राप्त करने के अधिकारों को प्रभावी ढंग से सुनिश्चित करना चाहिए, विशेष रूप से बेरोज़गारी, वृद्धावस्था, बीमारी एवं विकलांगता की स्थितियों में।
अनुच्छेद 42: कार्यस्थल पर न्यायसंगत एवं मानवीय परिस्थितियों का निर्माण तथा प्रसूति सहायता की प्रभावी व्यवस्था सुनिश्चित करना राज्य का उत्तरदायित्व है।
अनुच्छेद 43: सभी श्रमिकों को जीविका सुनिश्चित करने वाली मजदूरी, सम्मानजनक जीवन स्तर, पर्याप्त विश्राम तथा सांस्कृतिक एवं सामाजिक अवसर उपलब्ध कराना राज्य का महत्वपूर्ण लक्ष्य है। साथ ही, यह भी आवश्यक है कि ग्राम्य क्षेत्रों में कुटीर उद्योगों को वैयक्तिक या सहकारी आधार पर प्रोत्साहित किया जाए।
अनुच्छेद 43क: राज्य को यह सुनिश्चित करना चाहिए कि उद्योगों के संचालन में श्रमिकों की भागीदारी हो, और इसके लिए वह उपयुक्त विधान या नीतिगत उपाय अपनाए।
उदारवादी तत्व (Liberal Principles)
अनुच्छेद 44: राज्य भारत के समस्त राज्यक्षेत्र में नागरिकों के लिए एक समान नागरिक संहिता (Uniform Civil Code) लागू कराने हेतु सतत प्रयासरत रहेगा, जिससे सभी धर्मों एवं समुदायों के बीच समानता और न्यायसंगत आचरण की भावना को सुदृढ़ किया जा सके।
अनुच्छेद 45: राज्य का यह प्रमुख उत्तरदायित्व होगा कि वह प्रारंभिक शैशवावस्था की देखभाल तथा 6 वर्ष से कम आयु के सभी बच्चों को नि:शुल्क एवं अनिवार्य शिक्षा प्रदान करने की दिशा में ठोस नीतिगत पहल करे।
अनुच्छेद 48: कृषि एवं पशुपालन को आधुनिक और वैज्ञानिक विधियों के आधार पर पुनर्संयोजित और उन्नत बनाना राज्य का एक प्राथमिक उद्देश्य होगा, ताकि उत्पादकता और सतत विकास सुनिश्चित हो सके।
अनुच्छेद 48क: राज्य का दायित्व है कि वह पर्यावरण की रक्षा एवं संवर्धन, साथ ही वनों तथा वन्य जीवों की सुरक्षा के लिए उपयुक्त नीतियाँ एवं उपाय अपनाए, जिससे पारिस्थितिक संतुलन और प्राकृतिक विविधता को संरक्षित किया जा सके।
अनुच्छेद 49: जो स्मारक, स्थान या वस्तुएँ राष्ट्रीय महत्त्व की घोषित की गई हैं और जो कलात्मक या ऐतिहासिक दृष्टि से अभिरुचिपूर्ण हैं, उनके यथास्थिति संरक्षण हेतु राज्य को यह सुनिश्चित करना होगा कि वे लूंटन, विरूपण, विनाश, अपसारण, व्ययन या निर्यात जैसे किसी भी हानिकारक प्रभाव से बचाई जा सकें।
अनुच्छेद 50: न्यायपालिका की स्वतंत्रता एवं निष्पक्षता को सुनिश्चित करने हेतु राज्य की लोक सेवाओं में कार्यपालिका से न्यायपालिका का पृथक्करण करना अत्यंत आवश्यक एवं अनिवार्य है।
अनुच्छेद 51: राज्य का दायित्वपूर्ण प्रयास होगा कि वह अंतर्राष्ट्रीय शांति और सुरक्षा को बढ़ावा देने हेतु निम्नलिखित उपाय करे—
(क) अंतर्राष्ट्रीय शांति और सुरक्षा की सुदृढ़ता,
(ख) राष्ट्रों के बीच न्यायपूर्ण एवं सम्मानजनक संबंधों की स्थापना,
(ग) अंतर्राष्ट्रीय विधि एवं संधि-बाध्यताओं के प्रति सम्मान एवं अनुशासन,
(घ) अंतर्राष्ट्रीय विवादों का मध्यस्थता द्वारा शांतिपूर्ण समाधान हेतु प्रोत्साहन।
गांधीवादी तत्व (Gandhian Principles)
अनुच्छेद 40: राज्य का यह मौलिक उत्तरदायित्व है कि वह ग्राम पंचायतों का सुदृढ़ संगठन करे और उन्हें स्वायत्त शासन इकाइयों के रूप में कार्य करने हेतु प्रयोज्य अधिकार एवं शक्तियाँ प्रदान करे, जिससे ग्राम्य स्वराज्य का सुनियोजित विकास संभव हो सके।
अनुच्छेद 43: ग्रामीण क्षेत्रों में कुटीर उद्योगों को वैयक्तिक या सहकारी आधार पर प्रोत्साहित करना अत्यंत आवश्यक है, जिससे स्थानीय रोजगार का सृजन हो सके और ग्रामीण अर्थव्यवस्था को सुदृढ़ किया जा सके।
अनुच्छेद 43ख: राज्य का यह कर्तव्य होगा कि वह सहकारी समितियों के स्वैच्छिक गठन, स्वायत्त कार्यकरण, लोकतांत्रिक नियंत्रण तथा व्यावसायिक प्रबंधन को प्रोत्साहन एवं संरक्षण प्रदान करे, जिससे सामूहिक आर्थिक सशक्तिकरण सुनिश्चित हो।
अनुच्छेद 46: अनुसूचित जातियों, अनुसूचित जनजातियों एवं अन्य दुर्बल वर्गों के शिक्षा एवं आर्थिक हितों की सुनिश्चित अभिवृद्धि करना राज्य की प्राथमिक जिम्मेदारी है। इसके साथ ही राज्य को यह सुनिश्चित करना होगा कि ये वर्ग सामाजिक अन्याय एवं सभी प्रकार के शोषण से संरक्षित रहें।
अनुच्छेद 47: राज्य का प्रमुख उद्देश्य यह होना चाहिए कि वह जनता के पोषण स्तर एवं जीवन स्तर को उन्नत करे तथा लोक स्वास्थ्य के सतत विकास को अपने प्राथमिक दायित्वों में सम्मिलित करे। विशेष रूप से, राज्य को यह सुनिश्चित करना चाहिए कि मादक पेयों एवं हानिकारक औषधियों का औषधीय प्रयोजन के अतिरिक्त प्रयोग निषिद्ध किया जाए।
अनुच्छेद 48: राज्य को यह प्रयास करना चाहिए कि कृषि एवं पशुपालन को आधुनिक वैज्ञानिक विधियों से संगठित किया जाए, साथ ही गायों, बछड़ों एवं अन्य दुधारु व भारवाही पशुओं की नस्लों के संरक्षण और सुधार हेतु ठोस नीति अपनाई जाए और उनके वध को रोकने हेतु कानूनी प्रतिबंध लगाए जाएँ।
राज्य की नीति के निदेशक तत्वों में संवैधानिक संशोधन (Constitutional Amendments in DPSP)
42वाँ संविधान (संशोधन) अधिनियम, 1976
इस संशोधन के माध्यम से कुछ नवीन निदेशक तत्वों को संविधान में सम्मिलित किया गया, जिनका उद्देश्य समाज में सामाजिक न्याय, पर्यावरणीय संरक्षण तथा श्रमिकों के अधिकारों को सुदृढ़ करना था।
अनुच्छेद 39क: राज्य, समान न्याय और निःशुल्क विधिक सहायता की उपलब्धता को सुनिश्चित करने हेतु आवश्यक नीतिगत उपाय अपनाएगा, जिससे आर्थिक या सामाजिक दुर्बलता के कारण कोई भी नागरिक न्याय से वंचित न रहे।
अनुच्छेद 39च: बच्चों के समग्र विकास हेतु, राज्य उन्हें एक स्वतंत्र, सुरक्षित एवं गरिमामय वातावरण प्रदान करने के लिए अवसरों और आवश्यक सुविधाओं की उपलब्धता सुनिश्चित करेगा, ताकि वे नैतिक, बौद्धिक और सामाजिक दृष्टि से उन्नत नागरिक बन सकें।
अनुच्छेद 43क: राज्य को यह प्रयास करना चाहिए कि वह उद्योगों के प्रबंधन में श्रमिकों की भागीदारी को सुनिश्चित करने हेतु संस्थागत ढाँचा निर्मित करे, जिससे औद्योगिक लोकतंत्र को बल मिले और श्रमिकों के अधिकारों का संवर्धन हो।
अनुच्छेद 48क: इस उपबंध द्वारा यह स्पष्ट किया गया कि राज्य का यह अनिवार्य कर्तव्य होगा कि वह पर्यावरण के संरक्षण और संवर्धन के साथ-साथ वनों तथा वन्य जीवों की रक्षा हेतु नीतिगत एवं प्रशासनिक उपाय अपनाए।
44वाँ संविधान (संशोधन) अधिनियम, 1978
अनुच्छेद 38: इस अनुच्छेद में एक अतिरिक्त उपबंध जोड़ा गया, जिसके अंतर्गत राज्य को यह प्रयास करना होगा कि विभिन्न वर्गों, क्षेत्रों और व्यवसायों में लगे व्यक्तियों के बीच प्रतिष्ठा, सुविधा, आय और अवसरों की असमानता को समाप्त किया जा सके, जिससे समाज में समता आधारित व्यवस्था का निर्माण संभव हो।
86वाँ संविधान (संशोधन) अधिनियम, 2002
अनुच्छेद 45: इस अनुच्छेद की विषयवस्तु में संशोधन कर इसे पुनः परिभाषित किया गया। अब राज्य का यह कर्तव्य होगा कि वह 6 वर्ष से कम आयु के सभी बालकों को प्रारंभिक बाल्यावस्था की देखभाल और शिक्षा देने हेतु उचित व्यवस्था सुनिश्चित करे, जिससे बालकों का सर्वांगीण विकास प्रारंभिक स्तर से ही सशक्त हो।
97वाँ संविधान (संशोधन) अधिनियम, 2011
अनुच्छेद 43ख: इस अनुच्छेद के द्वारा राज्य को यह निर्देशित किया गया कि वह सहकारी समितियों के स्वैच्छिक गठन, स्वायत्त संचालन, लोकतांत्रिक नियंत्रण एवं व्यावसायिक प्रबंधन को प्रोत्साहन और समर्थन प्रदान करे, जिससे ये संस्थाएँ लोक-सहभागिता पर आधारित सतत आर्थिक विकास की दिशा में सक्रिय हो सकें।
संविधान के भाग-4 से बाहर के नीति निदेशक तत्व (Directive Principles Outside Part-4 of the Constitution)
अनुच्छेद 335: सेवाओं और पदों के संदर्भ में अनुसूचित जातियों तथा अनुसूचित जनजातियों के दावे— यह अनुच्छेद निर्देश देता है कि संघ या राज्य सरकार द्वारा विभिन्न लोक सेवाओं एवं पदों पर नियुक्तियों के समय अनुसूचित जातियों और जनजातियों के दावों का ध्यान, प्रशासन की दक्षता के साथ संतुलन बनाए रखते हुए रखा जाना चाहिए। यह उपबंध सामाजिक न्याय और प्रतिनिधित्व के सिद्धांत को संस्थागत रूप प्रदान करता है।
अनुच्छेद 350क: मातृभाषा में प्राथमिक शिक्षा की सुविधा— यह अनुच्छेद राज्य सरकारों और स्थानीय निकायों को यह निर्देश देता है कि वे राज्य के भीतर रहने वाले भाषाई अल्पसंख्यकों के बालकों के लिए प्राथमिक शिक्षा की व्यवस्था उनकी मातृभाषा में सुनिश्चित करने का प्रयास करें। साथ ही, राष्ट्रपति को यह अधिकार प्राप्त है कि वह राज्य सरकारों को आवश्यक निर्देश जारी कर सके, जिससे इन सुविधाओं का व्यावहारिक कार्यान्वयन हो।
अनुच्छेद 351: हिंदी भाषा के संवर्धन के लिए निर्देश— संघ का यह संवैधानिक कर्तव्य घोषित किया गया है कि वह हिंदी भाषा का विकास और प्रसार इस प्रकार करे कि वह भारत की समन्वित संस्कृति के समस्त पक्षों की अभिव्यक्ति का सक्षम माध्यम बन सके। इसमें यह भी कहा गया है कि हिंदी को विकसित करते समय हिंदुस्तानी शैली, अन्य भारतीय भाषाओं में प्रयुक्त अभिव्यक्तियों, और संस्कृत तथा अन्य स्रोतों से शब्द संग्रह करते हुए, हिंदी को शैली, शब्द-भंडार, और अभिव्यक्ति की दृष्टि से समृद्ध किया जाना चाहिए।
मूल अधिकार और नीति निदेशक तत्वों के मध्य संबंध (Relationship between Fundamental Rights and Directive Principles)
भारतीय संविधान में मूल अधिकार और राज्य की नीति के निदेशक तत्व— दोनों को एक-दूसरे के परिपूरक के रूप में समझा जाता है। जहाँ मूल अधिकार, नागरिकों को व्यक्तिगत स्वतंत्रता और सुरक्षा प्रदान करते हैं तथा राज्य की सीमाओं को परिभाषित करते हैं, वहीं नीति निदेशक तत्व, सरकार को समाज कल्याण, आर्थिक न्याय और समता की दिशा में सक्रिय पहल करने हेतु मार्गदर्शन प्रदान करते हैं।
इन दोनों के मध्य एक प्रमुख अंतर यह है कि मूल अधिकार, न्यायालय द्वारा प्रवर्तनीय (Justiciable) हैं—यानी यदि इनका उल्लंघन होता है, तो व्यक्ति न्यायालय में जा सकता है। जबकि राज्य की नीति के निदेशक तत्व, अनुच्छेद 37 के अनुसार, देश के शासन की मूलभूत आधारशिला माने जाते हैं, किंतु ये न्यायालय में प्रवर्तनीय नहीं हैं। इसका अर्थ है कि राज्य इनका पालन करने के लिए बाध्य है, परंतु यदि वह ऐसा न करे तो नागरिक न्यायालय में इसकी मांग नहीं कर सकता।
इस सिद्धांतगत भिन्नता के कारण, कार्यपालिका और न्यायपालिका के बीच समय-समय पर टकराव उत्पन्न होते रहे हैं, विशेष रूप से जब नीति निदेशक तत्वों को लागू करने के लिए कोई कानून बनाया गया हो जो मूल अधिकारों से टकरा जाए।
इस विषय पर संवैधानिक संशोधनों और न्यायिक निर्णयों के माध्यम से उत्पन्न विवादों और उनके समाधान को विस्तृत बिंदुओं के माध्यम से समझा जा सकता है—
महत्वपूर्ण न्यायिक निर्णय और संवैधानिक संशोधन: मूल अधिकार बनाम नीति निदेशक तत्व
मद्रास राज्य बनाम चम्पकम दोरायराजन वाद, 1951:
यह वाद मूल अधिकारों और नीति निदेशक तत्वों के मध्य उत्पन्न प्रथम संवैधानिक संघर्ष था। भारत के उच्चतम न्यायालय ने स्पष्ट रूप से यह निर्णय दिया कि यदि दोनों के बीच कोई विरोधाभास उत्पन्न होता है, तो मूल अधिकारों को प्राथमिकता दी जाएगी। यद्यपि, न्यायालय ने यह भी उल्लेखनीय माना कि नीति निदेशक तत्वों को लागू करने के लिए आवश्यक होने पर मूल अधिकारों में संवैधानिक संशोधन किया जा सकता है।
इस निर्णय की प्रतिक्रिया स्वरूप, संसद ने क्रमशः प्रथम संविधान संशोधन अधिनियम, 1951, चौथा संशोधन अधिनियम, 1955, एवं सत्रहवाँ संशोधन अधिनियम, 1964 के माध्यम से कुछ निदेशक तत्वों के कार्यान्वयन को संभव बनाया।
केरल शिक्षा मद विधेयक, 1959 (Harmonious Interpretation):
इस मामले में, उच्चतम न्यायालय ने निर्णय दिया कि नीति निदेशक तत्व, मूल अधिकारों पर वरीय नहीं हो सकते, परंतु दोनों में जब कभी संघर्ष उत्पन्न हो, तो सामंजस्यपूर्ण व्याख्या का सिद्धांत (Harmonious Construction) अपनाया जाना चाहिए। न्यायालय ने यह स्पष्ट किया कि दोनों को संविधान में समान महत्व दिया जाना चाहिए, क्योंकि दोनों का उद्देश्य जनकल्याण है।
गोलकनाथ बनाम पंजाब राज्य वाद, 1967:
इस निर्णय में उच्चतम न्यायालय ने यह ऐतिहासिक मत दिया कि मूल अधिकारों को संविधान के अंतर्गत “अविभाज्य” स्थान प्राप्त है तथा संसद को संविधान के अनुच्छेद 13(2) के अंतर्गत इन अधिकारों में संशोधन का अधिकार प्राप्त नहीं है, भले ही उद्देश्य नीति निदेशक तत्वों का क्रियान्वयन ही क्यों न हो। इस निर्णय ने नीति निदेशक तत्वों की तुलना में मूल अधिकारों की सर्वोच्चता को और अधिक सुदृढ़ किया।
24वाँ एवं 25वाँ संविधान संशोधन अधिनियम:
गोलकनाथ निर्णय की पृष्ठभूमि में, संसद ने 24वाँ संविधान संशोधन पारित किया, जिसके अंतर्गत यह स्पष्ट किया गया कि संसद को संविधान के किसी भी भाग, मूल अधिकारों सहित, में संशोधन की पूर्ण शक्ति प्राप्त है।
वहीं, 25वें संशोधन में अनुच्छेद 31ग जोड़ा गया, जिसके अनुसार यदि कोई विधि नीति निदेशक तत्वों को लागू करने हेतु बनाई गई हो, तो उसे अनुच्छेद 14, 19 और 31 के अंतर्गत मूल अधिकारों के उल्लंघन के आधार पर अवैध नहीं ठहराया जा सकता।
केशवानंद भारती बनाम केरल राज्य वाद, 1973:
यह भारतीय संवैधानिक इतिहास का मील का पत्थर माना जाता है। इस निर्णय में 13 न्यायाधीशों की पीठ ने यह सर्वसम्मत मत दिया कि संविधान का मूल ढांचा (Basic Structure) अक्षुण्ण रहना चाहिए। न्यायालय ने कहा कि मूल अधिकार और नीति निदेशक तत्व, दोनों मिलकर संविधान की आत्मा (Conscience) हैं और एक-दूसरे के विरोधी नहीं, बल्कि पूरक हैं।
यद्यपि इस वाद में अनुच्छेद 39(ख) और 39(ग) को कुछ हद तक प्राथमिकता प्रदान की गई, लेकिन न्यायिक समीक्षा को सीमित करना संविधान के मूल ढांचे का उल्लंघन बताया गया।
42वाँ संविधान संशोधन अधिनियम, 1976:
इस संशोधन के अंतर्गत, अनुच्छेद 31ग में महत्वपूर्ण परिवर्तन किया गया। अब यह केवल अनुच्छेद 39(ख) और (ग) तक सीमित नहीं रहा, बल्कि सभी नीति निदेशक तत्वों को मूल अधिकारों पर प्राथमिकता दी गई। इससे यह निष्कर्ष निकला कि कोई भी विधि जो नीति निदेशक तत्वों को लागू करती है, उसे अनुच्छेद 14, 19, और 31 के उल्लंघन के आधार पर चुनौती नहीं दी जा सकेगी।
मिनर्वा मिल बनाम भारत संघ, 1980:
इस वाद में उच्चतम न्यायालय ने संविधान के संतुलनकारी स्वरूप की रक्षा करते हुए, 42वें संशोधन के उस प्रावधान को असंवैधानिक घोषित कर दिया, जो सभी निदेशक तत्वों को मूल अधिकारों पर प्राथमिकता देता था। न्यायालय ने अनुच्छेद 31ग को उसकी मूल अवस्था में बहाल करते हुए यह निर्णय दिया कि मूल अधिकार साधन हैं और नीति निदेशक तत्व उद्देश्य हैं—दोनों सह-अस्तित्व में हैं।
न्यायालय ने यह भी कहा कि संविधान की आधारशिला इन दोनों के संतुलन में निहित है, और यदि किसी एक को पूर्ण रूप से दूसरे पर प्राथमिकता दी जाती है, तो यह संविधान के मूल ढांचे को क्षतिग्रस्त करता है।
राज्य की नीति के निदेशक तत्वों और मूल अधिकारों में अंतर (Difference between Fundamental Rights and Directive Principles of State Policy)
मूल अधिकार | नीति निदेशक तत्व |
---|---|
• वाद योग्य होते हैं, अर्थात् इन्हें न्यायालय में प्रवर्तित किया जा सकता है। | • ये वाद योग्य नहीं होते हैं, न्यायालय के माध्यम से इनका प्रवर्तन संभव नहीं होता। |
• ये राज्य की शक्तियों को सीमित करते हैं, इस प्रकार इनका स्वरूप नकारात्मक होता है। | • ये राज्य को सामाजिक कल्याण हेतु प्रेरित करते हैं, अतः इनका स्वरूप सकारात्मक होता है। |
• इनका उद्देश्य व्यक्ति विशेष के कल्याण की रक्षा करना होता है। | • ये समष्टिगत कल्याण की प्राप्ति हेतु दिशा-निर्देश प्रदान करते हैं। |
• ये राजनीतिक लोकतंत्र की स्थापना में सहायक होते हैं। | • ये सामाजिक एवं आर्थिक लोकतंत्र को साकार करने का प्रयास करते हैं। |
• ये स्वतः प्रवर्तनीय होते हैं, इनके क्रियान्वयन के लिए किसी विधायी हस्तक्षेप की आवश्यकता नहीं होती। | • इनकी प्रवर्तनीयता के लिए विधि निर्माण की आवश्यकता होती है। |
• यदि इनका उल्लंघन होता है तो न्यायालय किसी कानून को असंवैधानिक घोषित कर सकता है। | • इनका उल्लंघन करने पर न्यायालय हस्तक्षेप नहीं कर सकता, अर्थात् कानून अवैध घोषित नहीं किया जा सकता। |
• राष्ट्रीय आपातकाल के समय अनुच्छेद 20 और 21 को छोड़कर अन्य सभी मूल अधिकार निलंबित किए जा सकते हैं। | • निदेशक तत्वों का क्रियान्वयन केवल विधि द्वारा ही संभव है, अन्यथा वे निष्क्रिय ही रहते हैं। |
निदेशक तत्वों का क्रियान्वयन (Implementation of Directive Principles)
अनुच्छेद 38
• 1950 में योजना आयोग की स्थापना हुई, जिसे बाद में नीति आयोग द्वारा प्रतिस्थापित किया गया।
अनुच्छेद 39
• भूमि सुधार कानून, न्यूनतम मजदूरी अधिनियम (1948), समान पारिश्रमिक अधिनियम (1976), बाल श्रम उन्मूलन, तथा विधिक सेवा प्राधिकरण अधिनियम (1987) का निर्माण हुआ।
अनुच्छेद 40
• 73वाँ एवं 74वाँ संविधान संशोधन स्थानीय स्वशासन की स्थापना हेतु अधिनियमित हुए।
अनुच्छेद 41
• मनरेगा, वरिष्ठ नागरिक पेंशन योजनाएँ, तथा अन्य सामाजिक सुरक्षा योजनाओं की शुरुआत।
अनुच्छेद 42
• प्रसूति लाभ अधिनियम (1961) का निर्माण।
अनुच्छेद 43
• खादी एवं ग्रामोद्योग बोर्ड, लघु उद्योग बोर्ड, हथकरघा बोर्ड, एवं सिल्क बोर्ड की स्थापना।
अनुच्छेद 45
• शिक्षा का अधिकार को मूल अधिकार घोषित किया गया; एकीकृत बाल विकास कार्यक्रम लागू किया गया।
अनुच्छेद 46
• अनुसूचित जाति और जनजातियों के लिए आरक्षण, नौकरी, एवं शैक्षिक अवसर, साथ ही संवैधानिक आयोगों की स्थापना।
अनुच्छेद 47
• प्राथमिक से राष्ट्रीय स्तर तक स्वास्थ्य केंद्रों की स्थापना, एड्स, कुष्ठ, पोलियो, जापानी बुखार जैसे रोगों के लिए अभियानों की शुरुआत, तथा कुछ राज्यों में शराबबंदी लागू की गई।
अनुच्छेद 48
• कुछ राज्यों में गाय एवं बछड़ों के वध पर प्रतिबंध, हाथी एवं बाघ परियोजना, और वन्य जीव संरक्षण अधिनियम, 1972 के माध्यम से संरक्षण उपाय।
अनुच्छेद 49
• प्राचीन स्मारक, पुरातात्विक स्थल एवं अवशेष अधिनियम, 1951 का प्रवर्तन।
अनुच्छेद 50
• आपराधिक प्रक्रिया संहिता, 1973 के तहत कार्यपालिका और न्यायपालिका का पृथक्करण सुनिश्चित किया गया।
अनुच्छेद 51
• गुटनिरपेक्ष आंदोलन और पंचशील सिद्धांतों के माध्यम से अंतरराष्ट्रीय सहयोग और शांति की स्थापना का प्रयास।
नीति निदेशक तत्वों की आलोचना (Criticism of Directive Principles)
संवैधानिक टकराव
• केंद्र और राज्यों के बीच: भारतीय संविधान में कहीं भी यह उल्लेख नहीं किया गया है कि केंद्र सरकार राज्यों को नीति निदेशक तत्वों के क्रियान्वयन हेतु बाध्य कर सकती है। यदि कोई राज्य इन तत्वों को लागू करने में असमर्थता प्रदर्शित करता है, तो इस आधार पर केंद्र द्वारा राज्य सरकार को बर्खास्त नहीं किया जा सकता।
• राष्ट्रपति और प्रधानमंत्री के बीच: यदि कोई विधेयक निर्देशक तत्वों के विरुद्ध है, तो राष्ट्रपति उसे यह कहकर वापस भेज सकते हैं कि यह तत्व शासन की मूल अवधारणाओं से संबंधित हैं और इसे अस्वीकार करना मंत्रालय के लिए संभव नहीं।
• राज्यपाल और मुख्यमंत्री के बीच: जैसा टकराव राष्ट्रपति एवं प्रधानमंत्री के बीच उत्पन्न हो सकता है, वैसा ही टकराव राज्यपाल और मुख्यमंत्री के बीच भी संभव है।
रूढ़िवादी स्वभाव
• सर आइवर जेनिंग्स ने नीति निर्देशक तत्वों की वैचारिक पृष्ठभूमि को 19वीं सदी के ब्रिटिश राजनीतिक सिद्धांतों पर आधारित बताया है। उनके अनुसार, ये तत्व 20वीं सदी के मध्य तक उपयोगी हो सकते हैं, परंतु 21वीं सदी में अप्रासंगिक हो जाएंगे। उन्होंने इन्हें ऐसा फेबियन समाजवाद कहा जिसमें समाजवाद ही अनुपस्थित है।
विधिक बल का अभाव
• नीति निर्देशक तत्वों की वाद योग्य (justiciable) न होने की प्रकृति के कारण इन्हें अक्सर आलोचना का विषय बनाया जाता है।
• के.टी. शाह ने इन्हें अतिरिक्त कर्मकांड की संज्ञा देते हुए कहा कि यह ऐसा चेक है जिसका भुगतान बैंक की इच्छानुसार ही संभव है।
• डी.टी. कृष्णमाचारी ने इन्हें भावनाओं का स्थायी कूड़ाघर कहा।
• के.सी. व्हेयर के अनुसार यह केवल लक्ष्यों और आकांक्षाओं की घोषणा मात्र है।
प्रमुख विचारकों के दृष्टिकोण
• ग्रेनविल ऑस्टिन: उनके अनुसार नीति निर्देशक तत्वों का उद्देश्य सामाजिक क्रांति के लिए आवश्यक संरचनात्मक स्थितियाँ निर्मित करना है। उन्होंने भाग-3 (मूल अधिकार) और भाग-4 (नीति निर्देशक तत्व) को संविधान की आत्मा बताया।
• डॉ. भीमराव अम्बेडकर: उन्होंने कहा कि निर्देशक तत्व लोकतंत्र की दिशा तय करते हैं।
• सर वी.एन. राव: उन्होंने इन्हें राज्य प्राधिकरणों के लिए नैतिक निर्देश और शैक्षणिक मूल्यों का स्रोत माना।
• न्यायमूर्ति हेगड़े: नीति निर्देशक तत्वों को उन्होंने ऐसी अहिंसक सामाजिक क्रांति का माध्यम बताया जो आम आदमी की बुनियादी आवश्यकताओं को पूरा करने और समाज की संरचना को परिवर्तित करने का प्रयास करता है।
• एम.सी. सीतलवाड: उनके अनुसार नीति निर्देशक तत्व उन सामाजिक और आर्थिक मूल सिद्धांतों की याद दिलाते हैं जो संविधान द्वारा निर्धारित लक्ष्यों की प्राप्ति से जुड़े हैं।
निर्देशक तत्वों का महत्व (Importance of Directive Principles)
• मूल अधिकारों के पूरक: नीति निर्देशक तत्व उन अधिकारों का प्रतिनिधित्व करते हैं जो मूल अधिकारों से परे जाकर सकारात्मक अधिकारों की ओर इंगित करते हैं, जैसे – काम का अधिकार, शिक्षा का अधिकार, विधिक सहायता का अधिकार आदि।
• शासन के मूल्यांकन का मापदंड: नागरिक, सरकार की नीतियों, कार्यक्रमों और योजनाओं के क्रियान्वयन के माध्यम से यह परीक्षण कर सकते हैं कि नीति निर्देशक तत्वों का अनुपालन हो रहा है या नहीं।
• राजनीतिक स्थिरता में सहायक: विभिन्न राजनीतिक दलों की विचारधाराएँ भिन्न हो सकती हैं, परंतु सरकार किसी भी दल की हो, उसे इन्हीं तत्वों के आलोक में नीतियों का निर्माण करना होता है, जिससे राजनीतिक स्थिरता बनी रहती है।
• संवैधानिक व्याख्या में सहायक: न्यायालय द्वारा किसी संवैधानिक प्रावधान की व्याख्या में नीति निर्देशक तत्वों को दिशानिर्देश के रूप में उपयोग किया जा सकता है।
• न्यायपालिका के लिए मार्गदर्शक: उच्चतम न्यायालय ने बिहार राज्य बनाम कामेश्वर सिंह वाद में अनुच्छेद 39(ख) का संदर्भ लेते हुए यह निर्णय दिया कि जमींदारी उन्मूलन जनहित में है।
• विपक्ष की भूमिका को मजबूती: विपक्ष इन तत्वों को आधार बनाकर सरकार पर नीतिगत दबाव बना सकता है ताकि सरकार इन तत्वों की उपेक्षा न कर सके और योजनाओं का निर्माण इन सिद्धांतों के अनुरूप हो।