संस्कृति एवं शिक्षा से संबंधित अधिकार तथा संवैधानिक उपचार का अधिकार

अल्पसंख्यक समुदायों के हितों की सुरक्षा (Protection of Interests of Minorities)

अनुच्छेद 29(1) – भारत के भीतर निवास करने वाले सभी नागरिकों को, जिनकी अपनी विशिष्ट भाषा, लिपि, अथवा संस्कृति है, उसे संरक्षित रखने का मौलिक अधिकार प्राप्त है।

अनुच्छेद 29(2) – किसी भी राज्य पोषित अथवा राज्य सहायता प्राप्त शैक्षणिक संस्था में, केवल धर्म, वंश, जातीय समूह, भाषा या इनमें से किसी भी आधार पर, किसी नागरिक को प्रवेश से वंचित नहीं किया जा सकता।

शिक्षा संस्थाओं की स्थापना एवं प्रबंधन का अल्पसंख्यकों को प्राप्त अधिकार (Right of Minorities to Establish and Administer Educational Institutions)

अनुच्छेद 30(1) – धर्म या भाषा के आधार पर परिभाषित सभी अल्पसंख्यकों को, अपनी पसंद की शैक्षणिक संस्थाएं स्थापित करने तथा उनका प्रशासनिक नियंत्रण बनाए रखने का संवैधानिक अधिकार है।

अनुच्छेद 30(1क) – किसी अल्पसंख्यक वर्ग द्वारा स्थापित एवं संचालित शिक्षण संस्थान की अचल संपत्ति के अनिवार्य अधिग्रहण की स्थिति में, राज्य द्वारा ऐसी कानून व्यवस्था बनाते समय यह सुनिश्चित किया जाना चाहिए कि मुआवजा राशि इतनी हो जिससे उनके सुनिश्चित अधिकार प्रभावित न हों।

अनुच्छेद 30(2) – राज्य किसी शैक्षणिक संस्था को आर्थिक सहायता देने में इस आधार पर पक्षपात नहीं करेगा कि वह किसी विशेष धर्म अथवा भाषा से संबंधित अल्पसंख्यक समुदाय द्वारा प्रशासित है।

अल्पसंख्यक – संविधान में ‘अल्पसंख्यक’ शब्द की कोई स्पष्ट परिभाषा नहीं दी गई है। टी.एम.ए. पाई बनाम कर्नाटक राज्य के निर्णय में उच्चतम न्यायालय ने यह निर्देशित किया कि धर्म एवं भाषा के आधार पर अल्पसंख्यक की परिभाषा प्रत्येक राज्य की जनसंख्या संरचना के आधार पर निर्धारित की जानी चाहिए।

कुछ अधिनियमों/विनियमों का संरक्षण एवं विधिमान्यता

अनुच्छेद 31 – संपत्ति का अनिवार्य अधिग्रहण (Compulsory Acquisition of Property)

संपत्ति का अधिकार, जो पूर्व में मौलिक अधिकार था, उसे 44वें संविधान संशोधन अधिनियम, 1978 द्वारा समाप्त कर दिया गया तथा अनुच्छेद 300(क) के माध्यम से इसे कानूनी अधिकार का दर्जा प्रदान किया गया।

अनुच्छेद 31(क) – ऐसी विधियों को संविधानिक संरक्षण प्रदान करता है जो संपत्ति के अधिग्रहण, स्वामित्व अधिकारों में संशोधन, या प्रबंधन व्यवस्था के नियंत्रण हेतु बनाई गई हों

यह प्रथम संविधान संशोधन अधिनियम, 1951 के अंतर्गत जोड़ा गया, और इसका प्रमुख उद्देश्य भूमि सुधार से संबंधित कानूनों को न्यायिक परीक्षण से बचाना था।

यह अनुच्छेद यह सुनिश्चित करता है कि:

अनुच्छेद 13 की सीमाओं के बावजूद:

  • किसी संपत्ति अथवा उससे संबंधित अधिकारों का राज्य द्वारा अर्जन, समाप्ति, या उनमें संशोधन,
  • जनहित में संपत्ति का सीमित अवधि के लिए राज्याधीन प्रबंधन,
  • निगमों का एकीकरण या उनके प्रभावी संचालन हेतु परिवर्तन,
  • निगम अधिकारियों के अधिकारों अथवा मताधिकार में हेरफेर,
  • खनिज या खनिज तेल से संबंधित पट्टों/लाइसेंसों के संबंध में अधिकारों का समापन या संशोधन,

उक्त सभी के लिए बनायी गई विधियाँ इस आधार पर अमान्य नहीं मानी जाएंगी कि वे अनुच्छेद 14 या 19 से असंगत हैं।

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राज्य विधानमंडल द्वारा ऐसी कोई विधि बनाने के पश्चात, उसे राष्ट्रपति की अनुमति प्राप्त होना आवश्यक होगा।

अनुच्छेद 31(ख) – कुछ अधिनियमों एवं विनियमों की विधिमान्यता (Validation of Certain Acts and Regulations)

अनुच्छेद 31(ख) को भी प्रथम संविधान संशोधन अधिनियम, 1951 के अंतर्गत जोड़ा गया था। यह 9वीं अनुसूची में समाविष्ट अधिनियमों और नियमों को संवैधानिक संरक्षण प्रदान करता है।

यह अनुच्छेद, अनुच्छेद 31(क) की तुलना में अधिक विस्तृत है, क्योंकि इसके अंतर्गत 9वीं अनुसूची में सम्मिलित किसी भी कानून को मौलिक अधिकारों के उल्लंघन के आधार पर न्यायिक समीक्षा हेतु प्रस्तुत नहीं किया जा सकता।

हालांकि, आई.आर. कोएल्हो बनाम तमिलनाडु राज्य, 2007 के ऐतिहासिक निर्णय में उच्चतम न्यायालय ने यह घोषित किया कि न्यायिक समीक्षा संविधान की एक मूल विशेषता है और इसे निरस्त नहीं किया जा सकता।

24 अप्रैल, 1973 के पश्चात यदि कोई कानून 9वीं अनुसूची में जोड़ा जाता है और वह अनुच्छेद 14, 15, 19 अथवा 21 का उल्लंघन करता है, तो उसे न्यायालय में चुनौती दी जा सकती है।

अनुच्छेद 31(ग) – नीति निर्देशक तत्वों को प्रभावी करने हेतु विधियों की विधिमान्यता (Validation of Certain Acts and Regulations to Implement Directive Principles)

अनुच्छेद 31(ग) को 25वें संविधान संशोधन अधिनियम, 1971 के माध्यम से संविधान में शामिल किया गया। इसके तहत, यदि राज्य द्वारा अनुच्छेद 39(ख) और 39(ग) के नीति निर्देशक सिद्धांतों को लागू करने हेतु कोई विधि बनाई जाती है, तो उसे इस आधार पर अवैध घोषित नहीं किया जा सकता कि वह अनुच्छेद 14 अथवा 19 का उल्लंघन करती है।

42वें संविधान संशोधन द्वारा इस अनुच्छेद का विस्तार किया गया तथा अब इसमें भाग 4 में उल्लिखित सभी नीति निर्देशक सिद्धांत सम्मिलित किए जा सकते हैं।

अनुच्छेद 32 – संवैधानिक उपचार का अधिकार (Right to Constitutional Remedies)

संवैधानिक उपचार का अधिकार वह प्राथमिक अधिकार है जिसके माध्यम से किसी भी मौलिक अधिकार के उल्लंघन की स्थिति में न्यायिक संरक्षण प्राप्त किया जा सकता है। यह अधिकार अपने आप में एक स्वतंत्र मौलिक अधिकार है।

डॉ. भीमराव अंबेडकर ने इसे भारतीय संविधान की ‘आत्मा और हृदय’ की संज्ञा दी थी, जो यह प्रतिबिंबित करता है कि यह अत्यंत महत्वपूर्ण, गंभीर, और न्यायिक संरचना की रीढ़ है।

अनुच्छेद 32(2) में उल्लिखित रिट्स

बंदी प्रत्यक्षीकरण (Habeas Corpus)

इस रिट का शाब्दिक अर्थ है — “शरीर को न्यायालय के समक्ष प्रस्तुत किया जाए”। यह महत्वपूर्ण रिट न्यायालय को किसी ऐसे व्यक्ति को प्रस्तुत करने का आदेश देने का अधिकार देता है, जिसे गिरफ्तार किया गया है। यदि गिरफ्तारी की प्रक्रिया अवैध या असंविधानिक पाई जाती है, तो न्यायालय उस व्यक्ति को मुक्त करने का निर्देश दे सकता है। इस रिट की प्रभावशीलता सार्वजनिक प्राधिकरणों के साथ-साथ निजी व्यक्तियों पर भी लागू होती है।

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यह रिट निम्नलिखित परिस्थितियों में लागू नहीं होती है:

  • गिरफ्तारी विधिसम्मत हो।
  • गिरफ्तारी न्यायालय के आदेश पर की गई हो।
  • विधायी कार्यवाही से संबंधित हो।
  • गिरफ्तारी न्यायालय की भौगोलिक सीमाओं के बाहर हुई हो।
  • न्यायालय की अवमानना के तहत की गई हो।

परमादेश (Mandamus)

इसका तात्पर्य है — “हम आदेश देते हैं”। जब कोई सार्वजनिक अधिकारी अथवा प्राधिकरण अपने वैधानिक या संवैधानिक कर्तव्यों के पालन में विफल होता है, और यह निष्क्रियता किसी व्यक्ति के मौलिक अधिकार को प्रभावित करती है, तब यह रिट जारी की जाती है। यह रिट अधीनस्थ न्यायालयों, सरकारी संस्थाओं या अन्य सार्वजनिक निकायों के विरुद्ध प्रभावी होती है।

निम्नलिखित परिस्थितियों में परमादेश लागू नहीं होती:

  • निजी व्यक्तियों के विरुद्ध।
  • गैर-संवैधानिक निकायों के विरुद्ध।
  • संविदात्मक (Contractual) कार्यों से संबंधित मामलों में।
  • उच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश के विरुद्ध।
  • भारत के राष्ट्रपति और राज्यों के राज्यपालों के विरुद्ध।

प्रतिषेध (Prohibition)

इस रिट का अर्थ है — “रोकना”। जब कोई अधीनस्थ न्यायालय अपने अधिकार क्षेत्र से बाहर जाकर कार्य करता है, तो उच्च न्यायालय या सर्वोच्च न्यायालय उसे ऐसा करने से रोकने हेतु यह रिट जारी कर सकता है। यह रिट केवल न्यायिक अथवा अर्द्ध-न्यायिक निकायों पर लागू होती है。

उत्प्रेषण (Certiorari)

इसका शाब्दिक अर्थ है — “प्रमाणित करना या सूचना देना”। यह रिट तब जारी की जाती है जब अधीनस्थ न्यायालयों या अर्द्ध-न्यायिक प्राधिकरणों द्वारा प्रक्रियागत त्रुटियों के आधार पर न्यायालय मामले को अपने पास स्थानांतरित कर लेता है। यह रिट दोनों — वैधानिक निकायों तथा प्रशासनिक प्राधिकरणों के विरुद्ध जारी की जा सकती है। वर्ष 1991 में सर्वोच्च न्यायालय ने यह स्पष्ट किया कि यह रिट प्रशासनिक कार्यवाहियों पर भी लागू होती है, बशर्ते वे नागरिक अधिकारों को प्रभावित करती हों।

अधिकार पृच्छा (Quo Warranto)

इसका तात्पर्य है — “तुम किस अधिकार से पद धारण करते हो?”। जब कोई व्यक्ति अंवैधानिक ढंग से किसी सार्वजनिक पद पर नियुक्त हो जाता है, तो न्यायालय यह रिट जारी कर सकता है जिससे उस व्यक्ति की पदधारण की वैधता की जाँच हो सके। यह रिट निजी व्यक्तियों के विरुद्ध लागू नहीं होती है, किंतु कोई भी सार्वजनिक हित धारक इसे याचिका के रूप में दायर कर सकता है।

संवैधानिक उपचारों के अधिकार की विशेषताएँ

  • सभी नागरिकों को यह मौलिक अधिकार प्राप्त है कि यदि उनके मूल अधिकारों का उल्लंघन होता है, तो वे सीधे सर्वोच्च न्यायालय या उच्च न्यायालय में अपील कर सकते हैं।
  • सर्वोच्च न्यायालय, अनुच्छेद 32 के अंतर्गत, मौलिक अधिकारों के संरक्षण हेतु रिट जारी करने में प्रतिबद्ध है।
  • संसद, किसी अन्य न्यायालय को भी रिट जारी करने की शक्ति सौंप सकती है।
  • अनुच्छेद 352 के अंतर्गत घोषित आपातकाल की स्थिति में, केवल अनुच्छेद 20 और 21 को छोड़कर अन्य सभी मौलिक अधिकार निलंबित किए जा सकते हैं।
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सर्वोच्च न्यायालय और उच्च न्यायालय की रिट अधिकारिता में अंतर

बिंदुसर्वोच्च न्यायालयउच्च न्यायालय
अधिकार की सीमाएँकेवल मौलिक अधिकारों के उल्लंघन पर रिट जारी कर सकता है।अनुच्छेद 226 के तहत मौलिक अधिकारों के अलावा अन्य उद्देश्यों के लिए भी रिट जारी कर सकता है।
अनिवार्यतारिट जारी करने से इनकार नहीं कर सकता।विवेकाधीन शक्तियाँ रखता है, अतः रिट देने से इनकार कर सकता है।
दायराकिसी व्यक्ति या सरकार के विरुद्ध रिट जारी कर सकता है।संबंधित राज्य के अंतर्गत या बाह्य मामलों पर भी रिट जारी कर सकता है।

अनुच्छेद 33 – सशस्त्र बलों पर मूल अधिकारों का सीमित प्रयोग (Restriction of Fundamental Rights for Armed Forces)

अनुच्छेद 33 के अंतर्गत भारतीय संसद को यह विशेषाधिकार प्राप्त है कि वह सशस्त्र बलों, खुफिया संगठनों अथवा तद्वत अन्य बलों के सदस्यों के मौलिक अधिकारों पर उचित एवं न्यायसंगत प्रतिबंध लगा सके, जिससे कि ये संगठन अपने संवैधानिक कर्तव्यों का प्रभावी निर्वहन कर सकें और उनमें अनुशासन एवं कार्यक्षमता बनी रहे। संसद द्वारा पारित ऐसे किसी भी विधिक प्रावधान को न्यायिक समीक्षा के दायरे से बाहर रखा गया है। उदाहरणस्वरूप, सेना अधिनियम, 1950, वायुसेना अधिनियम, 1950, तथा नौसेना अधिनियम, 1950 जैसे अधिनियम इसी संवैधानिक अनुच्छेद के तहत अधिनियमित किए गए हैं।

अनुच्छेद 34 – मार्शल लॉ के दौरान मूल अधिकारों की वैधता (Validity of Fundamental Rights during Martial Law)

अनुच्छेद 34 के अनुसार, यदि भारत के किसी भाग में मार्शल लॉ की घोषणा की जाती है, तो उस स्थिति में मौलिक अधिकारों पर अस्थायी प्रतिबंध लगाया जा सकता है। यह अनुच्छेद संसद को यह अधिकार प्रदान करता है कि वह मार्शल लॉ के अंतर्गत निष्पादित कार्यों, आदेशों, दंडों अथवा अन्य प्राधिकृत कार्रवाइयों को वैधता प्रदान करने हेतु प्रतिपूर्ति विधि बना सके। ऐसे प्रतिपूरक कानून न्यायालय में इस आधार पर चुनौती योग्य नहीं होते कि वे मौलिक अधिकारों का उल्लंघन करते हैं।

मार्शल लॉ और राष्ट्रीय आपातकाल के मध्य अंतर (Difference between Martial Law and National Emergency)

मार्शल लॉराष्ट्रीय आपातकाल
संविधान में मार्शल लॉ की कोई सुस्पष्ट परिभाषा नहीं दी गई है।अनुच्छेद 352 में इसकी विशद व्याख्या निहित है।
यह देश के किसी विशिष्ट क्षेत्र में लागू किया जा सकता है।यह किसी क्षेत्र विशेष या संपूर्ण भारतवर्ष में लागू हो सकता है।
केवल मौलिक अधिकारों पर प्रतिबंध लगता है।मौलिक अधिकारों के अतिरिक्त संघीय ढाँचा भी प्रभावित होता है।
कानून-व्यवस्था के पूर्ण पतन की स्थिति में इसे लागू किया जाता है।यह केवल युद्ध, बाह्य आक्रमण, या सशस्त्र विद्रोह की दशा में ही लागू हो सकता है।

अनुच्छेद 35 – मूल अधिकारों को प्रभावी बनाने हेतु विधायिका का विशेषाधिकार (Parliamentary Authority to Enforce Fundamental Rights)

अनुच्छेद 35 संसद को कुछ निश्चित मौलिक अधिकारों को प्रभावी बनाने हेतु विधि निर्माण का विशेषाधिकार प्रदान करता है। यह अधिकार केवल संसद को प्राप्त होता है, राज्य विधानमंडलों को नहीं। अनुच्छेद 35 के अंतर्गत संसद को अनुच्छेद 16(3), 17, 23, 32(3), 33, और 34 से संबंधित अधिकारों को प्रभावी रूप देने के लिए विधिक प्रावधान बनाने का पूर्णाधिकार प्राप्त है।

मूल अधिकारों का महत्व (Importance of Fundamental Rights)

  • मूल अधिकार, भारत में विधि के शासन की अवधारणा को सुनिश्चित करते हैं।
  • ये सरकार की सीमाओं का निर्धारण करते हैं एवं लोकतांत्रिक शासन प्रणाली को सशक्त करते हैं।
  • ये व्यक्ति की स्वतंत्रता और गरिमा की रक्षा करते हैं।
  • ये सामाजिक न्याय एवं समानता की स्थापना कर वंचित वर्गों के हितों की सुरक्षा करते हैं।
  • ये भारत की पंथनिरपेक्ष पहचान को सुदृढ़ करते हैं और धार्मिक स्वतंत्रता को पोषित करते हैं।
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