
- 1600 ई. में ब्रिटिश महारानी विक्टोरिया प्रथम ने एक चार्टर द्वारा ईस्ट इंडिया कम्पनी को भारत में व्यापार का एकाधिकार प्रदान किया। प्रारंभ में यह केवल एक व्यावसायिक संगठन था, किंतु समय के साथ इसकी महत्त्वाकांक्षाएँ बढ़ती गईं। शीघ्र ही राजनीतिक परिस्थितियाँ ऐसी बनीं कि कम्पनी ने क्षेत्रीय सत्ता पर अधिकार कर लिया, जिससे ब्रिटिश संसद का भारत पर नियंत्रण स्थापित हो गया।
- क्षेत्रीय शक्ति बनने के पश्चात कम्पनी के माध्यम से ब्रिटिश सरकार ने व्यापार और शासन व्यवस्था को नियंत्रित करने हेतु अधिनियमों को लागू किया।
- 1857 के विद्रोह के उपरांत, ब्रिटिश सरकार ने कम्पनी का शासन समाप्त कर प्रत्यक्ष नियंत्रण स्थापित किया। इस अवधि में ब्रिटिश संसद द्वारा पारित विभिन्न अधिनियमों ने भारत के प्रशासन को संरचित करने के साथ-साथ भारतीय संविधान पर भी महत्त्वपूर्ण प्रभाव डाला।
ब्रिटिश शासनकाल में संवैधानिक विकास के प्रमुख पहलू
- 1726 के चार्टर द्वारा कलकत्ता, बंबई तथा मद्रास प्रेसीडेंसी के गवर्नरों को विधि निर्माण की शक्ति दी गई।
- 1765 की इलाहाबाद संधि के तहत कम्पनी को बंगाल, बिहार और उड़ीसा में राजस्व वसूलने का अधिकार प्राप्त हुआ।
- राजस्व अधिकार मिलने के बाद कम्पनी के अधिकारियों में भ्रष्टाचार और लूट-खसोट बढ़ी, जिससे आर्थिक संकट उत्पन्न हुआ।
- कम्पनी ने ब्रिटिश सरकार से आर्थिक सहायता की मांग की, जिसके परिणामस्वरूप 1772 में रेगुलेटिंग एक्ट पारित किया गया।
कम्पनी का शासन (1773-1858) (The Company Rule, 1773-1858)
1773 का रेगुलेटिंग एक्ट क्या था और इसका वर्णन करें?
ब्रिटिश सरकार ने ईस्ट इंडिया कम्पनी की गतिविधियों को नियंत्रित करने के लिए 1773 में रेगुलेटिंग एक्ट पारित किया। इसके अंतर्गत:
- कलकत्ता प्रेसीडेंसी के अंतर्गत गवर्नर जनरल पद स्थापित किया गया तथा बंगाल के गवर्नर को बंगाल का गवर्नर जनरल नाम दिया गया।
- बम्बई और मद्रास प्रेसीडेंसी को कलकत्ता के अधीन कर दिया गया।
- 1774 में कलकत्ता में सुप्रीम कोर्ट की स्थापना हुई, जिसका क्षेत्राधिकार बंगाल, बिहार और उड़ीसा तक था।
- कम्पनी के कर्मचारियों को निजी व्यापार और भारतीयों से उपहार लेने पर प्रतिबंध लगाया गया।
- गवर्नर जनरल की परिषद् द्वारा बनाए गए किसी भी कानून को ब्रिटिश विधियों के विरुद्ध नहीं होना चाहिए और ब्रिटिश सरकार में अपील की जा सकती थी।
आप 1784 के पिट्स इंडिया अधिनियम से क्या समझते हैं? [पिट्स इंडिया एक्ट (Pitts India Act), 1784]
रेगुलेटिंग एक्ट, 1773 की कमियों को दूर करने के लिए 1784 में पिट्स इंडिया एक्ट पारित किया गया। इसे “एक्ट ऑफ सेटलमेंट” भी कहा जाता है। इसके अंतर्गत:
- कम्पनी के राजनीतिक और वाणिज्यिक कार्यों को अलग-अलग किया गया।
- छह सदस्यीय बोर्ड ऑफ कंट्रोल की स्थापना की गई और सैनिक, राजस्व आदि विषय इसके अधीन कर दिए गए।
- गवर्नर जनरल की परिषद् के सदस्यों की संख्या चार से घटाकर तीन कर दी गई, जिनमें से एक मुख्य सेनापति बनाया गया।
- ब्रिटेन में न्यायालय की स्थापना की गई, जो भारत में कार्यरत अंग्रेज अधिकारियों पर मुकदमा चला सकता था।
- पहली बार कम्पनी के शासित प्रदेशों को “ब्रिटिश अधिकृत भारतीय क्षेत्र” कहा गया।
Related Questions
रेगुलेटिंग एक्ट लागू होने के समय भारत का गवर्नर जनरल कौन था?
वॉरेन हेस्टिंग्स रेगुलेटिंग एक्ट, 1773 लागू होने के समय भारत के पहले गवर्नर जनरल थे।
रेग्युलेटिंग एक्ट 1773 द्वारा सर्वोच्च न्यायालय की स्थापना कहाँ की गई थी?
1774 में कलकत्ता (कोलकाता) में सुप्रीम कोर्ट की स्थापना की गई थी|
बंगाल का प्रथम गवर्नर जनरल कौन था?
वॉरेन हेस्टिंग्स बंगाल के प्रथम गवर्नर जनरल थे।
पिट्स इंडिया एक्ट 1784 क्या था?
पिट्स इंडिया एक्ट, 1784 ब्रिटिश सरकार द्वारा पारित एक कानून था, जिसका उद्देश्य ईस्ट इंडिया कम्पनी के प्रशासन को नियंत्रित करना और कम्पनी के राजनीतिक तथा व्यापारिक कार्यों को अलग करना था।
रेगुलेटिंग एक्ट भारत कब आया था?
रेगुलेटिंग एक्ट, 1773 भारत में ब्रिटिश सरकार द्वारा पारित पहला कानून था, जिसका उद्देश्य ईस्ट इंडिया कम्पनी के प्रशासन को नियंत्रित करना था।
रेगुलेटिंग एक्ट 1773 के प्रमुख तत्व क्या थे?
बंगाल के गवर्नर को गवर्नर जनरल बनाया गया और बम्बई तथा मद्रास प्रेसीडेंसी को कलकत्ता के अधीन कर दिया गया।
1774 में कलकत्ता में सुप्रीम कोर्ट की स्थापना की गई।
कम्पनी के कर्मचारियों को निजी व्यापार और भारतीयों से उपहार लेने पर प्रतिबंध लगाया गया।
गवर्नर जनरल की परिषद् द्वारा बनाए गए किसी भी कानून को ब्रिटिश विधियों के विरुद्ध नहीं होना चाहिए और ब्रिटिश सरकार में अपील की जा सकती थी।
चार्टर अधिनियमों के प्रमुख प्रावधान
चार्टर एक्ट (Charter Act), 1793
- भारत में कम्पनी के व्यापारिक एकाधिकार को अगले 20 वर्षों के लिए बढ़ा दिया गया।
- बोर्ड ऑफ कंट्रोल के सदस्यों का वेतन भारतीय कोष से दिया जाने लगा।
- जिला कलेक्टरों को न्यायिक कार्यों से पृथक कर दिया गया।
- गवर्नर जनरल की परिषद् में मुख्य सेनापति के सदस्य होने की अनिवार्यता समाप्त कर दी गई।
चार्टर एक्ट (Charter Act), 1813
- कम्पनी के व्यापारिक अधिकार को बीस वर्षों के लिए बढ़ाया गया, लेकिन व्यापारिक एकाधिकार समाप्त कर दिया गया।
- कम्पनी का चीन के साथ व्यापार का एकाधिकार बनाए रखा गया।
- ईसाई मिशनरियों को भारत में धर्म प्रचार की अनुमति दी गई।
- ब्रिटिश नागरिकों को भारत में व्यापार और निवास की अनुमति दी गई, लेकिन बोर्ड ऑफ कंट्रोल की स्वीकृति आवश्यक थी।
- शिक्षा के लिए ₹1 लाख वार्षिक बजट निर्धारित किया गया।
चार्टर एक्ट (Charter Act), 1833
- कम्पनी के व्यापारिक अधिकार पूरी तरह समाप्त कर दिए गए।
- बंगाल के गवर्नर जनरल को भारत का गवर्नर जनरल घोषित किया गया, जिससे संपूर्ण भारत ब्रिटिश शासन के अधीन आ गया।
- बम्बई, मद्रास और अन्य क्षेत्रों के विधायी अधिकार समाप्त कर दिए गए, जिससे सभी शक्तियाँ गवर्नर जनरल में केंद्रीकृत हो गईं।
- भारतीय विधियों के संहिताकरण हेतु विधि आयोग का गठन किया गया।
- सिविल सेवाओं में जाति, धर्म और नस्ल आधारित भेदभाव समाप्त कर दिया गया और खुली प्रतियोगी परीक्षा की व्यवस्था की गई।
चार्टर एक्ट (Charter Act), 1853
- यह स्पष्ट कर दिया गया कि ब्रिटिश संसद जब चाहे, कम्पनी का शासन समाप्त कर सकती है।
- गवर्नर जनरल की परिषद् को विधायी और प्रशासनिक कार्यों से पृथक कर दिया गया।
- केंद्रीय विधान परिषद् में पहली बार स्थानीय प्रतिनिधित्व दिया गया।
- गवर्नर जनरल की परिषद् में एक विधि विशेषज्ञ को शामिल किया गया।
- सिविल सेवाओं में प्रतियोगी परीक्षा का सिद्धांत स्वीकार किया गया।
चार्टर एक्ट क्या है?
चार्टर एक्ट ब्रिटिश संसद द्वारा पारित कानून थे, जिनके माध्यम से ईस्ट इंडिया कंपनी के प्रशासन और व्यापार को नियंत्रित किया गया।
1813 के चार्टर एक्ट का मुख्य उद्देश्य क्या था?
ईस्ट इंडिया कंपनी के व्यापारिक एकाधिकार को समाप्त करना, केवल चीन के साथ व्यापार को बनाए रखना।
ब्रिटिश नागरिकों को भारत में व्यापार और निवास की अनुमति देना।
ईसाई मिशनरियों को भारत में धर्म प्रचार की अनुमति देना।
शिक्षा के लिए ₹1 लाख वार्षिक बजट निर्धारित करना।
1853 का चार्टर एक्ट क्या था?
यह स्पष्ट किया गया कि ब्रिटिश संसद जब चाहे, कम्पनी का शासन समाप्त कर सकती है।
गवर्नर जनरल की परिषद् को विधायी और प्रशासनिक कार्यों से अलग कर दिया गया।
केंद्रीय विधान परिषद् में पहली बार स्थानीय प्रतिनिधित्व दिया गया।
गवर्नर जनरल की परिषद् में एक विधि विशेषज्ञ को शामिल किया गया।
सिविल सेवाओं में प्रतियोगी परीक्षा का सिद्धांत स्वीकार किया गया।
1833 के चार्टर एक्ट का मुख्य उद्देश्य क्या था?
ईस्ट इंडिया कंपनी के व्यापारिक अधिकार पूरी तरह समाप्त करना।
बंगाल के गवर्नर जनरल को भारत का गवर्नर जनरल घोषित करना।
बम्बई, मद्रास और अन्य क्षेत्रों के विधायी अधिकार समाप्त करना।
भारतीय विधियों के संहिताकरण हेतु विधि आयोग का गठन करना।
सिविल सेवाओं में जाति, धर्म और नस्ल आधारित भेदभाव समाप्त कर प्रतियोगी परीक्षा लागू करना।
ईस्ट इंडिया कंपनी का एकाधिकार कब समाप्त हुआ था?
1813 के चार्टर एक्ट द्वारा ईस्ट इंडिया कंपनी का व्यापारिक एकाधिकार समाप्त कर दिया गया, केवल चीन के साथ व्यापार का एकाधिकार बना रहा।
भारत में सिविल सेवा कब शुरू हुई?
1833 के चार्टर एक्ट के तहत सिविल सेवाओं में प्रतियोगी परीक्षा की व्यवस्था की गई।
भारत में कानून का संहिताकरण किसने पेश किया?
1833 के चार्टर एक्ट के तहत भारतीय विधियों के संहिताकरण हेतु विधि आयोग का गठन किया गया।
ईस्ट इंडिया कंपनी के एकाधिकार को किस अधिनियम ने समाप्त किया?
1813 के चार्टर एक्ट ने ईस्ट इंडिया कंपनी के व्यापारिक एकाधिकार को समाप्त कर दिया।
क्राउन शासन (1858-1947) (The Crown Rule, 1858-1947)
भारत में क्राउन रूल क्या था?
1857 के प्रथम स्वतंत्रता संग्राम के परिणामस्वरूप ईस्ट इंडिया कम्पनी का शासन समाप्त कर दिया गया और 1858 में ब्रिटिश क्राउन ने भारत पर प्रत्यक्ष शासन स्थापित कर दिया।
भारत सरकार अधिनियम (Government of India Act), 1858 क्या है?
1858 के अधिनियम के अंतर्गत महत्त्वपूर्ण परिवर्तन किए गए, जो निम्नलिखित हैं-
- कोर्ट ऑफ डायरेक्टर तथा बोर्ड ऑफ कंट्रोल को समाप्त कर दिया गया एवं उनका अधिकार ब्रिटिश मंत्रिमंडल के एक सदस्य को सौंप दिया गया, जिसे भारत का मंत्री या भारत राज्य सचिव कहा जाता था।
- भारत राज्य सचिव की सहायता के लिए 15 सदस्यीय भारतीय परिषद् का गठन किया गया। इस परिषद् के 7 सदस्यों की नियुक्ति का अधिकार ब्रिटिश सम्राट को प्राप्त था, जबकि शेष सदस्यों का चयन करने का अधिकार कंपनी के डायरेक्टरों को दिया गया।
- भारत के राज्य सचिव को भारतीय मामलों के अधीक्षण, निदेशन एवं नियंत्रण का अधिकार प्रदान किया गया।
- गवर्नर जनरल तथा प्रेसीडेंसी के गवर्नरों की नियुक्ति ब्रिटिश ताज द्वारा की जाती थी, जबकि उनकी परिषदों की नियुक्ति भारत राज्य सचिव द्वारा की जाती थी।
- भारत के राज्य सचिव तथा उनकी परिषद् के सदस्यों का वेतन भारतीय कोष से दिया जाता था।
- भारत का गवर्नर जनरल, ब्रिटिश क्राउन का प्रतिनिधि बन गया और उसे वायसराय की उपाधि प्रदान की गई।
- अनुबंधित सिविल सेवा में नियुक्तियाँ अब खुली प्रतियोगिता के माध्यम से की जाने लगीं।
भारत परिषद् अधिनियम (Indian Council Act), 1861 क्या है?
- वायसराय की कार्यकारी परिषद् का विस्तार किया गया तथा इसमें पाँचवें सदस्य के रूप में एक विधि विशेषज्ञ को सम्मिलित किया गया।
- वायसराय की कार्यकारी परिषद् को सुव्यवस्थित कार्य संचालन हेतु नियम बनाने की अनुमति दी गई, जिससे लॉर्ड कैनिंग द्वारा प्रारंभ की गई विभागीय प्रणाली को मान्यता प्राप्त हुई और भारत में मंत्रिमंडलीय प्रणाली की नींव रखी गई।
- विधायिका के लिए वायसराय की कार्यकारी परिषद् में न्यूनतम 6 एवं अधिकतम 15 सदस्य नियुक्त करने का प्रावधान किया गया। इन सदस्यों की नियुक्ति वायसराय द्वारा की जाती थी और इनका कार्यकाल 2 वर्ष निर्धारित था। इनमें से आधे सदस्य गैर-सरकारी होते थे।
- भारतीयों की नियुक्ति का कोई वैधानिक प्रावधान नहीं था, किंतु वायसराय को कुछ भारतीयों को गैर-सरकारी सदस्य के रूप में मनोनीत करने की स्वतंत्रता दी गई। लॉर्ड कैनिंग ने बनारस के राजा, पटियाला के महाराजा तथा सर दिनकर राव को केंद्रीय विधान परिषद् में सदस्य के रूप में नामित किया।
- वायसराय को पहली बार अध्यादेश जारी करने की शक्ति प्रदान की गई, जिसकी अवधि 6 माह तक सीमित थी।
- बंगाल (1862), उत्तर-पश्चिम सीमा प्रांत (1866) एवं पंजाब (1897) में विधान परिषदों की स्थापना की गई।
- मद्रास एवं बॉम्बे प्रेसीडेंसी को पुनः विधायी अधिकार प्रदान किए गए।
भारत परिषद् अधिनियम (Indian Council Act), 1892 से आप क्य समझते है ?
- केंद्रीय एवं प्रांतीय विधान परिषदों का विस्तार किया गया और इसमें 8 से 20 नए सदस्यों को सम्मिलित किया गया।
- इस अधिनियम में केंद्रीय एवं प्रांतीय विधान परिषदों में गैर-सरकारी सदस्यों की नियुक्ति हेतु निर्वाचन का प्रावधान किया गया। हालांकि, इसमें निर्वाचन शब्द का प्रयोग न करते हुए निर्वाचित सदस्यों को मनोनीत सदस्य कहा गया।
- विधान परिषद् के कार्यों में वृद्धि कर उन्हें बजट पर बहस करने एवं कार्यपालिका से प्रश्न पूछने का अधिकार प्रदान किया गया। हालांकि, कार्यपालिका से पूरक प्रश्न पूछने का अधिकार इस अधिनियम में सम्मिलित नहीं था।
- सार्वजनिक मामलों से संबंधित प्रश्न पूछने के लिए 6 दिन पूर्व सूचना देने का प्रावधान किया गया।
भारत परिषद् अधिनियम : मार्ले-मिंटो सुधार (Indian Council Act : Morley-Minto Reform), 1909 के प्रमुख उदेश्य क्या थे?
- केंद्रीय एवं प्रांतीय विधान परिषदों का विस्तार किया गया।
- केंद्रीय विधान परिषद् में गैर-सरकारी सदस्यों का बहुमत सुनिश्चित किया गया। इसमें कुल 69 सदस्य रखे गए, जिनमें 37 सरकारी एवं 32 गैर-सरकारी सदस्य थे।
- चार प्रकार के सदस्यों की व्यवस्था की गई- पदेन, गैर-सरकारी, निर्वाचित एवं मनोनीत सदस्य।
- प्रांतीय विधान परिषदों में भी गैर-सरकारी सदस्यों का बहुमत रखा गया, लेकिन सरकारी एवं मनोनीत सदस्यों की संख्या निर्वाचित सदस्यों की तुलना में अधिक थी।
- इस अधिनियम के तहत, मुसलमानों के लिए सांप्रदायिक प्रतिनिधित्व की व्यवस्था लागू की गई। इसके अंतर्गत, मुस्लिम प्रतिनिधियों का निर्वाचन केवल मुस्लिम मतदाताओं द्वारा ही किया जा सकता था।
- निर्वाचक मंडल की सदस्यता हेतु आय, संपत्ति एवं शैक्षणिक योग्यता को आवश्यक आधार बनाया गया।
- वायसराय की कार्यकारी परिषद् में पहली बार किसी भारतीय को सम्मिलित किया गया। सत्येंद्र प्रसाद सिन्हा को विधि सदस्य के रूप में शामिल किया गया, जिससे वे कार्यपालिका परिषद् में स्थान पाने वाले पहले भारतीय बने।
मार्ले-मिंटो सुधार से विधान परिषद् के कार्यों एवं अधिकारों में वृद्धि
- हालांकि, सदन द्वारा पारित किसी भी प्रस्ताव को सरकार के लिए बाध्यकारी नहीं बनाया गया था।
- सदस्यों को बजट पर चर्चा करने एवं प्रस्ताव रखने का अधिकार प्रदान किया गया।
- पूरक प्रश्न पूछने, स्थानीय संस्थाओं को ऋण देने, अतिरिक्त अनुदान देने एवं नए कर लगाने से संबंधित प्रस्ताव रखने का अधिकार दिया गया।
- सार्वजनिक हित से संबंधित विषयों पर चर्चा करने, प्रस्ताव रखने एवं मत विभाजन की मांग करने का अधिकार प्रदान किया गया।
भारत शासन अधिनियम : मोंटेग्यू-चेम्सफोर्ड सुधार (Government of India Act : Montagu-Chelmsford), 1919 क्या था?
• इस अधिनियम के माध्यम से पहली बार ब्रिटिश सरकार ने यह घोषणा की कि उसका उद्देश्य भारत में क्रमिक रूप से उत्तरदायी सरकार की स्थापना करना है।
• इस अधिनियम के अंतर्गत ब्रिटिश सरकार ने निम्नलिखित महत्वपूर्ण नीतियाँ अपनाईं— शासन में भारतीयों की भागीदारी को बढ़ाया जाए और संस्थाओं का विकास इस प्रकार किया जाए कि भारत में ब्रिटिश साम्राज्य के अधीन एक नवीन प्रशासनिक व्यवस्था स्थापित हो सके।
• इस अधिनियम के तहत केंद्र में द्विसदनीय प्रणाली की शुरुआत की गई, जिसमें प्रथम सदन को राज्य परिषद् और दूसरे सदन को केंद्रीय विधान सभा कहा गया।
• प्रांतों में द्वैध शासन प्रणाली (Dyarchy) की स्थापना की गई, जिसे हस्तांतरित एवं आरक्षित श्रेणियों में विभाजित किया गया। राज्यपाल हस्तांतरित विषयों का प्रशासन उन मंत्रियों की सहायता से करता था जो विधानपरिषद के प्रति उत्तरदायी होते थे। जबकि आरक्षित विषयों का नियंत्रण राज्यपाल द्वारा नियुक्त अधिकारियों के अधीन था, जो विधानपरिषद को उत्तरदायी नहीं थे।
• इस अधिनियम में विधान परिषदों में तीन प्रकार के सदस्य रखे गए— निर्वाचित, मनोनीत सरकारी, एवं मनोनीत गैर-सरकारी। इनमें 70% निर्वाचित, 10% मनोनीत सरकारी, एवं 20% मनोनीत गैर-सरकारी सदस्य शामिल थे, जिससे निर्वाचित सदस्यों का बहुमत सुनिश्चित किया गया।
• इस अधिनियम के अंतर्गत सीमित मताधिकार प्रदान किया गया, जो संपत्ति, करों एवं शिक्षा के आधार पर निर्धारित था। साथ ही सांप्रदायिक निर्वाचक मंडल की अवधारणा को सिखों, यूरोपियनों, एंग्लो-इंडियनों एवं भारतीय ईसाइयों तक विस्तारित किया गया।
• वायसराय की कार्यकारी परिषद में तीन भारतीयों को सम्मिलित करना अनिवार्य कर दिया गया (मुख्य सेनापति को छोड़कर)।
• लंदन स्थित भारत के उच्चायुक्त (High Commissioner) का कार्यालय स्थापित किया गया तथा भारत के सचिव के कुछ अधिकारों को सीमित किया गया।
• सिविल सेवाओं की भर्ती के लिए लोक सेवा आयोग (Public Service Commission) के गठन का प्रावधान किया गया।
• केंद्रीय बजट को राज्य बजट से पृथक किया गया और राज्यों को अपना बजट तैयार करने का अधिकार दिया गया।
भारत शासन अधिनियम (Government of India Act), 1935 को बताइये
• इस अधिनियम में 321 अनुच्छेद तथा 10 अनुसूचियाँ सम्मिलित थीं।
• इस अधिनियम के तहत भारत में प्रथम बार संघीय शासन प्रणाली (Federal System) की स्थापना की गई, जिसमें दो प्रमुख इकाइयाँ थीं— ब्रिटिश भारतीय प्रांत एवं देशी रियासतें।
• शासन व्यवस्था के संचालन हेतु तीन प्रकार की सूचियाँ निर्मित की गईं—
- संघ सूची (Union List) – 59 विषय
- प्रांत सूची (State List) – 54 विषय
- समवर्ती सूची (Concurrent List) – 36 विषय
अवशिष्ट शक्तियाँ (Residuary Powers) वायसराय के अधीन रखी गईं।
• प्रांतों में द्वैध शासन प्रणाली समाप्त कर प्रांतीय स्वायत्तता प्रदान की गई, जिसके तहत राज्यपाल को मंत्रियों की सलाह पर कार्य करने का दायित्व सौंपा गया।
• केंद्र में द्वैध शासन प्रणाली प्रारंभ की गई, जिसमें संघीय विषयों को हस्तांतरित एवं आरक्षित विषयों में विभाजित किया गया।
• संघीय विधायिका को द्विसदनीय बनाया गया—
- उच्च सदन (राज्यसभा) – 260 सदस्य
- निचला सदन (लोकसभा) – 375 सदस्य
• 11 राज्यों में से 6 राज्यों में द्विसदनीय प्रणाली लागू की गई, जिनमें बंगाल, बिहार, मद्रास, बंबई, संयुक्त प्रांत एवं असम शामिल थे।
• पृथक निर्वाचक मंडल (Separate Electorates) को दलितों, महिलाओं एवं श्रमिक वर्ग तक विस्तारित किया गया।
• सीमित मताधिकार का विस्तार करते हुए 10% भारतीय आबादी को मतदान का अधिकार दिया गया।
• मुद्रा एवं साख नियंत्रण हेतु भारतीय रिजर्व बैंक (Reserve Bank of India) की स्थापना का प्रावधान किया गया।
• संघीय लोक सेवा आयोग (Federal Public Service Commission) के साथ-साथ प्रांतीय एवं संयुक्त सेवा आयोगों (Provincial and Joint Public Service Commissions) के गठन का प्रावधान किया गया।
• संघीय न्यायालय (Federal Court) की स्थापना का प्रावधान किया गया।
• बर्मा (म्यांमार) को ब्रिटिश भारत से अलग कर दिया गया।
क्राउन शासन से सम्बंधित प्रमुख प्रश्न-
भारत में क्राउन रूल क्या था?
1857 के प्रथम स्वतंत्रता संग्राम के बाद 1858 में ईस्ट इंडिया कंपनी का शासन समाप्त कर दिया गया और ब्रिटिश क्राउन ने भारत पर प्रत्यक्ष शासन स्थापित किया। इसे क्राउन रूल (1858-1947) कहा जाता है।
1858 का भारत शासन अधिनियम क्या था?
1858 का भारत शासन अधिनियम ब्रिटिश क्राउन द्वारा भारत के प्रशासन को नियंत्रित करने के लिए लागू किया गया था। इसके तहत ईस्ट इंडिया कंपनी का शासन समाप्त कर दिया गया और भारत का राज्य सचिव (Secretary of State for India) नामित किया गया, जिसकी सहायता के लिए 15 सदस्यीय परिषद् गठित की गई।
क्राउन रूल से आप क्या समझते हैं?
क्राउन रूल (1858-1947) वह अवधि थी जब भारत का प्रशासन ब्रिटिश क्राउन के अधीन था।
भारत सरकार अधिनियम 1858 की विशेषता क्या थी?
कोर्ट ऑफ डायरेक्टर तथा बोर्ड ऑफ कंट्रोल समाप्त कर दिए गए और उनके अधिकार ब्रिटिश मंत्रिमंडल के एक सदस्य (भारत के राज्य सचिव) को सौंप दिए गए।
भारत का राज्य सचिव भारतीय मामलों का अधीक्षण, निदेशन एवं नियंत्रण करता था।
गवर्नर जनरल अब ब्रिटिश क्राउन का प्रतिनिधि बन गया और उसे वायसराय की उपाधि दी गई।
वायसराय और गवर्नर जनरल में क्या अंतर है?
गवर्नर जनरल ईस्ट इंडिया कंपनी के शासनकाल में सर्वोच्च अधिकारी था, लेकिन 1858 के अधिनियम के बाद इसे ‘वायसराय’ कहा जाने लगा, जो ब्रिटिश क्राउन का प्रतिनिधि था।
भारत में 1858 में क्या हुआ था?
1858 में ब्रिटिश सरकार ने भारत शासन अधिनियम, 1858 लागू किया, जिससे भारत प्रत्यक्ष रूप से ब्रिटिश क्राउन के नियंत्रण में आ गया।
1858 में भारत का वायसराय कौन था?
लॉर्ड कैनिंग (1856-1862) भारत के पहले वायसराय बने।
1858 के बाद कौन से प्रशासनिक परिवर्तन हुए थे?
गवर्नर जनरल का पद बदलकर वायसराय कर दिया गया।
भारत का प्रशासन ब्रिटिश क्राउन के अधीन आ गया।
भारत राज्य सचिव को भारतीय मामलों की देखरेख का अधिकार दिया गया।
भारत में सिविल सेवा में भर्ती हेतु खुली प्रतियोगिता प्रणाली लागू की गई।
1919 में कौन सा एक्ट पारित हुआ था?
भारत शासन अधिनियम, 1919 (Government of India Act, 1919) जिसे मोंटेग्यू-चेम्सफोर्ड सुधारों के रूप में जाना जाता है।
1861 के भारतीय परिषद अधिनियम के क्या प्रावधान थे?
वायसराय की कार्यकारी परिषद का विस्तार किया गया और उसमें एक विधि विशेषज्ञ को जोड़ा गया।
वायसराय को अध्यादेश जारी करने की शक्ति दी गई, जिसकी अवधि 6 माह तक सीमित थी।
विधान परिषदों की स्थापना बंगाल (1862), उत्तर-पश्चिम सीमा प्रांत (1866), पंजाब (1897) में की गई।
मद्रास एवं बॉम्बे प्रेसीडेंसी को पुनः विधायी अधिकार प्रदान किए गए।
1919 के भारत सरकार अधिनियम की प्रमुख विशेषताएं क्या थीं?
केंद्र में द्विसदनीय विधायिका (Bicameral Legislature) की स्थापना हुई।
प्रांतों में द्वैध शासन प्रणाली (Dyarchy) लागू की गई।
ब्रिटिश सरकार ने पहली बार उत्तरदायी सरकार की स्थापना का संकेत दिया।
मार्ले-मिंटो सुधार क्या था?
मार्ले-मिंटो सुधार (1909) के अंतर्गत
सांप्रदायिक प्रतिनिधित्व की व्यवस्था की गई, जिससे मुस्लिम प्रतिनिधियों का चुनाव केवल मुस्लिम मतदाताओं द्वारा किया जाता था।
विधान परिषदों का विस्तार किया गया।
भारतीयों को पहली बार कार्यकारी परिषद में स्थान दिया गया, जिसमें सत्येंद्र प्रसाद सिन्हा को विधि सदस्य के रूप में नियुक्त किया गया।
कैबिनेट मिशन योजना (Cabinet Mission Plan) से आप क्या समझते है?
द्वितीय विश्व युद्ध के पश्चात् ब्रिटेन में लेबर पार्टी की सत्ता में आगमन हुआ, जिसके बाद ब्रिटिश मंत्रिमंडल की एक तीन-सदस्यीय समिति को भारत भेजा गया। इस समिति ने विभिन्न राजनीतिक दलों के प्रमुख नेताओं से विचार-विमर्श करने के पश्चात् अपनी एक रणनीति प्रस्तुत की। इस मिशन ने दो प्रकार की योजनाएँ प्रस्तावित कीं—दीर्घकालिक एवं अल्पकालिक, जिन्हें क्रमशः Long Term Plan एवं Short Term Plan कहा गया।
दीर्घकालिक योजना (Long Term Plan)
- संघीय शासन प्रणाली की स्थापना का प्रस्ताव रखा गया, जिसमें ब्रिटिश भारतीय प्रांत तथा देशी रियासतों को दो प्रमुख इकाइयों के रूप में सम्मिलित किया गया।
- संघीय सरकार का कार्यक्षेत्र केवल विदेशी मामले, रक्षा एवं संचार व्यवस्था तक सीमित रखा गया।
- संघ की कार्यपालिका एवं विधायिका का गठन किया गया, जिसमें प्रांतों एवं रियासतों को प्रतिनिधित्व दिया गया।
- किसी भी महत्वपूर्ण सांप्रदायिक प्रश्न पर निर्णय बहुमत के आधार पर लिया जाना निर्धारित हुआ।
- प्रांतों को अपने समूह गठित करने एवं उन्हें प्रांतीय विषय सौंपने की स्वतंत्रता प्रदान की गई।
- संघ एवं समूहों के संविधान में यह प्रावधान किया गया कि कोई भी प्रांत, अपनी विधानसभा के बहुमत से, संघ अथवा समूह के संविधान की पुनर्विचार याचना कर सकता है। यह प्रक्रिया हर 10 वर्षों में की जा सकती है।
संविधान सभा संबंधी प्रावधान (Provisions Related to the Constituent Assembly) क्या-क्या थे?
- संविधान सभा के गठन की योजना बनाई गई, जिसमें 389 सदस्य सम्मिलित किए गए—296 प्रांतों से एवं 93 देशी रियासतों से।
- प्रांतीय प्रतिनिधियों की निर्वाचन प्रक्रिया जनसंख्या के आधार पर निर्धारित की गई एवं उन्हें मुख्य समुदायों—सामान्य, मुसलमान एवं सिख—में विभाजित किया गया।
- देशी रियासतों के प्रतिनिधियों की संख्या उनकी जनसंख्या के अनुपात में तय की गई, तथा उनके प्रतिनिधियों का चयन रियासतों के प्रमुखों द्वारा किया गया।
- सभी प्रांतीय समूह यह तय करेंगे कि संघीय संविधान का स्वरूप कैसा होगा एवं उन्हें कौन-कौन से अधिकार प्राप्त होंगे।
- भारत को यह स्वतंत्रता दी गई कि वह राष्ट्रमंडल (Commonwealth) का सदस्य बना रहेगा या नहीं।
- प्रांतों को तीन समूहों में विभाजित किया गया—
- हिंदू बहुल प्रांत— बॉम्बे, मद्रास, संयुक्त प्रांत, बिहार एवं उड़ीसा।
- मुस्लिम बहुल प्रांत— पंजाब, उत्तर-पश्चिमी सीमांत प्रदेश, बलूचिस्तान।
- पूर्वोत्तर क्षेत्र— बंगाल एवं असम (पाकिस्तान द्वारा दावा किया गया)।
अल्पकालिक योजना (Short Term Plan) को बताइये
- संविधान निर्माण के दौरान शासन व्यवस्था के संचालन हेतु एक अंतरिम सरकार गठित की गई, जिसमें 14 सदस्य सम्मिलित थे:
- 6 सदस्य— भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस से
- 5 सदस्य— मुस्लिम लीग से
- 1 सदस्य— भारतीय ईसाई समुदाय से
- 1 सदस्य— सिख समुदाय से
- 1 सदस्य— पारसी समुदाय से
भारतीय स्वतंत्रता अधिनियम (Indian Independence Act), 1947 क्यू महात्वपूर्ण है?
- गवर्नर जनरल एक संवैधानिक प्रमुख के रूप में कार्य करेगा तथा विधानमंडल द्वारा पारित किसी विधेयक को ब्रिटिश क्राउन की स्वीकृति दिलाने का उत्तरदायित्व निभाएगा।
- 15 अगस्त 1947 को ब्रिटिश साम्राज्य का भारत में समाप्ति का निर्णय लिया गया, तथा भारत एवं पाकिस्तान के रूप में दो स्वतंत्र प्रभुसत्तासंपन्न राष्ट्रों की स्थापना की गई।
- पंजाब एवं बंगाल का विभाजन कर उनके बीच सीमा निर्धारण हेतु सीमा आयोग (Boundary Commission) का गठन किया गया।
- पाकिस्तान में सम्मिलित क्षेत्र—
- पश्चिम पंजाब
- पूर्वी बंगाल
- सिंध
- उत्तर-पश्चिमी सीमांत प्रांत
- असम का सिलहट
- बलूचिस्तान
- मुस्लिम बहुल देशी रियासतें
देशी रियासतों से ब्रिटिश नियंत्रण समाप्त कर उन्हें यह अधिकार दिया गया कि वे भारत या पाकिस्तान में शामिल हों अथवा स्वतंत्र रहें।जनजातीय क्षेत्रों से ब्रिटिश शासन का प्रभाव समाप्त कर, उनसे किए गए संधि एवं समझौते भी रद्द कर दिए गए।
वायसराय का पद समाप्त कर दिया गया, तथा प्रत्येक प्रभुसत्तासंपन्न राष्ट्र के लिए अलग-अलग या एक ही गवर्नर जनरल की नियुक्ति ब्रिटिश क्राउन की सलाह पर की जानी थी।
दोनों राष्ट्रों की संविधान सभाओं को अपना संविधान बनाने की स्वतंत्रता दी गई।
जब तक संविधान तैयार नहीं होता, तब तक भारत शासन अधिनियम, 1935 के अनुसार शासन संचालन की अनुमति दी गई, साथ ही उसमें आवश्यक संशोधन करने का अधिकार भी दिया गया।संविधान बनने तक दोनों राष्ट्रों की संविधान सभाएँ सामान्य विधायिका के रूप में कार्य कर सकती थीं।
संविधान सभा की मांग (Demands of Constituent Assembly) को बताइये
- भारतीय राष्ट्रीय आंदोलन के दौरान प्रमुख नेताओं की मुख्य मांग थी कि स्वतंत्रता प्राप्ति के पश्चात शासन भारतीय जनता द्वारा निर्मित संविधान के आधार पर संचालित हो।
- भारत में संविधान सभा की मांग सर्वप्रथम 1934 में एम.एन. राय द्वारा की गई थी, जबकि कांग्रेस ने इसे 1935 में औपचारिक रूप से स्वीकार किया।
- 1938 में पंडित नेहरू ने कांग्रेस की ओर से घोषणा की कि स्वतंत्रता उपरांत संविधान निर्माण के लिए सार्वभौमिक व्यस्क मताधिकार के आधार पर संविधान सभा गठित की जाएगी।
- ब्रिटिश सरकार ने 1940 में अगस्त प्रस्ताव के माध्यम से कांग्रेस की इस मांग को स्वीकार किया।
- 1942 में ब्रिटिश मंत्रिमंडल के सदस्य सर स्टैफोर्ड क्रिप्स एक अन्य प्रतिनिधि के साथ संविधान निर्माण का प्रस्ताव लेकर भारत आए, जिसे द्वितीय विश्व युद्ध की समाप्ति के बाद लागू किया जाना था। हालांकि, मुस्लिम लीग ने इस प्रस्ताव को अस्वीकार कर दिया, क्योंकि इसमें पाकिस्तान की मांग अथवा पृथक संविधान सभा की मांग को स्वीकार नहीं किया गया था।
- चार वर्ष पश्चात, 1946 में, ब्रिटिश सरकार ने संविधान सभा के गठन हेतु कैबिनेट मिशन योजना की घोषणा की, जिसके प्रावधानों में सीमित मताधिकार, सांप्रदायिक निर्वाचन तथा धार्मिक आधार पर राज्यों के समूह जैसी विवादास्पद शर्तें शामिल थीं।
- इन प्रावधानों का कांग्रेस द्वारा विरोध किया गया, किंतु महात्मा गांधी के हस्तक्षेप के उपरांत कांग्रेस कार्यसमिति ने संविधान सभा में सम्मिलित होने की सहमति प्रदान कर दी।
स्वतंत्रता प्राप्ति के समय भारत की स्थिति (Status of India at the time of Independence) क्या थी?
दीर्घकालिक संघर्ष के पश्चात 15 अगस्त 1947 को भारत ने स्वतंत्रता प्राप्त की, किंतु दीर्घकालिक औपनिवेशिक शासन के कारण देश को विभिन्न महत्वपूर्ण चुनौतियों का सामना करना पड़ा। 1947 के परिदृश्य में प्रमुख चुनौतियाँ निम्नलिखित थीं—
- साम्प्रदायिकता की समस्या प्रमुख थी। ब्रिटिश शासन की विभाजनकारी नीतियों के परिणामस्वरूप समाज में अविश्वास उत्पन्न हुआ, जिससे दंगे-फसाद प्रारंभ हो गए और अंततः देश का विभाजन हुआ। इस परिस्थिति में राष्ट्रीय एकता बनाए रखना चुनौतीपूर्ण था।
- देश की अखंडता सुनिश्चित करने का भी संकट था। विभिन्न हिस्सों में विखंडित भारत को एकीकृत करना एक बड़ी चुनौती थी।
- आर्थिक व्यवस्था को पुनर्स्थापित करने की आवश्यकता थी, क्योंकि ब्रिटिश शासन के दौरान भारतीय अर्थव्यवस्था दुर्बल हो चुकी थी। बेरोजगारी, गरीबी, भूख, क्षेत्रीय असमानता एवं अवसंरचनात्मक कमी जैसी समस्याएँ व्याप्त थीं।
- राजभाषा के चयन को लेकर विवाद था। हिंदीभाषी वर्ग हिंदी को राजभाषा घोषित करने के पक्षधर थे, जबकि दक्षिण भारतीय राज्य इसे स्वीकारने के लिए सहमत नहीं थे।
- पिछड़े वर्गों एवं वंचित समुदायों को मुख्यधारा में सम्मिलित करने का दायित्व था।
- इसके अतिरिक्त, महिला अधिकारों की स्थिति, कृषि क्षेत्र की दयनीय दशा, तकनीकी प्रगति, पूर्वोत्तर भारत का विकास एवं एकीकरण, तथा अलगाववाद जैसी समस्याएँ भी समक्ष थीं।
संविधान सभा का गठन (Constitution of Constituent Assembly)
कैबिनेट मिशन योजना के अनुसार—
- 292 सदस्य प्रांतीय विधान सभाओं के माध्यम से निर्वाचित होने थे।
- 93 सदस्य देशी रियासतों के प्रतिनिधित्व हेतु नामित किए गए थे।
- चार सदस्य मुख्य आयुक्त प्रांतों से चयनित किए जाने थे।
- संविधान सभा का गठन आंशिक रूप से निर्वाचित एवं आंशिक रूप से मनोनीत सदस्यों के आधार पर हुआ था।
- ब्रिटिश भारतीय प्रांतों हेतु निर्धारित 296 सीटों के लिए 1946 में चुनाव संपन्न हुआ, जिसमें कांग्रेस ने 208, मुस्लिम लीग ने 73, तथा अन्य दलों ने 15 सीटें प्राप्त कीं।
- 3 जून 1947 की माउंटबेटन योजना के तहत पाकिस्तान के लिए पृथक संविधान सभा गठित की गई, जिससे भारतीय संविधान सभा की सदस्य संख्या घटकर 299 रह गई।
- इस सभा में सभी वर्गों को प्रतिनिधित्व प्राप्त था, जिसमें हिंदू, मुस्लिम, सिख, ईसाई, पारसी, अनुसूचित जाति, अनुसूचित जनजाति, आंग्ल-भारतीय एवं महिला वर्ग के प्रतिनिधि सम्मिलित थे।
संविधान सभा की क्या कार्यप्रणाली (Procedure of Constituent Assembly) थी?
- संविधान सभा की प्रथम बैठक 9 दिसंबर 1946 को नई दिल्ली के कॉन्स्टीट्यूशन हॉल (वर्तमान में संसद भवन का सेंट्रल हॉल) में आयोजित की गई।
- मुस्लिम लीग द्वारा पाकिस्तान की मांग के कारण संविधान सभा का बहिष्कार किया गया, जिसके परिणामस्वरूप केवल 211 सदस्य बैठक में सम्मिलित हुए।
- संविधान सभा के वरिष्ठतम सदस्य सचिदानंद सिन्हा को अस्थायी अध्यक्ष नियुक्त किया गया।
- 11 दिसंबर 1946 को डॉ. राजेंद्र प्रसाद को स्थायी अध्यक्ष चुना गया, जबकि एच.सी. मुखर्जी एवं वी.टी. कृष्णामाचारी को उपाध्यक्ष नियुक्त किया गया।
उद्देश्य प्रस्ताव (Objective Resolution) को किसने प्रस्तुत कियाय़
13 दिसंबर 1946 को पंडित नेहरू ने उद्देश्य प्रस्ताव प्रस्तुत किया, जिसमें संविधान की संरचना एवं दर्शन का स्पष्ट प्रतिपादन किया गया। इसकी मुख्य बातें निम्नलिखित थीं—
- संविधान सभा भारत को स्वतंत्र, संप्रभु लोकतांत्रिक गणराज्य घोषित करती है।
- ब्रिटिश भारत एवं देशी रियासतें भारतीय संघ का अंग होंगी।
- संघीय शक्तियों को छोड़कर अन्य सभी प्रशासनिक शक्तियाँ राज्यों को प्रदान की जाएंगी।
- भारत की संप्रभुता का आधार भारतीय जनता होगी।
- राजनीतिक, आर्थिक एवं सामाजिक न्याय सभी नागरिकों को प्रदान किया जाएगा।
- अल्पसंख्यकों, अनुसूचित जातियों एवं जनजातियों तथा पिछड़े वर्गों के अधिकारों की सुरक्षा की जाएगी।
- देश की एकता व अखंडता सुनिश्चित की जाएगी।
- भारत की प्राचीन सभ्यता को वैश्विक स्तर पर प्रतिष्ठा प्राप्त होगी, एवं विश्व शांति व मानव कल्याण में योगदान सुनिश्चित किया जाएगा।
- यह संकल्प 22 जनवरी 1947 को सर्वसम्मति से स्वीकृत किया गया।
संविधान सभा के समक्ष उपस्थित चुनौतियाँ (Challenges before the Constituent Assembly) को समझाइये?
भारतीय संविधान सभा जिन ऐतिहासिक दायित्वों का निर्वहन कर रही थी, उन्हें पूरा करने में अनेक कठिनाइयाँ थीं। संविधान सभा के सदस्यों के मध्य कई प्रकार के विवाद थे, जिनका विश्लेषण निम्नलिखित रूप में किया जा सकता है:
- प्रारंभिक चुनौती विभिन्न विचारधाराओं एवं हितों के बीच समन्वय स्थापित करते हुए उचित विकास मार्ग को चुनना था। संविधान सभा के सदस्य विभिन्न विचारधाराओं जैसे गांधीवादी, पूंजीवादी, समाजवादी, और साम्यवादी सिद्धांतों का समर्थन करते थे तथा वे चाहते थे कि संविधान उनकी विचारधारा के अनुरूप हो।
- सांप्रदायिकता से संघर्ष करना तथा अल्पसंख्यकों को समानता का अधिकार प्रदान करना एक महत्वपूर्ण चुनौती थी। पाकिस्तान के गठन के पश्चात भारत में निवास करने वाले अल्पसंख्यक समुदायों के मन में बहुसंख्यक वर्ग के प्रति संदेह था।
- राष्ट्र की एकता एवं अखंडता को बनाए रखना भी एक गंभीर चुनौती थी। संविधान सभा के गठन के समय भारत में 600 से अधिक रियासतें थीं, जिनकी राजनीतिक व्यवस्था भिन्न थी। कैबिनेट मिशन योजना के अनुसार, इन रियासतों को भारत या पाकिस्तान में शामिल होने अथवा स्वतंत्र रहने का विकल्प दिया गया था। इस स्थिति में, संविधान सभा को एक ऐसा संविधान निर्मित करना था, जो इन रियासतों को भारतीय संघ में शामिल होने हेतु प्रोत्साहित कर सके।
- लोकतांत्रिक शासन प्रणाली के चयन की समस्या भी एक महत्वपूर्ण मुद्दा था। राष्ट्रीय एकता एवं अखंडता को सुनिश्चित करने हेतु अध्यक्षीय प्रणाली या संसदीय प्रणाली में से किसी एक का चुनाव करना आवश्यक था। गांधीवादी विचारधारा के समर्थक पंचायती व्यवस्था को मजबूत करने के पक्षधर थे, जिसमें स्थानीय स्वशासन संस्थाएँ उच्च स्तर की विधायिकाओं का चुनाव करें। सरल एवं प्रभावी शासन प्रणाली सुनिश्चित करने हेतु इन विकल्पों में से किसी एक को चुनना आवश्यक था।
- संविधान की मूल प्रकृति को लेकर भी विवाद था कि इसमें केन्द्रित शक्तियाँ अधिक हों या विकेंद्रीकृत हों। गांधीवादी विचारक ग्रामीण क्षेत्रों को अधिक शक्ति देकर विकेंद्रीकृत शासन प्रणाली की स्थापना चाहते थे, जबकि पंडित नेहरू एवं डॉ. अंबेडकर राष्ट्रीय एकता एवं सामाजिक परिवर्तन के लिए एक सशक्त केंद्र की स्थापना के पक्षधर थे।
- अन्य महत्वपूर्ण समस्याओं में राष्ट्रपति का चुनाव प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष पद्धति से किया जाए, संपत्ति का अधिकार मूल अधिकारों में सम्मिलित हो या नहीं, निदेशक तत्त्वों को न्यायालयीय प्रवर्तनीय बनाया जाए अथवा नहीं, एवं अखिल भारतीय सेवाओं को संविधान में शामिल किया जाए या नहीं, जैसी महत्वपूर्ण चर्चाएँ सम्मिलित थीं।
चुनौतियों का समाधान (Settlement of Challenges)
संविधान सभा ने इन चुनौतियों के समाधान हेतु दो प्रमुख सिद्धांतों को अपनाया:
- सर्वसम्मति से निर्णय – इस सिद्धांत के अंतर्गत यह सुनिश्चित किया गया कि जहां तक संभव हो, संविधान में केवल वे प्रावधान सम्मिलित किए जाएं जिन पर संविधान सभा के सदस्य सर्वसम्मति से सहमत हों। बहुमत के आधार पर सहमति का निर्धारण किया गया। इस सिद्धांत का प्रयोग संघीय संरचना तथा अल्पसंख्यकों के अधिकारों से जुड़े विषयों में किया गया।
- समायोजन का सिद्धांत – इस सिद्धांत का उद्देश्य दो परस्पर विपरीत विचारों के बीच संतुलन स्थापित करना था। संविधान सभा द्वारा ऐसे मामलों में मध्यमार्ग को अपनाया गया, जहाँ विचारों में टकराव उत्पन्न होता था। इस सिद्धांत का प्रयोग संघात्मक या एकात्मक शासन प्रणाली, राष्ट्रमंडल सदस्यता, पंचायती राज व्यवस्था, एवं राजभाषा चयन जैसे मुद्दों पर किया गया।
भारतीय स्वतंत्रता अधिनियम, 1947 द्वारा संविधान सभा में किये गये परिवर्तनो (Changes in the Constituent Assembly by the Indian Independence Act, 1947) को समझाइये
भारतीय स्वतंत्रता अधिनियम, 1947 के विभिन्न प्रावधानों के कारण संविधान सभा के कार्यों में निम्नलिखित महत्वपूर्ण परिवर्तन हुए:
- संविधान सभा को एक संप्रभु निकाय का दर्जा प्राप्त हुआ तथा इसे अपनी इच्छानुसार संविधान निर्माण की स्वतंत्रता दी गई। साथ ही, संविधान सभा को किसी भी ब्रिटिश विधि में परिवर्तन अथवा उसे समाप्त करने का अधिकार प्राप्त हो गया।
- संविधान निर्माण के अतिरिक्त, संविधान सभा को विधानमंडल की शक्तियाँ भी प्रदान की गईं। अब यह केवल संविधान निर्माण तक सीमित नहीं थी, बल्कि इसे देश के लिए सामान्य विधियाँ बनाने एवं पूर्ववर्ती कानूनों में संशोधन करने का अधिकार भी दिया गया। संविधान सभा ने इन कार्यों का निर्वहन विभिन्न कार्यदिवसों में किया। डॉ. राजेंद्र प्रसाद संविधान सभा के अध्यक्ष थे, जबकि जी.वी. मावलंकर विधानमंडल के अध्यक्ष थे। संविधान सभा ने विधानमंडल की भूमिका को तब तक निभाया जब तक प्रथम लोकसभा का गठन नहीं हुआ।
- भारत के विभाजन के उपरांत, संविधान सभा के सदस्यों की संख्या 389 से घटकर 299 हो गई। प्रारंभ में संविधान सभा से अलग रहने वाले रियासतों के शासक भी बाद में सभा का हिस्सा बनने लगे। भारतीय प्रांतों से सदस्यों की संख्या 296 से घटकर 229 तथा देशी रियासतों से 93 से घटकर 70 हो गई।