संविधान संशोधन क्या है? (Amendment of the Constitution)

संविधान संशोधन क्या है? (Amendment of the Constitution)
संविधान संशोधन क्या है? (Amendment of the Constitution)

संविधान संशोधन (Amendment of the Constitution)

सामाजिक परिवर्तनों, राजनीतिक उथल-पुथल तथा समय के साथ उत्पन्न होने वाले महत्वपूर्ण परिवर्तिनीय कारकों के परिणामस्वरूप, अनेक राष्ट्रों ने अपने संविधान की पुनर्रचना की है, जैसे—नेपाल, श्रीलंका एवं रूसी गणराज्य। इसके विपरीत, कुछ देशों ने अत्यधिक विवेकपूर्ण ढंग से ऐसा संविधान निर्मित किया, जिसमें समयानुसार आवश्यक संशोधन किये जा सकें—भारत एवं अमेरिका इसके प्रमुख उदाहरण हैं।

भारत में संविधान को 26 नवम्बर, 1949 को स्वीकृत किया गया और 26 जनवरी, 1950 से यह प्रभावी हुआ। सात दशक बीत जाने के उपरांत भी यह संविधान सतत प्रभावशील बना हुआ है। यह विशेष रूप से उल्लेखनीय है कि स्वतंत्रता प्राप्ति के पश्चात अस्तित्व में आए भारत जैसे समकालीन राष्ट्रों में अधिकांश देशों का संविधान वह स्थायित्व प्राप्त नहीं कर सका, जो भारतीय संविधान ने सफलतापूर्वक अर्जित किया।

भारतीय संविधान की मुख्य विशेषताओं में इसकी मजबूत संरचना और राष्ट्र की परिस्थितियों के प्रति इसकी अनुकूलता को रेखांकित किया जाता है। भारतीय संविधान-निर्माताओं ने दूरदर्शी दृष्टिकोण अपनाते हुए आने वाले अनेक जटिल प्रश्नों का समाधान प्रारंभिक स्तर पर ही कर लिया था। उन्होंने यह भली-भाँति समझ लिया था कि ऐसा कोई वैधानिक ग्रंथ नहीं हो सकता जो सदा के लिए अपरिवर्तनीय रहे। वास्तव में, प्रत्येक वैधानिक व्यवस्था को काल एवं परिस्थिति के अनुरूप परिवर्तनों की आवश्यकता होती है, और यह सिद्धांत भारतीय संविधान पर भी पूर्णतः लागू होता है।

भारतीय संविधान दीर्घकाल से सफलतापूर्वक क्रियान्वित हो रहा है क्योंकि इसमें ऐसे प्रावधान समाहित हैं, जो समय की मांग के अनुसार परिवर्तन की संभावनाओं को स्वीकार करते हैं। साथ ही, इस संविधान ने विविध न्यायिक निर्णयों एवं राजनीतिक प्रक्रियाओं के माध्यम से अपने लचीलापन और परिपक्वता का स्पष्ट परिचय दिया है।

संविधान के सम्मुख सदैव यह चुनौतीपूर्ण प्रश्न उपस्थित रहता है कि वह सामाजिक परिवर्तनों के सापेक्ष कितना प्रासंगिक बना रह सकता है। इसका आशय यह है कि संविधान को सामाजिक विकास की प्रत्येक अवस्था में यह परीक्षा देनी होती है कि वह समकालीन समस्याओं के साथ-साथ भविष्य में उत्पन्न होने वाले संकटों का समाधान प्रस्तुत कर सकेगा या नहीं। दूसरे शब्दों में कहा जाए तो संविधान को संभावित चुनौतियों के निराकरण हेतु सक्षम एवं दूरदर्शी होना अनिवार्य है। इस प्रकार संविधान केवल तत्कालीन परिप्रेक्ष्य में ही प्रासंगिक नहीं रहता, बल्कि उसमें स्थायी महत्व के ऐसे तत्व भी समाहित रहते हैं जो इसे दीर्घकालिक रूप से प्रभावशाली बनाते हैं।

संविधान संशोधन की प्रक्रिया (Procedure of Amendment of the Constitution)

उपरोक्त विश्लेषण का मूल निष्कर्ष यही है कि संविधान को स्थिर और अपरिवर्तनीय नहीं होना चाहिये। उसमें संशोधन, पुनरावृत्ति और बदलाव की संभावना निरंतर बनी रहनी चाहिए। वास्तव में संविधान समाज की इच्छाओं और जरूरतों का प्रतिबिंब होता है तथा यह समाज को लोकतांत्रिक रूप से अभिव्यक्त करने वाला एक वैधानिक दस्तावेज होता है।

इस संदर्भ में यह कहा जा सकता है कि संविधान एक ऐसा प्रक्रियात्मक उपकरण है, जिसे समाज अपने हित में स्वयं निर्मित करता है।

भारतीय संविधान-निर्माता वैश्विक संविधानों के संचालन में आने वाली जटिलताओं से भली-भाँति परिचित थे। चूँकि भारत ने शासन की संसदीय प्रणाली को अपनाया, अतः संविधान-निर्माताओं ने इस प्रकार का संविधान गढ़ने का संकल्प किया, जो अन्य राष्ट्रों में उत्पन्न संवैधानिक संकटों से मुक्त रह सके। उनका प्रयास था कि भारतीय संविधान अत्यधिक कठोर अथवा अचल न बने। उनका विचार था कि संविधान नागरिकों की आवश्यकताओं को ध्यान में रखते हुए तैयार किया जाए और उसमें समयानुकूल परिवर्तन की गुंजाइश भी बनी रहे।

हालाँकि भारतीय संविधान एक लिखित दस्तावेज है, फिर भी यह पर्याप्त रूप से परिवर्तनशील है। इसके अधिकांश प्रावधानों में सरल प्रक्रिया द्वारा संशोधन संभव है, परंतु कुछ विशेष प्रावधानों में संशोधन हेतु विशिष्ट प्रक्रिया का पालन करना आवश्यक होता है। इसके अतिरिक्त, यह भी महत्वपूर्ण है कि भारतीय संविधान में संशोधन की प्रक्रिया अन्य संघात्मक संविधानों की तुलना में अपेक्षाकृत सरल है।

इन तथ्यों के बावजूद भारतीय संविधान इतना लचीला भी नहीं है कि वह सत्ताधीशों की इच्छा के अनुरूप बिना नियंत्रण के संशोधित किया जा सके। इसलिए संविधान-निर्माताओं ने एक मध्य मार्ग अपनाया। भारतीय संविधान न तो इतना कठोर है कि अनिवार्य संशोधन भी न किए जा सकें और न ही इतना लचीला कि उसे मनमाने ढंग से बदला जा सके। परिणामस्वरूप, भारतीय संविधान की संशोधनशीलता को एक संतुलित मिश्रण के रूप में वर्णित किया जा सकता है जिसमें अनम्यता और नम्यता का अद्वितीय समन्वय निहित है।

भारतीय संविधान के भाग-20 के अंतर्गत अनुच्छेद 368 संसद को संविधान में संशोधन की सत्ता प्रदान करता है। अनुच्छेद 368 (1) के अनुसार, इस अनुच्छेद में वर्णित किसी बात के होते हुए भी, संसद अपनी संविधायी शक्ति का प्रयोग करते हुए संविधान के किसी भी प्रावधान में परिवर्धन (Addition), परिवर्तन (Variation) या निरसन (Repeal) कर सकती है।

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अनुच्छेद 368 (2) के अंतर्गत संविधान संशोधन की प्रक्रिया (Procedure of Constitutional Amendment under Article 368(2))

अनुच्छेद 368 (2) में भारतीय संविधान में संशोधन की जिस प्रक्रिया का विस्तृत उल्लेख किया गया है, वह एक संविधानिक ढाँचे के अंतर्गत संचालित होती है। इस प्रक्रिया की प्रमुख विशेषताएँ निम्न प्रकार से वर्णित की जा सकती हैं:

संविधान में संशोधन की शुरुआत उस विधेयक की प्रस्तुति से होती है, जो विशेष रूप से इस उद्देश्य के लिये निर्धारित किया गया हो।

यह विधेयक संसद के किसी भी सदन में प्रस्तुत किया जा सकता है — अर्थात् लोकसभा या राज्यसभा में से किसी एक में। इसके लिये राष्ट्रपति की पूर्व स्वीकृति आवश्यक नहीं होती, जो कि सामान्य विधायी प्रक्रियाओं से इसे भिन्न बनाता है।

विधेयक को संसद में सरकारी मंत्री अथवा साधारण सदस्य — किसी के द्वारा भी प्रस्तुत किया जा सकता है, जिससे विधायी प्रक्रिया की सुलभता सुनिश्चित होती है।

इस विधेयक को दोनों सदनों में विशेष बहुमत से पारित करना अनिवार्य होता है। विशेष बहुमत का तात्पर्य है कि प्रस्तावित संशोधन को उपस्थित एवं मतदान करने वाले सदस्यों के दो-तिहाई बहुमत के साथ-साथ, सदन की कुल सदस्य संख्या के 50 प्रतिशत से अधिक सदस्यों का समर्थन प्राप्त होना आवश्यक होता है।

इसके अतिरिक्त, विधेयक को प्रत्येक सदन में स्वतंत्र रूप से पारित किया जाना अनिवार्य होता है। यदि दोनों सदनों के मध्य मतभेद उत्पन्न हो जाएँ, तो संविधान में संयुक्त बैठक का कोई प्रावधान नहीं है, जैसा कि सामान्य विधेयकों के लिये होता है।

संविधान में वर्णित संघीय ढाँचे से जुड़े संशोधनों के लिये विशेष प्रक्रिया का पालन करना अनिवार्य होता है। ऐसे मामलों में विधेयक को संसद द्वारा विशेष बहुमत से पारित करने के अतिरिक्त, कम-से-कम आधे राज्यों की विधानमंडलों से सामान्य बहुमत द्वारा अनुमोदन प्राप्त करना आवश्यक होता है। यह संघात्मक संतुलन को बनाए रखने का एक मूलभूत उपाय है।

जब विधेयक संसद से पारित हो जाता है तथा, जहाँ आवश्यक हो, राज्यों की सहमति भी प्राप्त कर ली जाती है, तब इसे राष्ट्रपति के पास अनुमोदन के लिये भेजा जाता है।

यहाँ एक महत्वपूर्ण तथ्य यह है कि राष्ट्रपति को ऐसे संविधान संशोधन विधेयक को अनिवार्यतः अपनी स्वीकृति प्रदान करनी होती है। वे न तो इसे अस्वीकृत कर सकते हैं, और न ही इसे पुनर्विचार हेतु संसद को वापस भेज सकते हैं।

राष्ट्रपति की स्वीकृति प्राप्त होते ही यह विधेयक अधिनियम का रूप ले लेता है और इसके प्रावधानों को संविधान में संलग्न कर दिया जाता है, जिससे वे पूर्णतः वैधानिक शक्ति प्राप्त कर लेते हैं।

संविधान संशोधन के प्रकार (Types of Constitutional Amendments)

भारतीय संविधान में संशोधन की व्यवस्था को प्रभावशाली रूप से लागू करने हेतु इसके विविध प्रावधानों को तीन भिन्न वर्गों में विभाजित किया गया है, जिनमें प्रत्येक के लिए एक अलग प्रक्रिया निर्धारित की गई है। इनमें से दो प्रक्रियाओं को अनुच्छेद 368 के अंतर्गत विन्यस्त किया गया है, जबकि तीसरी प्रक्रिया का प्रावधान अनुच्छेद 2 तथा अनुच्छेद 3 में किया गया है। यद्यपि, अनुच्छेद 4 के अंतर्गत यह निर्दिष्ट है कि अनुच्छेद 2 और 3 के आधार पर किए गए परिवर्तन को औपचारिक रूप से संविधान संशोधन नहीं माना जाएगा।

अनुच्छेद 368 के अनुसार संविधान संशोधन की दो विधियाँ अपनाई जाती हैं—प्रथम, संसद के विशेष बहुमत द्वारा, और द्वितीय, संसद के विशेष बहुमत के अतिरिक्त, कम-से-कम आधे राज्यों के विधानमंडलों के अनुसमर्थन द्वारा।

इस आधार पर संविधान में संशोधन तीन तरीकों से किया जा सकता है—

  1. संसद के साधारण बहुमत के माध्यम से
  2. संसद के विशेष बहुमत के माध्यम से
  3. संसद के विशेष बहुमत तथा आधे राज्यों के अनुसमर्थन के माध्यम से

संसद के साधारण बहुमत द्वारा (By Simple Majority of the Parliament)

भारतीय संविधान के अंतर्गत कुछ प्रावधान ऐसे हैं जिनमें संशोधन के लिए कोई विशिष्ट विधिक प्रक्रिया अपेक्षित नहीं होती। इन मामलों में संसद द्वारा साधारण विधायी प्रक्रिया के अनुरूप ही संशोधन किया जाता है, अर्थात् संसद के दोनों सदनों में उपस्थित और मतदान करने वाले सदस्यों के साधारण बहुमत से। इस श्रेणी में आने वाले संशोधन, अनुच्छेद 368 की परिधि में नहीं आते और इस कारण उन्हें औपचारिक रूप से संविधान संशोधन नहीं माना जाता।

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इस प्रक्रिया के अंतर्गत संसद को जिन महत्वपूर्ण विषयों में संशोधन का अधिकार है, वे निम्नलिखित हैं—

  • नए राज्यों का प्रवेश, स्थापना, गठन अथवा वर्तमान राज्यों की सीमाओं, नामों और क्षेत्रों में परिवर्तन (अनुच्छेद 2, 3 और 4)
  • नागरिकता के प्राप्ति तथा समाप्ति से संबंधित विधियाँ (अनुच्छेद 11)
  • संसद में गणपूर्ति की विधि [अनुच्छेद 100(3)]
  • संसद की कार्यप्रणाली के नियमों का निर्धारण [अनुच्छेद 118(1)]
  • उच्चतम न्यायालय में न्यायाधीशों की संख्या का विनियमन [अनुच्छेद 124(1)]
  • राज्यों में विधान परिषदों का गठन या उन्मूलन (अनुच्छेद 169)
  • केंद्रशासित प्रदेशों का प्रशासन (अनुच्छेद 239क)
  • संसद और राज्य विधानमंडलों के लिए निर्वाचन एवं निर्वाचन क्षेत्रों का पुनर्निर्धारण
  • दूसरी अनुसूची से संबंधित—राष्ट्रपति, राज्यपाल, लोकसभा अध्यक्ष, न्यायाधीशों एवं नियंत्रक-महालेखा परीक्षक आदि के वेतन, भत्तों आदि का विनियमन [अनुच्छेद 59(3), 65(3), 75(6), 97, 125, 148(3), 158(3), 164(5), 186 और 221]
  • अनुसूचित क्षेत्रों एवं अनुसूचित जनजातियों के प्रशासन और नियंत्रण की व्यवस्था (पाँचवीं अनुसूची का अनुच्छेद 7)
  • असम, मेघालय, त्रिपुरा एवं मिजोरम राज्यों में जनजातीय क्षेत्रों के प्रशासन से संबंधित प्रावधान (छठी अनुसूची का अनुच्छेद 21)

इस प्रकार, साधारण बहुमत द्वारा होने वाले संशोधन संविधान के महत्त्वपूर्ण प्रावधानों को प्रभावित कर सकते हैं, परंतु चूँकि इनमें संविधान संशोधन की विशिष्ट प्रक्रिया लागू नहीं होती, अतः इन्हें औपचारिक संशोधन नहीं माना जाता। इन संशोधनों की विशेषता यह है कि वे विधायी प्रक्रिया का अनुसरण करते हुए संसदीय संप्रभुता की अवधारणा को पुष्ट करते हैं।

संसद के विशेष बहुमत द्वारा (By Special Majority of the Parliament)

भारतीय संविधान के अधिकांश प्रावधानों में परिवर्तन की प्रक्रिया संसद के विशेष बहुमत के माध्यम से सम्पन्न की जाती है। इस विशेष बहुमत का तात्पर्य दो स्तरों पर बहुमत प्राप्त करने से है – एक, संसद के प्रत्येक सदन की कुल सदस्य संख्या के बहुमत से, और दूसरा, सदन में उपस्थित एवं मतदान करने वाले सदस्यों के न्यूनतम दो-तिहाई बहुमत से।

यहाँ “कुल सदस्य संख्या” का आशय उस पूर्ण संख्या से है, जो किसी सदन का औपचारिक गठन करती है, भले ही उसमें कुछ सीटें रिक्त हों या कुछ सदस्य अनुपस्थित हों। वहीं “उपस्थित और मतदान करने वाले” सदस्यों से तात्पर्य उन सांसदों से है जो मतदान के समय सदन में उपस्थित रहकर मतदान करते हैं—भले ही उनका मत पक्ष में हो या विपक्ष में। यदि कोई सदस्य सदन में उपस्थित तो रहता है, लेकिन वह मतदान प्रक्रिया में भाग नहीं लेता है, तो उसे इस श्रेणी में सम्मिलित नहीं किया जाता है।

जब विशेष बहुमत से पारित किए जाने वाले विधेयकों की सूक्ष्म व्याख्या की जाती है, तो लोकसभा और राज्यसभा के प्रक्रिया व कार्य-संचालन नियमों के अंतर्गत यह स्पष्ट किया गया है कि ऐसे विधेयकों को प्रत्येक विधायी चरण में विशेष बहुमत प्राप्त करना आवश्यक होता है। यद्यपि यह एक आदर्श स्थिति मानी जाती है, परंतु व्यावहारिक अनुभव यह दर्शाता है कि वर्तमान संसदीय परिपाटियों के अनुसार ऐसे विधेयकों को केवल अंतिम अर्थात् तीसरे पठन के समय ही विशेष बहुमत से पारित किया जाता है, जबकि पहले दो चरणों में ऐसा अनिवार्य नहीं होता।

भारतीय संविधान के जिन प्रावधानों में संसद के विशेष बहुमत से संशोधन किया जाता है, वे निम्नलिखित हैं –

  • मूल अधिकार
  • ऐसे अन्य संवैधानिक संशोधन, जो न तो साधारण बहुमत द्वारा किए जा सकते हैं और न ही आधे राज्यों के अनुसमर्थन सहित विशेष बहुमत की श्रेणी में आते हैं।

यह प्रक्रिया संवैधानिक संतुलन, लोकतांत्रिक समावेशन तथा विधायी सावधानी के अत्यंत महत्वपूर्ण और मूलभूत आधारों को सुदृढ़ करती है।

संसद के विशेष बहुमत एवं राज्यों के अनुसमर्थन द्वारा (Special Majority of Parliament and Ratification of the States)

संविधान के वे प्रावधान जो संघीय संरचना, केंद्र-राज्य शक्तियों के वितरण, अथवा निर्वाचन प्रणाली से जुड़े होते हैं, उनमें परिवर्तन करने हेतु संबंधित राज्यों से परामर्श अथवा उनकी सहमति प्राप्त करना अनिवार्य होता है। ऐसे संशोधनों की प्रक्रिया में व्यापक सहमति की अपेक्षा की जाती है, जिससे समावेशी लोकतांत्रिक दृष्टिकोण सुनिश्चित हो सके।

इस प्रकार के संवैधानिक परिवर्तनों को संसद के दोनों सदनों द्वारा विशेष बहुमत से पारित किए जाने के पश्चात्, देश के कम-से-कम आधे राज्यों की विधानसभाओं से साधारण बहुमत द्वारा समर्थन प्राप्त होना अनिवार्य होता है। संसद और राज्यों दोनों की सहमति प्राप्त हो जाने के बाद, संशोधन से संबंधित औपचारिक प्रक्रिया पूर्ण मानी जाती है। किंतु राज्यों द्वारा उक्त विधेयक पारित करने के लिए कोई निश्चित समय-सीमा निर्धारित नहीं की गई है, जिससे यह प्रक्रिया समय की दृष्टि से लचीली बनी रहती है।

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निम्नांकित संवैधानिक प्रावधानों में संशोधन संसद के विशेष बहुमत और राज्यों के अनुसमर्थन की प्रक्रिया के माध्यम से किया जा सकता है –

  • राष्ट्रपति के निर्वाचन तथा संबंधित प्रक्रिया (अनुच्छेद 54 और 55)
  • राज्य की कार्यपालिका शक्ति का विस्तार (अनुच्छेद 162)
  • केंद्रशासित प्रदेशों के लिए उच्च न्यायालय की स्थापना (अनुच्छेद 241)
  • वस्तु एवं सेवा कर परिषद् का गठन (अनुच्छेद 279क)
  • संघ की न्यायपालिका की व्यवस्था (भाग 5, अध्याय 4)
  • राज्यों के उच्च न्यायालयों से संबंधित प्रावधान (भाग 6, अध्याय 5)
  • केंद्र एवं राज्यों के मध्य विधायी अधिकारों का विभाजन (भाग 11, अध्याय 1)
  • सातवीं अनुसूची की तीनों सूचियों में संशोधन
  • संसद में राज्यों के प्रतिनिधित्व से संबंधित प्रावधान
  • संविधान में संशोधन की शक्ति एवं उसकी प्रक्रिया (अनुच्छेद 368)

यह प्रक्रिया भारतीय संविधान के संघीय चरित्र को संरक्षित करने के लिए अत्यंत महत्वपूर्ण है और इसके द्वारा केंद्र तथा राज्यों के बीच संतुलन एवं समन्वय को सुनिश्चित किया जाता है। इस प्रकार, इन संशोधनों में सर्वोच्च लोकतांत्रिक मानदंडों का पालन करते हुए संवैधानिक स्थायित्व को बनाए रखने का प्रयास किया जाता है।

संविधान संशोधन प्रक्रिया की आलोचना (Criticism of Amendment Procedure of the Constitution)

संविधान संशोधन प्रक्रिया की निम्नलिखित आधारों पर आलोचना की जा सकती है –

  • भारत के पास संयुक्त राज्य अमेरिका या कई अन्य देशों की तरह कोई भी स्थायी संवैधानिक संशोधन सभा या परिषद् नहीं है तथा सभी विधायी कार्य अपेक्षाकृत अनुभवहीन संसद द्वारा किये जाते हैं।
  • राज्य विधानिका, विधान परिषद् के गठन या उत्सादन का प्रस्ताव करने के अलावा, संशोधन से संबंधित और कोई कार्य आरम्भ कर सकती है।
  • राज्य विधानमंडलों से संशोधन संबंधी सहमति लेने की समय-सीमा निर्धारित नहीं की गई है।
  • संविधान संशोधन विधेयक के संदर्भ में संसद के दोनों सदनों के मध्य गतिरोध उत्पन्न होने की दशा में संयुक्त बैठक का कोई प्रावधान नहीं है।
  • संविधान संशोधन प्रणाली में व्याप्त कमियों के कारण न्यायपालिका के हस्तक्षेप की गुंजाइश रहती है। संविधान के अधिकांश भाग का संशोधन संसद द्वारा विशेष या साधारण बहुमत से किया जाता है।
  • भारत में सिर्फ कुछ ही मामलों में केवल आधे राज्यों की सहमति आवश्यक होती है, जबकि संयुक्त राज्य अमेरिका में तीन-चौथाई राज्यों का अनुसमर्थन अनिवार्य होता है।

संविधान संशोधन का महत्त्व (Significance of Amendment of the Constitution)

संविधान संशोधन की प्रक्रिया का महत्त्व निम्नलिखित कथनों के आधार पर व्यक्त किया जा सकता है –

  • पूर्व प्रधानमंत्री पं. नेहरू ने संविधान संशोधन प्रकृति के बारे कहा था कि “हम संविधान को इतना ठोस एवं स्थायी बनाना चाहते हैं, जितना कि बन सकते हैं। फिर भी, संविधान में कोई स्थायित्व नहीं है। इसमें कुछ हद तक परिवर्तनीयता होनी चाहिये।
  • यदि किसी वस्तु को अपरिवर्तनीय और स्थायी बना देंगे तो वह राष्ट्र की प्रगति को रोक देगी और इस प्रकार हम एक जीवित और संगठित राष्ट्र की प्रगति को भी रोक देंगे। हम किसी अवस्था में इस संविधान को इतना अमम्य भी नहीं बना सकते थे कि कहीं बदलती परिस्थितियों के हिसाब से यह परिवर्तित न हो सके। चूँकि विश्व एक संक्रमण-काल में है और हम तीव्र परिवर्तन के दौर से गुज़र रहे हैं, तब यह सम्भव है कि हम जो आज कह रहे हैं, कल उसे पूरी तरह लागू नहीं कर सकें।”
  • डॉ. अम्बेडकर ने संविधान सभा में संविधान संशोधन का प्रस्ताव प्रस्तुत करते हुए कहा था कि “जो लोग इस संविधान से असन्तुष्ट हैं, उन्हें केवल दो-तिहाई बहुमत प्राप्त करना होगा और यदि वे इतना बहुमत प्राप्त नहीं कर सकते हैं, तो यह समझा चाहिये कि संविधान के प्रति असन्तुष्टि में जनता उनके साथ नहीं है।”
  • डॉ. अम्बेडकर ने संविधान संशोधन प्रक्रिया के बारे में कहा था कि “संविधान सभा ने संविधान पर किसी भी रूप में अंतिम मुहर लगाने से स्वयं को दूर रखा है। ऐसा उसने कनाडा की तरह नागरिकों को संशोधन का अधिकार न देने या अमेरिका और ऑस्ट्रेलिया की तरह कठोर प्रक्रिया को पूरा करने के बाद संशोधन को सम्भव बनाने की प्रक्रिया से स्वयं को दूर रखा है एवं संविधान संशोधन के लिये अपेक्षाकृत सरल प्रक्रिया अपनाई है।”
  • के.सी. व्हेयर के अनुसार “भारत में संविधान संशोधन के लिये अपनाई गई विविधतामूलक प्रक्रिया बुद्धिमत्तापूर्ण है। यह बामुश्किल ही देखने को मिलती है।”
  • ग्रीनविल आस्टिन के अनुसार “संविधान संशोधन प्रक्रिया अपने आप प्रमाणित करती है कि यह संविधान का सर्वाधिक स्वीकार्य हिस्सा है। हालाँकि यह काफी जटिल है किंतु अनेक गुणों से युक्त है।”
संविधान संशोधन अधिनियम/संख्यामहत्वपूर्ण प्रावधान
प्रथम संविधान संशोधन अधिनियम, 1951अनुच्छेद 19(2) में निर्बन्धन के तीन नए आधार शामिल किए गए – लोक व्यवस्था, विदेशी राज्यों से मैत्री संबंध, अपराध भड़काना19(6) राज्य को व्यापार या कारोबार से नागरिकों को पूर्णतः अपवर्जित करके अपने पक्ष में एकाधिकार सृजित करने या किसी व्यापार का राष्ट्रीयकरण करने की शक्ति प्रदान की गई। संविधान में 9वीं अनुसूची का प्रवेश। भूमि सुधार विधियों के संरक्षण के लिये अनुच्छेद 31(क) और 31(ख) जोड़े गए। 15(4) के अंतर्गत राज्य को सामाजिक और शैक्षिक रूप से पिछड़े वर्गों के लिये विशेष प्रावधान करने का अधिकार प्रदान किया गया।
7वाँ संविधान संशोधन अधिनियम, 1955राज्यों के वर्गीकरण यथा- भाग ‘क’, भाग ‘ख’, भाग ‘ग’ और भाग ‘घ’ को समाप्त करके इसके स्थान पर 14 राज्य और 6 केंद्रशासित प्रदेशों की व्यवस्था की गई। दो या दो से अधिक राज्यों के लिये सामूहिक न्यायालय की व्यवस्थाउच्च न्यायालय में अतिरिक्त न्यायाधीशों एवं कार्यकारी न्यायाधीशों की नियुक्ति की व्यवस्थाकेंद्रशासित प्रदेशों में उच्च न्यायालयों के न्यायक्षेत्र का विस्तार
9वाँ संविधान संशोधन अधिनियम, 1960पहली अनुसूची में परिवर्तन करके बेरुबारी क्षेत्र को पाकिस्तान को दे दिया गया।
11वाँ संविधान संशोधन अधिनियम, 1961राष्ट्रपति की निर्वाचन प्रणाली में संसद के दोनों सदनों की संयुक्त बैठक की जगह निर्वाचक मंडल की व्यवस्था की गई। राष्ट्रपति और उपराष्ट्रपति के निर्वाचन की वैधता को इस आधार पर चुनौती नहीं दी जा सकती कि अनुच्छेद 54 और अनुच्छेद 55 में वर्णित निर्वाचक मंडल पूर्ण नहीं है।
16वाँ संविधान संशोधन अधिनियम, 1963अनुच्छेद 19 के उपखंड 2, 3, 4 में निर्बन्धन का एक और आधार भारत की सम्प्रभुता और अखंडता में जोड़ा गया।
21वाँ संविधान संशोधन अधिनियम, 1967‘सिंधी’ को एक नई भाषा के रूप में आठवीं अनुसूची में शामिल किया गया। इससे आठवीं अनुसूची में भाषाओं की संख्या बढ़कर 15 हो गई थी।
24वाँ संविधान संशोधन अधिनियम, 1971संसद को मूल अधिकारों सहित संविधान के किसी भी भाग में संशोधन का अधिकार प्रदान किया गया। राष्ट्रपति को बाध्य कर दिया गया कि वह संविधान संशोधन विधेयक पर अनिवार्य रूप से सहमति देगा।
25वाँ संविधान संशोधन अधिनियम, 1971संपत्ति के अधिकारों में कटौतीअनुच्छेद 31(2) में “प्रतिकर” शब्द को “राशि” शब्द से प्रतिस्थापित किया गया। अनुच्छेद 39 (ख) और (ग) में उल्लिखित निदेशक तत्वों को प्रभावी करने वाली किसी भी विधि को इस आधार पर चुनौती नहीं दी जा सकती कि वह अनुच्छेद 14, 19 और 31 के अधिकारों का उल्लंघन करती है।
26वाँ संविधान संशोधन अधिनियम, 1971प्रिवी पर्स और पूर्व राजाओं या शासकों के विशेषाधिकारों को समाप्त कर दिया गया। यह प्रावधान संविधान के अनुच्छेद 291 में उल्लिखित था।
38वाँ संविधान संशोधन अधिनियम, 1975अनुच्छेद 352 के अधीन राष्ट्रपति द्वारा राष्ट्रीय आपातकाल की उद्घोषणा को न्यायिक समीक्षा की परिधि से बाहर कर दिया गया। राष्ट्रपति, राज्यपाल और प्रशासक द्वारा जारी किये जाने वाले अध्यादेशों को न्यायिक समीक्षा से बाहर कर दिया गया।
39वाँ संविधान संशोधन, 1975राष्ट्रपति, उपराष्ट्रपति, प्रधानमंत्री और लोकसभा अध्यक्ष के निर्वाचन-संबंधी विवादों को न्यायालयों के अधिकार क्षेत्र से बाहर कर दिया गया।
42वाँ संविधान संशोधन अधिनियम, 1976संविधान की उद्देशिका में समाजवादी, पंथनिरपेक्ष तथा अखंडता तीन नए शब्दों को शामिल किया गया। संविधान के भाग-IV(क) में नागरिकों के लिये मौलिक कर्तव्यों को जोड़ा गया। भाग-XVII(क) के अंतर्गत प्रशासनिक अधिकरणों तथा अन्य विषयों के लिये अधिकरणों की व्यवस्था की गई। राष्ट्रपति के लिये कैबिनेट की सलाह मानना अनिवार्य कर दिया गया। संवैधानिक संशोधनों को न्यायिक समीक्षा के दायरे से बाहर कर दिया गया। लोकसभा तथा राज्य विधानसभाओं की सीटों की संख्या को वर्ष 1971 की जनगणना के आधार पर वर्ष 2001 तक के लिये निश्चित कर दिया गया। उच्चतम न्यायालय और उच्च न्यायालयों की न्यायिक समीक्षा एवं रिट क्षेत्राधिकार में कटौती की गई। राज्य नीति के निदेशक तत्त्वों के क्रियान्वयन के लिये बनाई गई विधियों को इस आधार पर रद्द नहीं किया जा सकता है कि वे मूल अधिकारों का उल्लंघन करती हैं। लोकसभा तथा राज्य विधानसभाओं के कार्यकाल में 1 वर्ष की वृद्धि की गई। संसद को राष्ट्र विरोधी गतिविधियों के समाधान हेतु विधि बनाने की शक्ति प्रदान की गई। साथ ही, यह भी निर्धारित किया गया कि इस प्रकार की विधि मूल अधिकारों को प्रभावित नहीं करेगी। भारत में किसी एक भाग में भी राष्ट्रीय आपात की उद्घोषणा की जा सकेगी। राष्ट्रपति शासन की अवधि को एक बार में 6 माह से बढ़ाकर एक वर्ष तक कर दी गई। केंद्र सरकार को किसी भी राज्य में कानून और व्यवस्था बनाए रखने के उद्देश्य से सशस्त्र बलों को भेजने की शक्ति प्रदान की गई। अखिल भारतीय न्यायिक सेवा के सृजन की व्यवस्था। संसद एवं राज्य विधानसभाओं में गणपूर्ति की अनिवार्यता को समाप्त किया। नीति-निदेशक तत्त्वों में तीन निदेश जोड़े गए – समान न्याय और निःशुल्क विधिक सहायता, उद्योगों के प्रबंधन में कर्मकारों की सहभागिता, पर्यावरण संरक्षण तथा संवर्द्धन और वन एवं वन्य जीवों का संरक्षण करना। पाँच प्रविष्टियों को राज्य सूची से समवर्ती सूची में स्थानांतरित किया गया – शिक्षा, वन, वन्यजीवों एवं पक्षियों का संरक्षण, नापतौल और न्याय प्रशासन, उच्चतम न्यायालय एवं उच्च न्यायालयों के अतिरिक्त अन्य सभी न्यायालयों का गठन एवं संगठनसंसदीय विशेषाधिकारों के संबंध में निर्णय लेने का अधिकार संसद को प्रदान किया गया।
43वाँ संविधान संशोधन अधिनियम, 1977उच्चतम न्यायालय और उच्च न्यायालयों की न्यायिक समीक्षा एवं रिट न्यायक्षेत्र के अधिकारों को बहाल किया गया तथा राष्ट्र विरोधी गतिविधियों के संबंध में संसद को विधि बनाने की शक्ति से संबंधित प्रावधान को हटा दिया गया
44वाँ संविधान संशोधन अधिनियम, 1978लोकसभा तथा राज्य विधानसभाओं के कार्यकाल पुनः 5 वर्ष का कर दिया गया। संसद एवं राज्य विधानसभाओं में गणपूर्ति को पुनः अनिवार्य बना दिया गया। संपत्ति के अधिकार को मूल अधिकार से हटाकर एक विधिक अधिकार बना दिया गया। अनुच्छेद 352 में संशोधन करके यह प्रावधान किया गया कि आपातकाल घोषणा का आधारआंतरिक अशांति‘ की जगह ‘सशस्त्र विद्रोह‘ होगा। अनुच्छेद 20 और 21 के अधिकारों को आपातकाल के दौरान निलंबित नहीं किया जा सकेगा। राष्ट्रपति, कैबिनेट की लिखित सिफारिश पर ही राष्ट्रीय आपातकाल की घोषणा कर सकेगा। राष्ट्रपति कैबिनेट के फैसले को एक बार पुनर्विचार के लिये लौटा सकेगा, किंतु पुनर्विचार के बाद इसे अनुमति देना बाध्यकारी होगा। संसदीय विशेषाधिकारों के प्रावधानों में से ‘हाउस ऑफ कॉमन्स‘ शब्द को हटा दिया गया। संसद और राज्य विधानमंडलों की कार्यवाही की रिपोर्ट के समाचार-पत्रों में प्रकाशन को संवैधानिक संरक्षण प्रदान किया गया।
52वाँ संविधान संशोधन अधिनियम, 1985संविधान में दसवीं अनुसूची को शामिल किया गया।
61वाँ संविधान संशोधन अधिनियम, 1989मतदान की आयु 21 वर्ष से घटाकर 18 वर्ष कर दी गई।
71वाँ संविधान संशोधन अधिनियम, 1992कोंकणी, मणिपुरी, और नेपाली भाषा को 8वीं अनुसूची में शामिल किया गया।
73वाँ संविधान संशोधन अधिनियम, 1992पंचायतों को संवैधानिक स्थिति प्रदान की गई तथा संविधान में 11वीं अनुसूची जोड़ी गई और इसके तहत पंचायतों के लिये 29 विषयों की सूची की व्यवस्था की गई।
74वाँ संविधान संशोधन अधिनियम, 1992शहरी निकायों को संवैधानिक स्थिति प्रदान की गई। संविधान में भाग 9क जोड़ा गया, जिसे ‘नगरपालिकाएँ‘ नाम दिया गया। साथ ही, 12वीं अनुसूची में 18 विषयों की सूची की व्यवस्था भी की गई।
77वाँ संविधान संशोधन अधिनियम, 1995अनुच्छेद 16(4)(क) करके प्रावधान किया गया कि अनुच्छेद 16 की कोई बात राज्य को अनुसूचित जातियों और अनुसूचित जनजातियों की प्रोन्नति में आरक्षण के लिये प्रावधान करने से वर्जित नहीं करेगी
81वाँ संविधान संशोधन अधिनियम, 2000संविधान में अनुच्छेद 16(4)(ख) शामिल किया गया। इसके अंतर्गत अनुच्छेद 16 की किसी भी व्यवस्था के अधीन अनुसूचित जातियों और अनुसूचित जनजातियों के लिये वर्ष में जितने आरक्षित पद रिक्त हैं, यदि वे पद उस वर्ष नहीं भरे जाते हैं, तो उन पर आगामी वर्ष में या वर्षों में होने वाली नियुक्तियों में शामिल नहीं किया जाएगा, बल्कि उसे एक पृथक श्रेणी माना जाएगा। इसका अर्थ है कि भविष्य में होने वाली नियुक्तियों में कुल पदों में से पचास प्रतिशत आरक्षित पदों के निर्धारण हेतु पिछले वर्षों में रिक्त रहे गए पदों को शामिल नहीं किया जाएगा। सरल शब्दों में, इस संशोधन के माध्यम से उस व्यवस्था को समाप्त कर दिया गया, जिसके तहत नई होने वाली नियुक्तियों में 50% आरक्षित पदों के निर्धारण हेतु बैकलॉग रिक्तियों का प्रयोग किया जाता था।
82वाँ संविधान संशोधन अधिनियम, 2000अनुसूचित जातियों और अनुसूचित जनजातियों के लिये आरक्षित पदों के लिये होने वाली किसी परीक्षा में अंकों और योग्यता की छूट का प्रावधान किया गया।
84वाँ संविधान संशोधन अधिनियम, 2000संसद और राज्य विधानमंडलों की सीटों के पुनर्निर्धारण को 2026 तक प्रतिबंधित कर दिया गया।
85वाँ संविधान संशोधन अधिनियम, 2001सार्वजनिक नौकरियों में प्रोन्नति के लिये ‘परिणामी ज्येष्ठता‘ को भूतलक्षी रूप में जून 1995 से प्रभावी बनाया गया।
86वाँ संविधान संशोधन अधिनियम, 2002शिक्षा के अधिकार को मूल अधिकार का दर्जा प्रदान किया गया। अनुच्छेद 21(क) के अनुसार- ‘6 से 14 साल तक की आयु के सभी बच्चों को निःशुल्क तथा अनिवार्य शिक्षा उपलब्ध कराना राज्य का कर्तव्य होगा।’ संविधान के अनुच्छेद 45 के विषय में परिवर्तन किया गया, जिसमें छह साल से कम उम्र के बच्चों की शुरुआती देखभाल और उनकी शिक्षा की व्यवस्था की गई है। संविधान के अनुच्छेद 51क में संशोधन करके एक और मूल कर्तव्य जोड़ा गया, जिसके तहत 6 वर्ष से 14 वर्ष तक की आयु के बच्चों को उनके माता-पिता या अभिभावक अथवा संरक्षक द्वारा शिक्षा दिलाने के अवसर उपलब्ध कराने होंगे
88वाँ संविधान संशोधन अधिनियम, 2003संविधान में अनुच्छेद 268(क) शामिल किया गया, जिसके अंतर्गत केंद्र सरकार को ‘सेवा करअधिरोपित करने का अधिकार प्रदान किया गया।
89वाँ संविधान संशोधन अधिनियम, 2003इस संशोधन के अंतर्गत अनुसूचित जनजातियों के लिये अनुसूचित जाति आयोग से अलग राष्ट्रीय अनुसूचित जनजाति आयोग की स्थापना का प्रावधान किया गया।
91वाँ संविधान संशोधन अधिनियम, 2003मंत्रिपरिषद में प्रधानमंत्री सहित मंत्रियों की कुल संख्या, लोकसभा की कुल सदस्य संख्या के 15 प्रतिशत से अधिक नहीं होनी चाहिये। संसद सदस्य दलबदल अधिनियम के आधार पर अयोग्य घोषित हो जाता है, तो ऐसा सदस्य मंत्रिपरिषद के लिये अयोग्य होगा। राज्यों में मुख्यमंत्री सहित मंत्रिपरिषद में मंत्रियों की कुल सदस्य संख्या 15 प्रतिशत से अधिक नहीं होगी लेकिन राज्यों में मुख्यमंत्री सहित मंत्रिपरिषद की न्यूनतम संख्या 12 से कम नहीं होगी। 10वीं अनुसूची में उल्लिखित प्रावधान, जिसके अनुसार- यदि किसी पार्टी के एक-तिहाई सदस्य दल परिवर्तन करते हैं, तो उन्हें अयोग्य घोषित नहीं किया जाएगा, को समाप्त कर दिया गया। राज्य विधानमंडल का कोई सदस्य यदि दल-बदल अधिनियम के आधार पर अयोग्य घोषित हो जाता है तो वह सदस्य मंत्रिपरिषद के लिये भी अयोग्य होगा।
92वाँ संविधान संशोधन अधिनियम, 20038वीं अनुसूची में बोडो, डोगरी, मैथिली और संथाली भाषा को शामिल किया गया। इससे कुल अनुसूचित भाषाओं की संख्या 22 हो गई।
93वाँ संविधान संशोधन अधिनियम, 2005अनुच्छेद 15 में उपखण्ड (4) और अनुच्छेद 16 में उपखण्ड (5) जोड़कर शिक्षण संस्थाओं में ओबीसी आरक्षण के लिये प्रावधान किया गया।
94वाँ संविधान संशोधन अधिनियम, 2006इस संशोधन के तहत बिहार में जनजातीय मंत्री नियुक्त करने की बाध्यता समाप्त कर दी गई तथा इस प्रावधान को झारखंड और छत्तीसगढ़ के लिये अनिवार्य कर दिया गया
97वाँ संविधान संशोधन अधिनियम, 2011सहकारी समितियों को संवैधानिक दर्जा प्रदान किया गया। संविधान में निम्नलिखित तीन परिवर्तन किये गए- 1. सहकारी समिति बनाने को अधिकार मूल अधिकार घोषित किया गया। 2. सहकारी समितियों को नीति-निदेशक तत्वों में शामिल किया गया। 3. सहकारी समिति के नाम से एक नया भाग IX-B जोड़ा गया।
98वाँ संविधान संशोधन अधिनियम, 2012संविधान में अनुच्छेद 371-J शामिल किया गया इसके अंतर्गत कर्नाटक राज्य के हैदराबाद-कर्नाटक क्षेत्र के लिये विशेष प्रावधान किया गया।
99वाँ संविधान संशोधन अधिनियम, 2014सर्वोच्च न्यायालय और उच्च न्यायालयों में न्यायाधीशों की नियुक्ति के लिये कॉलेजियम प्रणाली के स्थान पर “राष्ट्रीय न्यायिक नियुक्ति आयोग” की व्यवस्था की गई किंतु सर्वोच्च न्यायालय ने इसे संविधान के मूल ढाँचे का उल्लंघन मानते हुए अविधिमान्य घोषित कर दिया।
100वाँ संविधान संशोधन अधिनियम, 2015भारत और बांग्लादेश के बीच कुछ भू-भागों का आदान-प्रदानप्रथम अनुसूची के चार राज्यों (असम, पश्चिम बंगाल, मेघालय एवं त्रिपुरा) के क्षेत्रों से संबंधित प्रावधानों में संशोधन किया गया।
101वाँ संविधान संशोधन अधिनियम, 2016वस्तु एवं सेवा कर का संविधान में प्रवेश।
102वाँ संविधान संशोधन अधिनियम, 2018राष्ट्रीय पिछड़ा वर्ग आयोग को संवैधानिक दर्जा प्रदान किया गया।
103वाँ संविधान संशोधन अधिनियम, 2019आर्थिक रूप से कमजोर वर्गों के लिये आरक्षण का प्रावधानअनुच्छेद 15 और 16 में उपखंड 15(6) और 16(6) को शामिल किया गया।
104वाँ संविधान संशोधन अधिनियम, 2020अनुच्छेद 334 में संशोधन कर अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति के लिये लोकसभा और विधानसभा में आरक्षण की समयावधि को 25 जनवरी, 2030 तक बढ़ा दिया गयाआंग्ल-भारतीयों को लोकसभा और राज्य विधानसभा में नामनिर्देशित करने के प्रावधान को समाप्त कर दिया गया हैआंग्ल-भारतीयों से संबंधित यह प्रावधान 25 जनवरी, 2020 को समाप्त हुआ।

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