
स्वतंत्रता का अधिकार भारतीय संविधान में निहित एक मौलिक और अत्यंत महत्वपूर्ण अधिकार है। संविधान के अनुच्छेद 19 से 22 तक भारतीय नागरिकों को विभिन्न प्रकार की स्वतंत्रता-संबंधी अधिकारों की संविधानिक गारंटी प्रदान की गई है।
अनुच्छेद 19 भारतीय नागरिकों को निम्नलिखित छह स्वतंत्रताओं की सुनिश्चित व्यवस्था करता है–
- वाक् स्वतंत्रता एवं अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता प्राप्त करने का अधिकार।
- शांतिपूर्वक एवं बिना हथियारों के सभा करने की अनुमति।
- संगठन, संघ या सहकारी समिति की स्थापना का अधिकार।
- भारत के राज्यक्षेत्र में निर्बाध गति से गमन करने की स्वतंत्रता।
- देश के किसी भी भाग में निवास करने और बसने का अधिकार।
- व्यवसाय, रोजगार, व्यापार या उद्योग करने की वैधानिक स्वतंत्रता।
वाक् एवं अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता (Freedom of Speech and Expression)
अनुच्छेद 19(1)(क) के अंतर्गत प्रत्येक भारतीय नागरिक को अपने विचारों की अभिव्यक्ति करने की वैधानिक स्वतंत्रता प्राप्त है, जो शब्दों, लेखों, मुद्रण, चित्रण या किसी अन्य माध्यम से की जा सकती है।
भारत के उच्चतम न्यायालय द्वारा इस स्वतंत्रता का व्यापक रूप में व्याख्यात्मक विस्तार करते हुए इसमें निम्नलिखित अधिकारों को सम्मिलित किया गया है–
- प्रेस की स्वतंत्रता,
- व्यावसायिक विज्ञापन प्रकाशित करने की अनुमति,
- टेलीफोन टैपिंग के विरुद्ध संरक्षण,
- शांतिपूर्ण वातावरण में जीवन जीने का अधिकार,
- स्वयं या किसी अन्य के विचार प्रसारित करने का अवसर,
- राजनीतिक संगठनों द्वारा आयोजित बंद के विरुद्ध संरक्षण,
- प्रदर्शन एवं विरोध करने की स्वतंत्रता (हालाँकि, हड़ताल का अधिकार इस सूची में शामिल नहीं है)।
युक्तियुक्त निर्बंधन (Reasonable Restriction)
अनुच्छेद 19(2) के तहत, राज्य वाक् एवं अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर कुछ संवैधानिक प्रतिबंध लागू कर सकता है यदि वे निम्नलिखित महत्वपूर्ण और संवेदनशील पक्षों की रक्षा से संबंधित हों:
- राज्य की सुरक्षा
- भारत की एकता एवं अखंडता
- विदेशी देशों से मैत्रीपूर्ण संबंध
- सार्वजनिक शिष्टाचार और नैतिकता
- न्यायालय की अवमानना
- अपराध प्रेरण या अपराध में संलिप्तता इत्यादि।
शांतिपूर्वक एवं हथियाररहित सम्मेलन करने का अधिकार (Right to Assemble Peaceably and Without Arms)
यह अधिकार भारतीय नागरिकों को यह अधिकार प्रदान करता है कि वे शांतिपूर्वक और बिना किसी हथियार के सभा, सम्मेलन या जुलूस आयोजित कर सकें। तथापि, राज्य इस अधिकार पर नियंत्रणात्मक प्रतिबंध लगा सकता है यदि यह भारत की एकता और अखंडता, अथवा सार्वजनिक व्यवस्था को प्रभावित करता है।
संगम या संघ या सहकारी समितियाँ बनाने का अधिकार (Right to form associations or unions or co-operative societies)
यह अधिकार भारतीय नागरिकों को किसी संस्था, संघ या सहकारी समिति की स्थापना करने की पूर्ण वैधानिक स्वतंत्रता प्रदान करता है। इस मौलिक अधिकार में न केवल संस्था के गठन का, बल्कि उसके संगठन और प्रबंधन का भी अधिकार अंतर्निहित होता है। इसमें सम्मिलित हैं—राजनीतिक दलों की स्थापना, कंपनियों का गठन, समितियों का निर्माण, साझेदारी के रूप में व्यवसाय प्रारंभ करना, तथा श्रमिक संगठनों की स्थापना इत्यादि।
हालांकि, राज्य इस अधिकार पर युक्तियुक्त प्रतिबंध आरोपित कर सकता है, यदि यह भारत की एकता एवं अखंडता, सार्वजनिक व्यवस्था, अथवा सामाजिक नैतिकता के लिए खतरा उत्पन्न करता हो।
भारत के राज्यक्षेत्र में सर्वत्र अबाध संचरण की स्वतंत्रता (Right to move freely throughout the territory of India)
यह प्रमुख अधिकार भारतीय नागरिकों को भारत के किसी भी राज्य या क्षेत्र में निःशुल्क और बिना पूर्व अनुमति के आवागमन की स्वतंत्रता प्रदान करता है। इस प्रावधान का प्राथमिक उद्देश्य क्षेत्रीय पूर्वग्रह, प्रांतीय संकीर्णता तथा विभाजनकारी प्रवृत्तियों को समाप्त कर राष्ट्रीय एकता की भावना को प्रबल करना है।
राज्य इस अधिकार पर निम्नलिखित दो उचित आधारों पर सीमित प्रतिबंध लगा सकता है–
- साधारण नागरिकों के हित में – जैसे संचारी रोगों से पीड़ित व्यक्तियों के आवागमन पर प्रतिबंध, या सार्वजनिक नैतिकता की रक्षा हेतु कुछ व्यक्तियों की गतिविधियों को सीमित करना।
- अनुसूचित जनजातियों के हित में – जनजातीय क्षेत्रों की संस्कृति और भाषा के संरक्षण हेतु बाहरी व्यक्तियों के प्रवेश पर नियंत्रण स्थापित किया जा सकता है।
भारत के राज्यक्षेत्र के किसी भाग में निवास करने और बसने का अधिकार (Right to reside and settle in any part of the territory of India)
अनुच्छेद 19(1) के अंतर्गत भारतीय नागरिकों को पूरे भारत में स्वतंत्र रूप से निवास करने एवं स्थायी रूप से बसने का संवैधानिक अधिकार प्राप्त है। इस अनुच्छेद का मूल उद्देश्य आंतरिक सीमाओं को समाप्त कर राष्ट्रव्यापी एकता और एकजुटता की भावना को सुदृढ़ करना है।
इस अधिकार पर राज्य द्वारा निम्नलिखित दोहरे आधारों पर न्यायसंगत प्रतिबंध लगाए जा सकते हैं–
- सामान्य जनता के हित में, और
- अनुसूचित जनजातीय समुदायों के संरक्षण हेतु।
वृत्ति, उपजीविका, व्यापार या कारोबार करने का अधिकार (Right to practice any profession, or to carry on any occupation, trade or business)
अनुच्छेद 19(1)(घ) भारतीय नागरिकों को यह बुनियादी अधिकार प्रदान करता है कि वे अपनी आजीविका के लिए किसी भी वैध व्यवसाय, पेशे, व्यापार या कार्य को चुन सकें और उसका संचालन स्वतंत्र रूप से कर सकें।
हालाँकि, इस अधिकार पर भी राज्य कुछ सुसंगत प्रतिबंध लगा सकता है, जिनका आधार निम्नलिखित हो सकता है–
- सामान्य जनहित की रक्षा,
- किसी विशिष्ट व्यवसाय या पेशे के लिए आवश्यक तकनीकी योग्यताओं की शर्तें,
- तथा कुछ व्यवसायों या व्यापारों से नागरिकों को वर्जित करने की वैधानिक व्यवस्था।
अपराधियों के लिए दोषसिद्धि के संबंध में संरक्षण (Protection in Respect of Conviction for Offences)
अनुच्छेद 20(1) – पूर्वव्यापी विधियों से संरक्षण (Protection from Ex-post Facto Law)
पूर्वव्यापी कानून (Ex-post Facto Law) से आशय उस विधिक प्रावधान से है जिसे किसी अपराध के घटित होने के पश्चात पारित किया जाए, तथा उसे पूर्व तिथि से लागू किया जाए।
अनुच्छेद 20(1) यह सुनिश्चित करता है कि कोई भी व्यक्ति केवल उसी वर्तमान में प्रवृत्त कानून के अंतर्गत दोषी ठहराया जाएगा, जिसके अंतर्गत अपराध किया गया हो। किसी व्यक्ति को अपराध के समय निर्धारित दंड से अधिक दंडित नहीं किया जा सकता, न ही उसे किसी ऐसे कृत्य के लिए दोषी ठहराया जा सकता है जो उस समय अपराध की श्रेणी में नहीं आता था।
अनुच्छेद 20(2) – दोहरे दंड से संरक्षण (Protection from Double Jeopardy)
यह प्रावधान सुनिश्चित करता है कि कोई भी व्यक्ति एक ही अपराध के लिए एकाधिक बार अभियोजित या दंडित नहीं किया जाएगा। यह सिद्धांत “ने मोबिस इन इडेम” (nemo debet bis vexari pro una et eadem causa) पर आधारित है, जिसका अर्थ है कि किसी को एक ही अपराध के लिए दो बार परेशान नहीं किया जा सकता।
यह संविधानिक संरक्षण केवल न्यायिक कार्यवाहियों पर लागू होता है। विभागीय या प्रशासनिक दंड, जो कि न्यायिक प्रकृति के नहीं होते, इस प्रतिबंध के अंतर्गत नहीं आते।
अनुच्छेद 20(3) – आत्म-अभिशंषण से संरक्षण (Protection from Self-Incrimination)
अनुच्छेद 20(3) का उद्देश्य है कि किसी भी अभियुक्त व्यक्ति को स्वयं के विरुद्ध साक्ष्य देने हेतु बाध्य न किया जाए। यह मौलिक सिद्धांत है कि व्यक्ति को स्वयं को अपराध सिद्ध करने के लिए विवश नहीं किया जा सकता। इस संरक्षण का प्रावधान तभी लागू होता है जब निम्नलिखित तीन शर्तें पूरी हों:
- संबंधित व्यक्ति को किसी अपराध में अभियुक्त होना चाहिए।
- उसे अपने ही विरुद्ध साक्ष्य देने के लिए विवश किया जा रहा हो।
- उसे अनिवार्य रूप से अपनी ही गवाही देने के लिए बाध्य किया गया हो।
प्राण और दैहिक स्वतंत्रता का संरक्षण (Protection of Life and Personal Liberty)
अनुच्छेद 21
अनुच्छेद 21 यह बुनियादी अधिकार प्रदान करता है कि किसी व्यक्ति को उसके जीवन या दैहिक स्वतंत्रता से केवल तभी वंचित किया जा सकता है, जब वह विधि द्वारा स्थापित प्रक्रिया के अंतर्गत हो। अन्यथा नहीं।
ए. के. गोपालन बनाम मद्रास राज्य (1951)
इस ऐतिहासिक निर्णय में उच्चतम न्यायालय ने यह व्यवस्था दी थी कि अनुच्छेद 21 केवल कार्यपालिका की स्वेच्छाचारी कार्यवाहियों के विरुद्ध ही सुरक्षा प्रदान करता है, विधायिका की संप्रभुता को वह चुनौती नहीं देता। इसका अर्थ था कि यदि कोई कानून विधायिका द्वारा विधिवत पारित किया गया है, तो वह व्यक्ति को जीवन से वंचित कर सकता है।
मेनका गांधी बनाम भारत संघ (1978)
इस प्रकरण में न्यायालय ने पूर्ववर्ती निर्णय को पलटते हुए यह व्यवस्था दी कि अनुच्छेद 21 में उल्लिखित ‘विधि द्वारा स्थापित प्रक्रिया’ का अर्थ केवल विधायिका की अनुमति नहीं है, बल्कि वह प्रक्रिया न्यायसंगत, निष्पक्ष और तर्कसंगत होनी चाहिए। इस निर्णय के माध्यम से अनुच्छेद 21 को व्यापक व्याख्या मिली, जिसके अंतर्गत कई मौलिक अधिकारों को सम्मिलित किया गया।
अनुच्छेद 21 के अंतर्गत मान्यता प्राप्त प्रमुख अधिकार
- स्वच्छ पर्यावरण का अधिकार
- निजता का अधिकार
- आश्रय का अधिकार
- स्वास्थ्य का अधिकार
- मानव गरिमा के साथ जीवन यापन का अधिकार
- त्वरित सुनवाई का अधिकार
- जीवनसाथी चुनने का अधिकार
- विदेश यात्रा का अधिकार
- महिलाओं के साथ सम्मानजनक व्यवहार का अधिकार
- सूचना का अधिकार
- धारणीय (सस्टेनेबल) विकास का अधिकार
- समान अवसर का अधिकार
- हिरासत में शोषण के विरुद्ध सुरक्षा का अधिकार
विधि द्वारा स्थापित प्रक्रिया (Process Established by Law)
यह सिद्धांत ब्रिटिश विधिक प्रणाली से प्रेरित है, जिसमें यह स्वीकार किया जाता है कि यदि कोई विधि संसद द्वारा विधिवत पारित की गई है, तो उसे वैध माना जाएगा। हालांकि, मेनका गांधी वाद के बाद यह स्पष्ट कर दिया गया कि ऐसी विधियों को भी न्यायपालिका द्वारा न्यायिक समीक्षा के दायरे में लाया जा सकता है यदि वे अनुचित या अन्यायपूर्ण हों।
सम्यक् विधि प्रक्रिया (Due Process of Law)
सम्यक् विधि प्रक्रिया, जो कि अमेरिकी विधिक प्रणाली की देन है, के अनुसार यदि अमेरिकी संसद द्वारा पारित कोई भी विधिक प्रावधान नैसर्गिक न्याय के सिद्धांतों के अनुरूप तर्कसंगत नहीं पाया जाता है, तो ऐसी स्थिति में अमेरिकी न्यायपालिका को यह सांविधानिक शक्ति प्राप्त है कि वह उक्त विधि को असंवैधानिक घोषित कर सके।
शिक्षा का अधिकार (Right to Education)
भारतीय संविधान के अनुच्छेद 21(क) में 6 से 14 वर्ष की आयु के सभी बच्चों को नि:शुल्क तथा अनिवार्य शिक्षा प्रदान किए जाने का संवैधानिक प्रावधान किया गया है। इस व्यवस्था को आरंभ में संविधान के भाग-IV, अर्थात् राज्य के नीति-निर्देशक तत्वों के अधीन रखा गया था, जिसके माध्यम से संविधान निर्माताओं ने राज्यों से यह अपेक्षा की थी कि वे इस निर्देश को व्यावहारिक रूप देंगे।
मोहिनी जैन बनाम कर्नाटक राज्य वाद में उच्चतम न्यायालय ने यह निर्णय दिया कि शिक्षा का अधिकार, अनुच्छेद 21 में उल्लिखित प्राण एवं दैहिक स्वतंत्रता के दायरे में समाहित है। न्यायालय ने यह भी स्पष्ट किया कि शिक्षा व्यक्ति के समग्र विकास के लिए अनिवार्य है, क्योंकि बिना उचित शिक्षा के कोई भी व्यक्ति अपने मौलिक अधिकारों का प्रभावी उपयोग नहीं कर सकता।
86वां संविधान संशोधन अधिनियम, 2002 के माध्यम से संविधान में एक नवीन अनुच्छेद 21क जोड़ा गया, जिसमें यह प्रावधान किया गया कि “राज्य, विधि द्वारा निर्धारित रीति से, 6 वर्ष से 14 वर्ष की आयु के सभी बच्चों को नि:शुल्क एवं अनिवार्य शिक्षा प्रदान करने हेतु उपबंध करेगा।”
कुछ दशाओं में गिरफ्तारी और निरोध से संरक्षण (Protection Against Arrest and Detention in Certain Cases)
अनुच्छेद 22 कुछ विशेष परिस्थितियों में किसी व्यक्ति को गिरफ्तारी तथा निरोध से संरक्षण प्रदान करता है। इस अनुच्छेद के अंतर्गत गिरफ्तारी दो प्रकार से की जा सकती है–
दण्डात्मक निरोध (Punitive Detention):
यह वह स्थिति होती है जिसमें किसी व्यक्ति को अपराध सिद्ध हो जाने के पश्चात दंडस्वरूप कारावास दिया जाता है।
निवारक निरोध (Preventive Detention):
इस प्रकार की गिरफ्तारी किसी अपराध को घटित करने से पूर्व, संदेह के आधार पर या संभावित अपराध को निवारित करने के लिए की जाती है। इसे एहतियातन निरोध भी कहा जाता है।
दण्डात्मक निरोध के अंतर्गत संरक्षण:
अनुच्छेद 22(1) एवं 22(2) के अंतर्गत यदि किसी व्यक्ति को दण्डात्मक आधार पर गिरफ्तार किया गया है, तो उसे निम्नलिखित महत्वपूर्ण अधिकार प्रदान किए जाते हैं–
- गिरफ्तारी का कारण जानने का अधिकार।
- विधिवत वकील की सहायता प्राप्त करने तथा प्रतिरक्षा का अवसर पाने का अधिकार।
- 24 घंटे के भीतर मजिस्ट्रेट के समक्ष पेश किए जाने का अधिकार।
- मजिस्ट्रेट की अनुमति के बिना 24 घंटे से अधिक निरोध का निषेध।
निवारक निरोध के अंतर्गत संरक्षण:
अनुच्छेद 22(4) से 22(7) तक की व्यवस्थाओं में, निवारक निरोध के अंतर्गत गिरफ्तार व्यक्ति को निम्न सुरक्षा प्राप्त होती है–
- सरकार, किसी व्यक्ति को अधिकतम 3 माह तक हिरासत में रख सकती है। यदि हिरासत की अवधि 3 माह से अधिक करनी हो, तो सलाहकार बोर्ड, जिसमें उच्च न्यायालय के न्यायाधीश होते हैं, से अनुमोदन प्राप्त करना आवश्यक होगा।
- गिरफ्तारी का आधार गिरफ्तार व्यक्ति को सूचित किया जाना चाहिए, यद्यपि लोकहित के विरुद्ध होने पर यह अनिवार्यता हटाई जा सकती है।
- निरुद्ध व्यक्ति को यह अधिकार प्राप्त है कि वह गिरफ्तारी आदेश के विरुद्ध अभ्यावेदन शीघ्र प्रस्तुत कर सके।
निवारक निरोध के प्रमुख उदाहरणों में रासुका (1980), पोटा, एवं UAPA (2019) जैसे विधिक उपबंध सम्मिलित हैं।